नारद मुनि एक महान सन्त थे। वे हर रोज़ सूर्योदय से पहले अपने प्रभु नारायण की भक्ति में तल्लीन होकर वीणा बजाया करते थे। एक दिन, जब वे इसी तरह आलौकिक संगीत बजाने में मग्न थे, उनके मन में एक बहुत अहम् सवाल उठा - सत्संग का क्या महत्त्व होता है? जब उन्हें कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं मिला तो उन्होंने निश्चय किया कि वे स्वयं प्रभु से ही यह सवाल पूछेंगे।
ऐसा कहा जाता है कि नारद मुनि को यह वरदान प्राप्त था कि वे अपनी इच्छानुसार सातों लोकों में, किसी भी आयाम में स्वच्छन्द विहार कर सकते थे। नारद मुनि अपनी विचार-शक्ति के द्वारा क्षीर-सागर पहुँचे जहाँ भगवान नारायण शेषनाग पर बैठे विश्राम कर रहे थे। उनके चरण-स्पर्श करने के बाद नारद मुनि ने उनके सामने अपना प्रश्न रखा, "हे प्रभु, सत्संग का क्या महत्त्व होता है?"
प्रभु नारायण मुस्कुराये और बोले, "तुम भूलोक जाओ। वहाँ तुम्हें जाले से लटकी हुई एक मकड़ी मिलेगी, उस मकड़ी से जाकर यह प्रश्न पूछो।"
नारद ने अपनी यौगिक दृष्टि से उस मकड़ी को देखा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए वह भूलोक की तरफ रवाना हो गये।
नारद मुनि जब अस्तबल पहुँचे तब दोपहर हो चुकी थी। कोने में जंग लगी हुई एक बाल्टी रखी थी। उन्होंने देखा कि वहाँ एक मकड़ी अपने जाले में लटकी हुई है। उन्होंने कहा, "हे मकड़ी, क्या तुम मुझे सत्संग का महत्त्व बताओगी?" मकड़ी ने उनकी तरफ देखा... उसकी आँखें ऊपर चढ़ गईं। और वह मर गई।
नारद व्याकुल हो उठे। वे जल्दी से भगवान विष्णु के पास दौड़कर आये और उन्हें इस अप्रिय घटना के बारे में बताते हुए कहा, "हे प्रभु, अनर्थ हो गया! प्रश्न सुनते ही मकड़ी भगवान को प्यारी हो गई!"
भगवान विष्णु धीमे से मुस्कुराये और बोले, "अच्छा, ऐसा हो गया! तुम नहीं समझे, नारद...? एक बार फिर से भूलोक जाओ। वहाँ तुम्हें एक गाय मिलेगी जो बछड़े को जन्म देने वाली है। उस बछड़े के पास जाकर यह प्रश्न पूछो।"
एक बार फिर नारद अपनी यौगिक शक्ति के सहारे भूलोक पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक गाय को देखा जिसके नीचे भूसा बिछा हुआ था और वह एक बछड़े को जन्म दे रही थी। नारद मुनि उस बछड़े के पास गये और फिर से अपना प्रश्न दोहराया, "हे मासूम बछड़े, सत्संग का क्या महत्त्व होता है?"
सुन्दर भूरी आँखों वाले बछड़े ने इस प्रश्न को सुना, आँख उठाकर उनकी तरफ देखा और मर गया।
यह देखकर नारद मुनि एकदम घबरा गये। अपनी सभी यौगिक शक्तियों को इस्तेमाल करते हुए वे वहाँ से तुरन्त भाग खड़े हुए और घबराये हुए प्रभु-धाम पहुँचे।
"हे प्रभु, आप मेरे साथ क्या लीला रच रहे हैं? वह बछड़ा भी भगवान को प्यारा हो गया!"
भगवान विष्णु नारद मुनि को देखकर मुस्कुरा दिये और बोले, "अरे, फिर से ऐसा हो गया? चलो, कोई बात नहीं। फिर से भूलोक जाओ, वहाँ एक औरत बच्चे को जन्म दे रही है। उस नवजात शिशु से अपना प्रश्न पूछना, तुम्हें जवाब मिल जायेगा।"
नारद मुनि प्रभु की इच्छा का उल्लंघन तो नहीं कर सकते थे, लेकिन साथ ही साथ अपने मन से यह डर भी नहीं निकाल पा रहे थे कि कहीं वह बालक भी परलोक न सिधार जाये। डरते-डरते एक बार फिर वे भूलोक की तरफ रवाना हो गये। खुले नीले आसमान के नीचे एक कच्ची झोपड़ी बनी हुई थी। उस झोपड़ी के अन्दर एक माँ अपने नवजात शिशु के साथ लेटी हुई थी। बड़ी विनम्रता और आदर के साथ नारद मुनि उस बच्चे के करीब गये और निवेदन करते हुए उस बालक से पूछा, "हे बालक, सत्संग का क्या महत्त्व होता है?"
नवजात शिशु ने बहुत ही मीठी मुस्कान के साथ नारद मुनि पर अपनी दृष्टि जमा दी और कहा, "हे श्रद्धेय मुनिवर, क्या आपने मुझे नहीं पहचाना? मैं ही वह तुच्छ मकड़ी हूँ; आप जैसे महान सन्त के आने से मुझे पहली बार दिव्य उपस्थिति (सत्संग) का अनुभव हुआ और मुझे उस योनि से (जीवन से) मुक्ति मिल गई। उसके बाद मैंने एक बछड़े के रूप में जन्म लिया। वहाँ भी आप मेरी मदद के लिये आ गये। जन्म के समय आपके साथ मिले क्षणिक सत्संग के कारण मुझे उस जीवन से भी छुटकारा मिल गया।
अब मुझे मनुष्य योनि मिली है जो इस धरती पर सबसे श्रेष्ठ योनि मानी जाती है। श्रद्धेय मुनिवर, तीसरी बार फिर से यहाँ आने के लिये आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। फिर से 'आपका संग' (सत् संग) प्राप्त होने के कारण मुझे अपना अन्तिम लक्ष्य मिल गया है।" इसी के साथ नवजात शिशु ने श्रद्धा के साथ अपने हाथ जोड़े और कहा, "ओम् नमो नारायणाय।"
नारद मुनि उस झोपड़ी से बाहर निकल आये और भूलोक से विदा ली। उनका हृदय अपने प्रभु भगवान विष्णु के प्रति कृतज्ञता से भरा हुआ था।
"यदि आप आग के पास बैठकर गरमाहट और बर्फ़ के पास बैठकर ठंडक महसूस करते हैं तो आप ऐसे व्यक्ति के संपर्क में रूपांतरित क्यों नहीं होंगे जो अनुशासन व शिष्टाचार में परिपूर्ण है?"
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