मानव जीवन तपश्चर्या के लिए है, जो तप नहीं करता , उसका पतन होता है,मानव जीवन का लक्ष्य भोग नहीं, भजन है , ईश्वर भजन है , समभाव और सद्भाव सिद्ध करने के लिए सत्संग की जरुरत है।
समभाव तभी सिद्ध होता है जब प्रत्येक जड़ चेतन की ओर ईश्वर की भावना जागे, मानव अवतार परमात्मा की आराधना और तप करने के लिए है, पशु भी भोगों का उपयोग करते हैं।
यदि मनुष्य केवल भोग के पीछे ही दीवाना हो जाए तो फिर उसमें और पशु में क्या अन्तर रह जायेगा?
प्रभु ने मनुष्य को बुद्धि दी है, ज्ञान दिया है, पशु को कुछ नहीं दिया है,आने वाले कल की चिन्ता मानव कर सकता है पशु नहीं, न तो देव तप कर सकते हैं न पशु, देव पुण्य का उपभोग कर सकते हैं।
तपश्चर्या केवल मनुष्य ही कर सकते हैं,मनुष्य विवेकपूर्ण भोग का भी उपभोग कर सकता है,मनुष्य जीवन विविध प्रकार के तप करने के लिए है।
तप कई प्रकार के हैं,कष्ट सहते हुए सत्कर्म करना तप है,उपासना भी तप है, पूर्णिमा अमावस्या एकादशी आदि पवित्र दिन माने गये हैं, इन दिनों उपवास करना चाहिए।
उपवास का अर्थ है --
"उप(समीप) वास(रहना) अर्थात् ईश्वर के समीप रहना"
परोपकार में शरीर को लीन करना भी तप है,तप की महत्ता गीता जी मे कहा गया है -
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।
मन का प्रसाद अर्थात् मन की परम शान्ति -- स्वच्छता सम्पादन कर लेना?
सौम्यता -- जिसको सुमनसता कहते हैं वह मुखादिको प्रसन्न करने वाली अन्तःकरण की शुद्धवृत्ति?
मौन -- अन्तःकरण का संयम?
क्योंकि वाणी का संयम भी मनःसंयम पूर्वक ही होता है?
अतः कार्य से कारण कहा जाता है?
मन का निरोध अर्थात् सब ओर से साधारण भाव से मन का निग्रह और भली प्रकार भाव की शुद्धि अर्थात् दूसरों के साथ व्यवहार करने में छल कपट से रहित होना?
यह मानसिक तप कहलाता है।
केवल वाणी विषयक मन के संयम का नाम मौन है और सामान्य भाव से संयम करने का नाम आत्मनिग्रह है -- यह भेद है।
भाव संशुद्धि बड़ तप है, सभी में ईश्वर का भाव रखना भी तप है।
सभी में ईश्वर विराजते हैं ऐसा अनुभव करना महान तप है, अर्थात् अन्तःकरण की पवित्रता से हृदय में सदा सर्वदा शान्ति और प्रसन्नता रहेगी, प्रिय और सत्य बोलना वाणी का तप है,पवित्रता , सरलता , ब्रह्मचर्य और अहिंसा आदि शरीर सम्बन्धी तप है।
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