भागवत महापुराण स्कंध 1, अध्याय 1, श्लोक 1 की व्याख्या |
भागवत महापुराण के स्कंध 1, अध्याय 1, श्लोक 1 को भागवत महापुराण का मंगलाचरण श्लोक माना जाता है। यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन करता है और इस पवित्र ग्रंथ की भूमिका प्रस्तुत करता है।
श्लोक (मूल संस्कृत):
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्।
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा।
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि॥
श्लोक का अर्थ:
1. जन्माद्यस्य यतः:
उस परब्रह्म का ध्यान करें जिससे इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति, स्थिति और लय होती है।
2. अन्वयादितरतः चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्:
वह परब्रह्म पूर्ण रूप से स्वायत्त है और सृष्टि के प्रत्येक कारण और परिणाम को जानने वाला है।
3. तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये:
जिसने सृष्टि के आरंभ में ब्रह्माजी के हृदय में वेद (ज्ञान) का संचार किया।
4. मुह्यन्ति यत्सूरयः:
जिसके रहस्यों को बड़े-बड़े ऋषि-मुनि और देवता भी पूरी तरह नहीं समझ पाते।
5. तेजोवारिमृदां यथा विनिमयः:
वह परब्रह्म ही तेज (अग्नि), जल, और पृथ्वी के विनिमय से सृष्टि करता है।
6. यत्र त्रिसर्गोऽमृषा:
जिसमें सृष्टि, स्थिति और विनाश सत्य की अनुभूति मात्र है।
7. धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं:
वह भगवान अपने तेज से माया को समाप्त कर देते हैं और सदा सत्यस्वरूप रहते हैं।
8. सत्यं परं धीमहि:
हम उस परम सत्य (भगवान श्रीकृष्ण) का ध्यान करते हैं।
मुख्य संदेश:
1. परम सत्य का वर्णन:
यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण को "परम सत्य" और सृष्टि के मूल कारण के रूप में वर्णित करता है।
2. भगवान की स्वतंत्रता:
भगवान पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं और सृष्टि के प्रत्येक तत्व का संचालन उनकी इच्छा से होता है।
3. ज्ञान का स्रोत:
भगवान ने ही सृष्टि के आरंभ में ब्रह्माजी को ज्ञान दिया, जो वेदों का मूल है।
4. माया का विनाश:
भगवान अपने तेज से माया (भ्रम) का नाश कर सत्य को प्रकट करते हैं।
विशेषता:
यह श्लोक भागवत महापुराण का मंगलाचरण है, जो पूरे ग्रंथ का सार प्रस्तुत करता है। यह भगवान श्रीकृष्ण की महिमा, उनकी सर्वज्ञता, और उनकी सृष्टि में अद्वितीयता का परिचायक है।
यदि आप इस श्लोक पर और अधिक विवरण या किसी विशेष शब्द का विश्लेषण चाहते हैं, तो बताएं!
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