"नाथ भगति अति सुखदायनी।देहु कृपा करि अनपायनी॥"यह चौपाई रामचरितमानस,सुन्दरकाण्ड के दोहा संख्या34 की पहली चौपाई है जिसमें हनुमान जी रामजी से कह रहे हैं
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नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥ |
नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥
आज हम "नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी ॥" चौपाई का विश्लेषण कर रहे हैं। "नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी" यह चौपाई रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का दोहा संख्या 34 की पहली चौपाई है। जिसमें हनुमान जी भगवान राम से कह रहे हैं। पूरी चौपाई कुछ इस प्रकार है -
नाथ भगति अति सुखदायनी ।
देहु कृपा करि अनपायनी ॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी ।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥
अर्थात्, हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। हनुमान्जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा॥
उससे पहले हनुमान जी को सीता माँ की कृपा मिल चुकी थी, सीता जी अनुपम वरदान मिल चूका था। लेकिन "नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी ॥" चौपाई में "अनपायनी" का क्या अर्थ है ?
अनपायनी भक्ति क्या है ?
‘अनपायनी’ का अर्थ यह है की भक्ति कभी हमसे दूर न हो, उसका ह्रास न हो और वह दिन-दूनी, रात-चौगुनी भगवान् के चरणों में बढ़ती जाए। ऐसी भक्ति को ‘अनपायनी’ भक्ति कहते हैं।
छिनहि बढ़ै छिन ऊतरे सो तो प्रेम न होय।
सच्चे प्रेम का लक्षण
जो प्रेम क्षण भर में बढ़ जाता है और क्षण भर में घट जाता है, उसका नाम प्रेम नहीं है। प्रेम तो प्रतिक्षण वर्धमान- बढ़ता ही रहता है। ऐसी ही प्रीति होनी चाहिए।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
केवल मुझ में प्रेमपूर्वक भक्ति करने से ही मनुष्य यह जान पाता है कि मैं वास्तव में कौन हूँ। फिर, मुझे जान लेने पर, मेरा भक्त मेरी पूर्ण चेतना में प्रवेश करता है।
सनातन परंपरा या दर्शन में मुक्ति पाने के लिए चार मार्ग
सनातन परंपरा या दर्शन में मुक्ति पाने के लिए चार मार्ग बताए गए हैं -
- कर्म योग - क्रिया और निस्वार्थ सेवा का योग,
- भक्ति योग - भक्ति का योग,
- राज योग - ध्यान का योग और
- ज्ञान योग - इच्छा और बुद्धि का योग।
सनातन धर्म में, यह माना जाता है कि इस मार्ग का अनुसरण करने से व्यक्ति को मुक्ति का मार्ग प्राप्त करने और जीवन का सर्वोच्च भला प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।
भक्ति मार्ग
जब भक्ति मार्ग और ज्ञान मार्ग की बात आती है, तो इन दोनों का उद्देश्य जीवन के सत्य को प्राप्त करना और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाना एक ही है। इनमें बहुत छोटे-छोटे अंतर हैं जैसे कि भक्ति मार्ग भगवान के प्रति समर्पण के बारे में है जो भक्ति का मार्ग अपनाता है।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
भक्ति का मार्ग, गायन, प्रार्थना, जप और अनुष्ठानों जैसे अभ्यासों के माध्यम से ईश्वर के प्रति गहरे, व्यक्तिगत प्रेम पर जोर देता है। भक्त भगवान या चुने हुए देवता के प्रति प्रेम, समर्पण और सेवा से भरा हृदय विकसित करना चाहते हैं।
ज्ञान मार्ग
ज्ञान मार्ग ज्ञान के लिए समर्पित है, इसमें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए आत्म-जांच और दार्शनिक अध्ययन शामिल है। साधक ध्यान, चिंतन और उपनिषदों तथा भगवद गीता जैसे पवित्र ग्रंथों के अध्ययन के माध्यम से वास्तविकता की प्रकृति को समझने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
इसलिए दोनों मार्ग अलग-अलग तरीकों से मुक्ति प्राप्त करने के साथ समाप्त होते हैं, एक ईश्वर से प्रेम करने के माध्यम से और दूसरा आध्यात्मिक प्राप्ति के माध्यम से।
किस माध्यम से भगवान का स्वरूप जाना जा सकता है ?
भक्ति के माध्यम से ही भगवान के स्वरूप को जाना जा सकता है। पहले ज्ञानी ने भगवान को निर्गुण , निर्विशेष , निराकार ब्रह्म के रूप में जाना था । लेकिन ज्ञानी को भगवान के साकार रूप का कोई बोध नहीं था। उस साकार रूप का रहस्य कर्म, ज्ञान, अष्टांग योग आदि के माध्यम से नहीं जाना जा सकता। यह प्रेम ही है जो असंभव का द्वार खोलता है और दुर्गम का मार्ग प्रशस्त करता है। श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि भगवान के स्वरूप, गुण, लीला, धाम और गणों का रहस्य केवल अनन्य भक्ति के माध्यम से ही समझा जा सकता है। भक्त भगवान को इसलिए समझते हैं क्योंकि उनके पास प्रेम के नेत्र होते हैं।
सत्य को स्पष्ट करने वाली पद्मपुराण की एक सुंदर घटना
पद्मपुराण में उपरोक्त सत्य को स्पष्ट करने वाली एक सुंदर घटना का उल्लेख है। जाबालि नामक एक ऋषि ने जंगल में एक अत्यंत तेजस्वी और शांत युवती को ध्यान करते हुए देखा। उन्होंने उससे उसकी पहचान और ध्यान का उद्देश्य बताने का अनुरोध किया। युवती ने उत्तर दिया:
ब्रह्मविद्याहमतुला योगिन्द्राय च मृग्यते।
सोऽहं हरिपदाम्भोजकाम्यया सुचिरं तपः॥
चराम्यस्मिन् वने घोरे ध्यायन्ति पुरूषोत्तम।
ब्रह्मानन्देन पूर्णाहं तेनान्देन तृप्तधीः।
तथापि शून्यमात्मानं मन्ये कृष्णरतिं विना॥
श्लोकों का अर्थ
मैं ब्रह्म विद्या हूँ (स्वयं को जानने का विज्ञान, जो अंततः ईश्वर के ब्रह्म साक्षात्कार की ओर ले जाता है)। महान योगी और रहस्यवादी मुझे जानने के लिए तपस्या करते हैं। हालाँकि, मैं स्वयं ईश्वर के साकार रूप के चरण कमलों में प्रेम विकसित करने के लिए कठोर तपस्या कर रहा हूँ। मैं ब्रह्म के आनंद से परिपूर्ण और तृप्त हूँ । फिर भी, भगवान कृष्ण के प्रति प्रेमपूर्ण लगाव के बिना, मैं खाली और शून्य महसूस करता हूँ।" इस प्रकार, ईश्वर के साकार रूप के आनंद का आनंद लेने के लिए केवल ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। भक्ति के माध्यम से ही व्यक्ति इस रहस्य में प्रवेश करता है और पूर्ण ईश्वर-चेतना प्राप्त करता है।
सच्चे भक्त की चाह
इसलिए भक्त लोग चाहते हैं कि भगवान् के चरणों में हमारी ऐसी भक्ति हो जो बढ़ती रहे। भक्ति माने प्रीति-विशिष्ट वृत्ति। जो प्रेमरस से सराबोर अपने अतःकरण की वृत्ति है, उसीको भक्ति कहते हैं। उसमें योग के समान अभ्यास एवं वैराग्य की प्रधानता नहीं है और वह धर्मानुष्ठान के समान कोई क्रिया-कलाप भी नहीं है। जो वृत्ति अपने हृदय में भगवान् के प्रति प्रीतिरस से सराबोर है और बारम्बार अपने इष्टदेव का स्पर्श करने वाली, आलिंगन करने वाली है, उसी को भक्ति कहते हैं।
भक्ति कैसी होनी चाहिए ?
वह भक्ति अनपायनी हो- इसका अर्थ होता है कि उसमें अपाय न हो। अपाय माने नाश भी होता है और श्वास भी होता है। हमारी भक्ति भगवान् के चरणों में हो और वह दिनों-दिन बढ़ती जाय, कभी घटे नहीं। इसी की की कामना करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरवान।
जनम – जनम रति रामपद यह वरदान न आन ।।
यह नहीं कि हम भगवान् की भक्ति करें, उनकी लीला-कथा सुनें और कहें कि यह कथा तो एक अधूरी चीज़ है, इससे हमें मोक्ष मिल जाये तो ठीक है। अरे भाई, तुम जिस समय कथा सुनते हो, उस समय मुक्त ही रहते हो।
भगवान् की भक्ति करके उनसे भोग एवं मोक्ष मत खरीदो।
यदि यह कहो कि हम कथा सुनकर यज्ञशाला में जायें, धर्म करें, तो आपने कथा को अधूरी कर दिया। कथा सुनना ही क्या सबसे बढ़िया वस्तु नहीं है कि हम भगवान् की लीला सुन रहे हैं ,उनके चरित्र का चिन्तन कर रहे हैं। और,यदि कहो कि हम कथा सुनेंगे तो हमें स्वर्ग मिलेगा,भोग मिलेगा; तो भाई, भगवान् की भक्ति करके उनसे भोग एवं मोक्ष मत खरीदो। भक्ति पैसा देने जैसी चीज़ और मोक्ष उसके बदले में मिठाई पाने जैसी नहीं है। हमें भोग मिले, मोक्ष मिले और इसके लिए हम यज्ञशाला में जाकर धर्म करें- यह भक्ति का उद्देश्य नहीं है।
भगवान की वास्तविक भक्ति
पहले लोग भगवान् की भक्ति करते थे भगवान् से मिलने के लिए, भगवान् का ज्ञान प्राप्त करने के लिए, अंतःकरण की शक्ति के लिए। भक्ति से कुछ पाना- यह अभीष्ट नहीं होता था। लेकिन अब जबसे कलियुग आ गया है, तबसे लोग भक्ति करके धर्म और मोक्ष चाहने वाले भी कम हो गए हैं, अब तो अर्थ-काम चाहने वाले ही ज्यादा मिलते हैं, जो कहते हैं कि हम भगवान् की लीला देखें- करें- करायेंगे, कथा सुनें-सुनायेंगे तो उसके द्वारा हमें अर्थ की प्राप्ति होगी। यह कलियुग का माहात्म्य है कि भगवान् की भक्तिस्वरूपा जो कथा है, उससे हम अर्थ, काम की प्राप्ति चाहते हैं। अरे भाई, भगवान् की भगवत्स्वरूपा कथा के द्वारा हमें अर्थ-काम की कौन कहे, धर्म और मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करनी चाहिए।
भागवत के अनुसार अनपायनी भक्ति
भागवत के दसवें स्कन्ध वेदस्तुति में कहा गया है कि -
न परिलषन्ति केचिदपवर्गमपीश्वर ते।
चरणसरोज-हंस-कुलसङ्गविसृष्टगृहाः।।
वे लोग अपवर्ग भी नहीं चाहते हैं, जिनके हृदय में भगवान् की कथा का प्रेम, भक्ति आ जाती है। जब हम भक्ति के बदले कुछ और चाहने लगते हैं तो वह भक्ति नौकरी की भक्ति हो जाती है, सहज भक्ति नहीं रहती है। इसलिए हे भगवान् ! ऐसी कृपा करो कि हमारे मन में तुम्हारी भक्ति करके अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष कुछ भी पाने की इच्छा न हो।
निष्कर्ष
"नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी ॥" के अनुसार यद्यपि भगवान कल्पतरु हैं, भागवत कल्पतरु है और भक्ति भी कल्पतरु है- उससे आप जो माँगेंगे वह सब आपको मिलेगा, फिर भी भक्ति को ही माँगिये। भक्ति से भक्ति को बढ़ाते रहिये। "नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी ॥" में ‘अनपायनी’ का अर्थ यह है कि भक्ति कभी हमसे दूर न हो, उसका ह्रास न हो और वह दिन-दूनी, रात-चौगुनी भगवान् के चरणों में बढ़ती जाए। ऐसी भक्ति को ‘अनपायनी’ भक्ति कहते हैं।
सीता राम चरन रति मोरें।
अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें ॥
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