ब्रह्मांड में 14 लोकों का नाम एवं इनमें कौन-कौन निवास करते है | संपूर्ण विस्तृत ज्ञान

Sooraj Krishna Shastri
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ब्रह्मांड में 14 लोकों का नाम एवं इनमें कौन-कौन निवास करते है | संपूर्ण विस्तृत ज्ञान
ब्रह्मांड में 14 लोकों का नाम एवं इनमें कौन-कौन निवास करते है | संपूर्ण विस्तृत ज्ञान

ब्रह्मांड में 14 लोकों का नाम एवं इनमें कौन-कौन निवास करते है | संपूर्ण विस्तृत ज्ञान

 विष्णु पुराण में लोको के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है जिसके अनुसार लोको की संख्या 14 है। ब्रह्मांड में 14 लोकों का नाम एवं इनमें कौन-कौन निवास करते है ? 

14 लोकों का नाम एवं इनके निवासी

 14 लोकों में से 7 लोकों को ऊर्ध्व लोक व 7 को अधो लोक कहा गया है। जिनका क्रम से वर्णन किया जा रहा है —

भू आदि 7 ऊर्ध्व लोकों का परिचय

 1.भूलोक

मित्रों सबसे पहले आता है जिसे हमलोग धरती लोक के नाम से जानते है. जिसे कर्म लोक भी कहते हैं, जहां पर 8400000 योनियों के जीव जंतु एवं मनुष्य समुदाय निवास करते हैं। भूलोक वह लोक जहां मनुष्य पैरों से या हवाई जहाज , वाहन आदि से जा सकता है. हमारी पूरी पृथ्वी भूलोक के अंतर्गत है यहां आपको कई तरह के विद्युत चालित वाहन देखने को मिलते हैं। 

2. भुवर्लोक

पृथ्वी और सूर्य की बीच के स्थान को भूवर्लोक कहते हैं। इस लोक मैं अंतरिक्ष वासी देवता निवास करते हैं। 

3. स्वर्लोक

हिंदू धर्म में संस्कृत शब्द में स्वर का निरु पर्वत ऊपर लोको हेतु प्रयुक्त होता है यह वह स्थान है जहां पुण्य करने वाला अपने पुण्य क्षीण होने तक अगले जन्म लेने से पहले तक रहता है। यह स्थान उन आत्माओं के लिए है जिन्होंने पुण्य तो किए हैं लेकिन उनमें अभी मोक्ष या मुक्ति नहीं मिली है। यहां सब प्रकार के आनंद है एवं पापों से परे रहते हैं इस क्षेत्र में इंद्र आदि स्वर्गवासी देवता निवास करते हैं। इन्ही 3 लोको को ही त्रिलोकी या त्रिभुवन कहा गया है इंद्र आदि देवताओं का अधिकार क्षेत्र इन्हीं लोको तक सीमित है। 

4. मह: लोक

 यह अपने आप में से सबसे विचित्र और बिरला लोक हैं। यह लोक ध्रुव से एक करोड़ योजन दूर है। यहाँ भृगु आदि सिद्धगण निवास करते हैं। यह स्थान जन शून्य अवस्था में रहता है जहां प्रलय काल में सामान्य या पापी आत्माएं स्थिर अवस्था में रहती है। यहीं पर महाप्रलय के दौरान सृष्टि भस्म के रूप में विद्यमान रहती है यह लोक कृतक त्रिलोक और अकृतक त्रिलोक के बीच स्थित है। 

5. जनलोक

यह लोक महर लोक से दो करोड़ योजन ऊपर है। इस लोक मैं यहाँ सनकादिक आदि ऋषि निवास करते हैं एवम् कई प्रकार विद्वान व तपस्विनी ऋषि आदि निवास करते हैं। 

6. तप लोक

यह लोक जनलोक से 8 करोड़ योजन दूर है यहां विराज नाम के देवता का निवास स्थल है। 

7. सत्यलोक

यह लोक तप लोक से 12 करोड़ योजन ऊपर है यहां ब्रह्मा निवास करते हैं अर्थात इसे ब्रह्मलोक भी कहते हैं। सर्वोच्च श्रेणी के ऋषि मुनि यही निवास करते हैं इसीलिए इस लोक का एक अलग ही पुराणिक महत्व है जैसा कि विष्णु पुराण में कहा गया है कि नीचे के तीनों लोकों का स्वरूप उस तरह से चिरकालिक नहीं है जिस तरह से ऊपर के लोको का है और वे प्रलय काल में नष्ट हो जाते हैं। जबकि ऊपर के तीनो लोक इससे अप्रभावित रहते हैं अतः भूलोक भुवर्लोक और स्वर्लोक को कृतक लोक कहा गया है और जन लोक , तपलोक और सत्यलोक को अकृतक लोक महरलोक प्रलय काल के दौरान नष्ट नहीं होता पर रहने के आयोग हो जाता है अतः वहां के निवासी जनलोक चले जाते हैं जिस कारण महर लोक को कृतकाकृतक कहा गया है। 

अतल आदि 7 अधः लोकों का परिचय

जिस तरह से ऊर्ध्व लोक है उसी तरह 7 अधो लोक भी हैं जिन्हें पाताल कहा गया है इन सात पाताल लोको के नाम इस तरह है 

1. अतल लोक

यह हमारी पृथ्वी से 10000 योजन की गहराई पर है इसकी भूमि सुकल यानि सफेद है। जिसमें इस पाताल लोक के राजा मयदानव का पुत्र असुर बल है उसने 96 प्रकार की माया रची हुई है। 

2. वितल लोक

यह अतल से भी 10 हजार योजन नीचे है इसकी भूमि कृष्ण यानी काली है. इस लोक में भगवान हाटकेश्वर महादेव जी अपने भूत गण एवं पार्षदों के साथ रहते हैं और वे इस लोक पर राज करते हैं। वे प्रजापति की सृष्टि वृद्धि के लिए भवानी के साथ विहार करते रहते हैं। उन दोनों के प्रभाव से वहां हाट के नाम की सुंदर नदी बहती रहती है।

3. सुतल या नितल लोक

यह वितल से भी 10000 योजन नीचे है इसकी भूमि अरुण यानी प्रातः कालीन सूर्य के रंग की है। वितल लोक के नीचे नितल लोक के राजा बलि है जिसको भगवान विष्णु ने सतयुग मे वामन अवतार के समय 3 पग धरती मांग कर उसे सुतल लोक का राजा बना दिया।

4. तलातल या गभस्तिमान लोक

यह नितल से भी 10000 योजन नीचे है इसकी भूमि पीट यानि पीली है. इस लोक में त्रिपुरादीपति दानवराज मय का शासन काल है।

5. महातल लोक

गभस्तिमान से यह भी 10000 योजन नीचे है इसकी भूमि सक्रमाई यानी कंकरीली है। इसमें कश्यप की पत्नी कद्रू से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले सर्पों का क्रोधवश नामक एक समुदाय रहता है उनमें तक्षक, कालिया सुषेन और कहुक प्रधान नाग है।

6. रसातल लोक

यह महातल से 10000 योजन नीचे है इसकी भूमि शैली अर्थात पथरीली बताई गई है। यहाँ पर पणि नाम के दैत्य और दानव रहते हैं। ये निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं। 

7. पाताल लोक

यह रसातल से भी 10 हजार योजन नीचे है। इसकी भूमि सुवर्णमयी यानी स्वर्ण निर्मित है। यहाँ पर शंख, कुलिक, महाशंख, श्वेत, धनन्जय, धृतराष्ट्र, शंखचूड़, कम्बल, अक्षतर और देवदत्त जैसे बड़े क्रोधी और बड़े बड़े फनों वाले नाग रहते हैं। इन सब के पांच, किसी के सात, किसी के दस, किसी के सौ और किसी- किसी के हजार सिर हैं। उनके फनों के ऊपर की दमकती और चमकती हुई मणियां अपने प्रकाश से पाताललोक का सारा अंधकार को नष्टकर देती हैं।

सप्त पाताल का परिचय

हिंदू संस्कृति के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में मुख्यतः 14 भुवन या लोक हैं– 7 ऊर्ध्वलोक और 7 अधोलोक। इनमें अधोलोक को विलस्वर्ग भी कहा है। ये सब पृथ्वी के गर्भ में भूमि के नीचे हैं। इनका वैभव ऊर्ध्वलोकान्तर्गत स्वर्ग की अपेक्षा भी किंचित् अधिक वर्णित हुआ है। यहाँ दिन और रात का भेद नहीं है। 

अतः सुखोपभोग में कोई प्रत्यवाय नहीं है। इन सप्तपाताल रूप विचारों में रहने वाले जीव सदा आनंद में रहते हैं। यहाँ के सुखोपभोग और सौन्दर्य विलास को असुरों की कपट विद्या और माया ने बहुत समृद्ध किया है। इन भूगर्भात सात स्तर में से ..

(1) अतल में मयासुर पुत्र वल स्वामी है। 

(2) वितल में हाटकेश्वर शंकर भवानी के साथ युग्म भाव से रहते हैं। 

(3) सुतल सुप्रसिद्ध बली राजा का स्थान है। ये तीनों स्तर आपोमय माने जाते हैं। 

(4) तलातल में मयासुर का राज्य है। 

(5) महातल में क्रोधवश नामक सर्प-समुदाय का निवास है। 

(6) रसातल में दैत्य और दानव रहते हैं। ये तीन स्तर अग्निमय माने जाते हैं।

(7) पाताल प्राण अग्निमय है और यहाँ नागों के अधिपति रहते हैं।

सप्त स्वर्ग का परिचय

सात ऊर्ध्वलोक में (1) भूर्लोक और (2) भुवर्लोक को भौम स्वर्ग कहते हैं। इन दोनों के भीतर सूर्य, चन्द्र, ध्रुव, नक्षत्र, पृथ्वी आदि सब स्थूल लोक आ जाते हैं । 

इनके ऊपर स्थित दिव्य स्वर्ग में से (3) तीसरे स्वर्लोक को माहेन्द्र स्वर्ग कहते हैं, (4) महर्लोक को प्राजापत्य स्वर्ग, (5) जनलोक, (6) तपोलोक और (7) सत्यलोक-इन तीनों लोकों को ब्रह्म स्वर्ग कहते हैं। इन पांच दिव्य स्वर्गों में सात्विक अंश की अधिकता है और वे एक-से-एक बढ़कर हैं। 

जम्बूद्वीप का परिचय

 भू-लोक के अंतर्गत जो अनेक भाग या उपलोक हैं, वे हमारे इस स्थूल मृत्युलोक से सूक्ष्म और इस कारण सामान्यतः अदृश्य होने के कारण इहलोक से भिन्न परलोक माने गये हैं। उनमें उपरिनिर्दिष्ट सप्तद्वीप और सप्त समुद्र स्थूल नहीं, किंतु पृथ्वी के चारों ओर सूक्ष्म द्रव्य के विभाग हैं। 

 उनमें जम्बूद्वीप केन्द्र है और उसके गर्भ में पृथ्वी है। इस जम्बूद्वीप के (1) इलावृत, (2) भद्राश्व, (3) किंपुरुष, (4) भारत, (5) हरि, (6) केतुमाल, (7) रम्यक, (8) कुरु और (9) हिरण्यमय-ये नव वर्ष यानी विभाग हैं। 

 इनमें भारतवर्ष ही मृत्युलोक और अन्य सब देवलोक हैं। इनमें इलावृत बीचो बीच है और उसके नाभिस्थान में मेरु पर्वत है। यह पर्वत स्थूल पाषाण मय नहीं, बल्कि एक शक्तिमय आधारस्तंभ है। 

 इन नौ वर्षों के उपास्यदेव यथाक्रम (1) श्री शंकर (2) श्री हयग्रीव (3) श्री मारुति (4) श्री नर-नारायण, (5) श्री नृसिंह, (6) श्री कामदेव, (7) श्री वैवस्वत मनु, (8) श्री कूर्मावतार और (9) श्री यज्ञ पुरुष वाराह हैं। 

 इसी जम्बूद्वीप में (1) नरक लोक (2) पितृलोक और (3) प्रेतलोक स्थित है। इस प्रकार हमारे ब्रह्मांड के 14 भुवनों, 7 द्वीपों, 9 वर्षों और 3 लोकों में मृत्युलोक यानी भारत वर्ष अखिल ब्रह्माण्ड का 1/1176 वाँ अंश है और इसके नौ विभागों में से एक। 

नरक लोक का परिचय

 जम्बूद्वीप के नौ वर्ष निर्दिष्ट हुए। अब उसी के अन्तर्गत नरक लोक, प्रेतलोक और पितृलोक के विवरण आगे देते हैं। इस जम्बूद्वीप के चतुर्दिक इतना ही बड़ा वातावरण रूप लवण समुद्र है। उसी के साथ भारत वर्ष के नीचे मुख्य सात नरक लोक हैं। इन्हें आवरण लोक कहते हैं। 

 इनके सूर्य-नाड़ियों के हिसाब से 7, और 27 नक्षत्रों के हिसाब से 27 तथा अभिजित् मिलाकर 28 विभाग माने गये हैं। इनमें ये 28 मुख्य हैं- 

(1) तामिस्र

 इसमें परस्त्री-परधन-हरण का यम दण्ड भोगना पड़ता है, उससे जीव मूर्छित हो जाते हैं। 

(2) अंधतामिस्र 

 इसमें धोखा देकर परस्त्री-परधन-हरण करने का यह दंड मिलता है कि बुद्धिनाश और दृष्टिनाश हो जाता है और विविध यातनाएं भोगनी पड़ती हैं। 

(3) रौरव 

 इसमें देहाभिमान, परपीड़ा और अन्याय करने का यह दंड मिलता है कि उसे कृमियों का आहार बनना पड़ता है।

(4) महारौरव 

 इसमें परद्रोह के दंडस्वरूप जीव को क्रव्याद प्राणी खाते हैं। 

(5) कुम्भीपाक 

 इसमें जीवित पशु-पक्षियों को उबालने के पाप का यह फल मिलता है कि जीव तेल में तले जाते हैं।

(6) कालसूत्र 

 इसमें वेद, ब्राह्मण और पिता का द्रोह करने के पाप में अग्निदाह, भूख और प्यास का दुःख दीर्घ काल तक भोगना पड़ता है। 

(7) असिपत्रवन 

 इसमें पाखण्डी लोग तलवार की सी धार वाले ताड़पत्रों से काटे जाते हैं। 

(8) सूकर मुख 

 इसमें अन्यायी राजाओं को ऊख की तरह पेरा जाता है। 

(9) अन्धकूप 

 इसमें अन्य प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने वाले उन-उन प्राणियों द्वारा पीड़ित किए जाते हैं। 

(10) कृमि भोजन 

 इसमें पंचमहायज्ञ न करने वालों को कृमियों पर निर्वाह करना पड़ता है। 

(11) संदंश 

 इसमें चोरी के अपराध र्मे लाल पलीतों से भूनते हैं। 

(12) तप्तसूर्मि 

 इसमें व्यभिचार के पाप में तप्त पुतले से बांधकर मारते हैं। 

(13) वज्रकण्टक शाल्मलि 

 इसमें पश्वादिगमन के पाप में काँटों पर से खींचते हैं। 

(14) वैतरणी 

 इसमें धर्म विरोधी राजाओं और राज सेवकों की विष्ठा-मूत्र-पीब आदि अमंगल प्रवाहों में डाल दिया जाता है। 

(15) पयोद 

 इसमें कर्मभ्रष्ट और शूद्र-स्त्री- समागम करने वाले अमंगल विष्ठा-मूत्रादि में गिरकर वही भक्षण करते हैं। 

(16) प्राणरोध 

 इसमें हिंसादि निषिद्ध कर्म करने वाले ब्राह्मणों की यमदूतों द्वारा हिंसा की जाती है। 

(17) विशसन 

 इसमें मांसभक्षण के लोभ से यज्ञ-याग करने वाले ब्राह्मण यमदूत द्वारा काटे जाते हैं। 

(18) लाला भक्ष 

 इसमें स्त्री पर बलात्कार करने के पाप में रेतः प्राशन करना पड़ता है। 

(19) सारमेयोदन 

 इसमें प्रजा पीड़न करने वाले राजा और राज सेवक कुत्तों द्वारा नोचे जाते हैं। 

(20) अवीचि 

 इसमें झूठ बोलने वालों को पत्थर पर पटक कर उनके टुकड़े किये जाते हैं। 

(21) अय: पान 

 इसमें मद्यपान किये हुए ब्राह्मण के मुँह में लोहे का गरम पानी छोड़ा जाता है। 

(22) क्षारकर्दम 

 इसमें विद्वानों का अपमान करने के अपराध में बहुत कठिन यातनाएं भोगनी पड़ती है। 

(23) रक्षोगण भोजन 

 इसमें नर-मांस खाने वाले कुल्हाड़ी से तोड़े जाते हैं। 

(24) शूलप्रोत 

 इसमें विश्वासघात करने वाले को शूली पर चढ़ाया जाता है। 

(25) दन्दशूक 

 इसमें प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने वालों को साँपों से पीड़ा पहुंचाई जाती है। 

(26) अवटनिरोधन 

 प्राणियों को बंद करने के पाप में आग और धुएं से गला घोंटा जाता है। 

(27) पर्यावर्तन 

 अतिथि की ओर क्रूर दृष्टि से देखने के पाप में पक्षियों से आंखें फोड़कर निकलवायी जाती हैं। 

(28) सूचीमुख 

 इसमें कृतघ्नता, कृपणता, द्रव्य लोभ इत्यादि दोषों के फलस्वरूप नाना प्रकार की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ती है| 

 अन्य पुराणों में ऐसे ही सैकड़ों नरक बताये गये हैं। इनमें जो पाप और उनके फल गिनाये गये हैं, उन्हें उपलक्षण ही जानना होगा। सारोद्धार गरुड़पुराणमें चौरासी लाख नरक बतलाये हैं। इस छोटे-से लेख में इस कटु विषय का अधिक विस्तार उचित नहीं जँचता। लोग पाप कर्मों से निवृत्त हो यही इस वर्णन का अभिप्राय मालूम होता है।

पितृलोक का परिचय

 नरक लोक के समीप ही यम लोक है। उसे पितृलोक कहते हैं। भू-लोक में ही दक्षिण और पृथ्वी के नीचे और अतल लोक के ऊपर नित्य-नैमित्तिक पितृगण रहते हैं। नित्य पितर अमर होते हैं। मनुष्यों से ये भिन्न हैं। इनकी उत्पत्ति पृथक् और स्वतन्त्र रूप से हुई है | इन्हें देव भी कहा है। यहाँ से मृत होकर ऊपर गए हुए जो पितर हैं, वे नैमित्तिक हैं।

 पितरों में यम प्रथम पितर माने गये हैं। मृत जीवात्माओं की यथायोग्य व्यवस्था करना इन्हीं का काम है। मृतकों के ये मार्गदर्शक हैं। नित्य-नैमित्तिक पितरों में इहलोक का नियमन करने की सामर्थ्य है, इसी से पितृ पूजन का विशेष महत्व है। ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक पितृ पूजन का वर्णन स्थान-स्थान में आया है। 

 स्वर्गलोक का द्वार ईशान में है और पितृ लोक का द्वार आग्नेय दिशा में देवों और पितरों के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। पितरों के अनेक वर्ग हैं। ये सब एक ही स्थान में हों, ऐसा नहीं मालूम होता। वेदों में इस आशय की प्रार्थनाएँ हैं कि जो पितर पृथ्वी पर हैं, वे उन्नत स्थान को प्राप्त हों; जो स्वर्ग में अर्थात उच्च स्थान में हैं, वे वहाँ से कभी च्युत न हों; और जो मध्यम स्थान का आश्रय लिये हुए हैं, वे उन्नत पद को प्राप्त हों | इस प्रकार श्राद्धादि कर्म-कर्ता और पितर दोनों का ही उपकार करने वाले होते हैं, यह श्राद्ध कर्म में की जाने वाली प्रार्थनाओं से स्पष्ट होता है।

प्रेतलोक का परिचय

 भारतवर्ष के चारों ओर निकट अंतरिक्ष में प्रेतलोक स्थित है। जो जीव मृत्यु के पश्चात् भूकर्षित होते हैं। और विभिन्न वासनाओं के वश नीचे आकर्षित होते हैं, वे कुछ काल प्रेतलोक में रहते हैं। प्रेत वायुरूप होते हैं। और श्मशान, कब्रिस्तान, अन्धकार, शून्य और उजड़े हुए स्थानों में रहते हैं।

 मनुस्मृति अ०12 में मरणोत्तर प्रेतत्व प्राप्त होने के कारणों में कुछ उदाहरण दिए हैं। पर इनके सिवा और भी कारण हो सकते हैं। भूत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, ब्रह्मसम्बन्ध, जिंद, बेताल आदि प्रेत योनियां ही हैं। सूर्यप्रकाश में इनका बल कम होता है। इन्हें कुछ खाने-पीने को दिया जाय तो ये आघ्राणमात्र से तृप्त होते हैं। मानसिक रूप से भी कुछ दिया जाय तो इन्हें मिल जाता है। 

 अन्त्येष्टि, श्राद्ध, गया में पिंडदान, नारायण-नागबली आदि विधियों से प्रेतलोक से प्रेतों का उद्धार होता है। प्रेतयोनि क्लेशकारक ही मानी गयी है। प्रेत कभी आकार धारण किये देख पड़ते हैं। कभी दीया, ज्वाला, आवाज, उत्पाद, किसी के शरीर में संचार आदि रूपों में वे गोचर होते हैं। 

 शंख-घण्टा, ध्वनि, भगवान की आरती, मंत्र पाठ, नाम-स्मरण, शास्त्र चर्चा, पवित्र वातावरण, कुछ पवित्र धूप इत्यादि से प्रेत स्थान छोड़कर चले जाते हैं। प्रेतलोक के जीवों में बड़ी अशान्ति, तीव्र मनोविकार, प्रबल वासना और अज्ञानके होनेसे प्रेतयोनि बहुत कष्टदायक होती है।

सप्तद्वीप का परिचय

 यहाँ तक भूलोकान्तर्गत जम्बूद्वीप का वर्णन हुआ। इस जम्बूद्वीप के चतुर्दिक् वातावरण रूप लवण समुद्र है। उसके चतुर्दिक् उससे द्विगुण प्लक्षद्वीप है। जिस प्रकार जम्बूद्वीप नाम जामुन के वृक्ष के नाम पर है, वैसे ही प्लक्षद्वीप में प्लक्ष अर्थात पाकर का वृक्ष माना है। 

 यहाँ के उपास्य देव सूर्य हैं। इस द्वीप के चौतरफा उतना ही बड़ा इक्षुरस-समुद्र है। उसके चौतरफा से द्विगुण शाल्मलि द्वीप है। वहाँ चन्द्रमा की उपासना होती है। इसके चौतरफ सोमासमुद्र है। उसे घेरे हुए उससे द्विगुण कुशद्वीप है। 

 यहाँ के लोग अग्नि की आराधना करते हैं। इसके बाहर घृत समुद्र है और उसे घेरे हुए क्रौंचद्वीप है। यहाँ क्रौंच नामक पर्वत है। यहाँ के लोग जल-देवता के पूजक हैं। इसके चौतरफ क्षार समुद्र है और उसे घेरे हुए शाकद्वीप है। यहाँ वायु की उपासना होती है। इसके चौतरफ दधिमण्ड-समुद्र है और उसे घेरे हुए पुष्करद्वीप है। 

 पुष्करद्वीप के चौतरफ शुद्धोदक समुद्र है। यहाँ के लोग ब्रह्म प्राप्ति के पथ पर विचरते हैं। इस द्वीप के परे लोकालोक-पर्वत है। इन द्वीपों में से प्रत्येक के सात-सात विभाग हैं। यहाँ की नदियों, पर्वतों और लोक-समाजों का वर्णन पुराणों में है। यह सारा वर्णन लाक्षणिक है। 

सप्तलोक का परिचय

 यहाँ तक सप्तलोक अंतर्गत भूलोक का वर्णन हुआ। इसके ऊपर दूसरा ऊर्ध्वलोक भुवर्लोक है। यह भू और सूर्य के बीच में है। इसमें सिद्ध और मुनि निवास करते हैं। सूर्य की परली तरफ ध्रुव पर्यंत चौदह लाख योजन विस्तार स्वर्गलोक है। ये पूर्वोक्त तीनो लोक कृतक अर्थात नाशवान् माने गये हैं। इनके ऊपर ध्रुव की परली तरफ एक कोटि योजन विस्तृत महर्लोक है। 

 यहाँ एक कल्प तक जीवित रहने वाले महात्मा रहते हैं। इसके ऊपर दो कोटि योजन जनलोक है। यहाँ शुद्धान्त:करण ब्रह्मकुमार सनन्दनादि महात्मा रहते हैं। इसके ऊपर इससे चतुर्गुण तपोलोक है। वहाँ देह रहित वैराज आदि देवता रहते हैं। तपोलोक के ऊपर उससे षड्गुण सत्यलोक है। वहाँ सिद्धादि मुनिजन निवास करते हैं। 

 ये जनन-मरण से मुक्त हैं। महर्लोक में मानसिक राज्य पर अधिकार, जनलोक में इन्द्रिय सुख से विराग, तपोलोक में बुद्धि राज्य पर और सतलोक में प्रकृति राज्य पर अधिकार होता है। ये इन चार लोकों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। ये लोक साधारण मनुष्यों को नहीं प्राप्त होते । प्रथम तीन लोक सबके आश्रय लेने योग्य हैं। 

 वैज्ञानिक पृथ्वी मंडल को भूर्लोक, चन्द्र लोक को भुवर्लोक, सूर्यमण्डल को स्वर्लोक, परमेष्ठी मंडल को महर्लोक और जनलोक तथा स्वयम्भू मंडल को तपोलोक और सतलोक मानते हैं। और खगोलीय त्रैलोक्य का इस प्रकार विभाग करते हैं- उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी में 24 अंश तक स्वर्ग, उसके आगे 42 अंश तक अन्तरिक्ष और उसके आगे 48 अंश पृथ्वी, उसके नीचे दक्षिण और ४२ अंश पितृलोक और उसके नीचे 24 अंश नरक लोक। 

 असंख्य लोक यहाँ तक हिंदू संस्कृति-सम्मत परलोकों का मुख्य विवरण अत्यंत संक्षेप से दिया गया। वस्तुतः परलोकों की पूरी गणना करना असम्भव है। शाक्त ग्रन्थों में शुद्धाशुद्ध तत्त्वों और शान्त्यतीतादि पंचकलाओंके 240 भुवन माने गये हैं। 

 पुराणों में इन्द्रसभा, वरुण सभा इत्यादि सभाओं के नामों से लोक वर्णन किये गये हैं। वायु, अग्नि, विद्युत आदि विभिन्न तत्त्वों के लोक, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र वरुण, यम इत्यादि देवताओं के लोक, उसी प्रकार तंगणपुत्र - सृष्टि, विश्वामित्र-सृष्टि, सिद्ध-ऋषि-मुनियों की विविध सिद्ध संकल्प सृष्टि आदि। 

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