भागवत दशम स्कन्ध अध्याय 29 (रासपंचाध्यायी 1), हिन्दी अनुवाद
श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कन्ध, रासपंचाध्यायी के आरम्भिक श्लोक (विशेषतः २९वें अध्याय से) प्रस्तुत किए हैं। ये श्लोक श्रीकृष्ण और व्रज की गोपियों के दिव्य रासलीला प्रसंग को चित्रित करते हैं, जो भक्तिरस, परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण और भौतिक मर्यादाओं के अतिक्रम से मुक्त आत्मिक प्रेम का सर्वोच्च आदर्श है।
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भागवत दशम स्कन्ध अध्याय 29 (रासपंचाध्यायी 1), हिन्दी अनुवाद |
यहाँ मैं इन श्लोकों का भावपूर्ण, गूढ़ एवं क्रमिक हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।
श्लोक 1
श्रीशुक उवाच –
भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥ १ ॥
गद्यार्थः:
भगवान् श्रीकृष्ण ने जब शरद ऋतु की मल्लिका (जैस्मिन) पुष्पों से खिला हुआ वह रात्रिकाल देखा, तब उन्होंने योगमाया का आश्रय लेकर रासविलास करने का मन बनाया।
भावार्थः:
श्रीकृष्ण ने शरद की वह रात्रि देखी जो मल्लिकाओं से सुवासित थी, पूर्णचन्द्र की आभा फैली हुई थी — यह वातावरण प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत अनुकूल था। ऐसे में उन्होंने अपनी लीला शक्ति 'योगमाया' का आश्रय लेकर गोपियों के साथ रासविलास की योजना की।
श्लोक 2
तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं
प्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शन्तमैः ।
स चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन्
प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः ॥ २ ॥
गद्यार्थः:
तब पूर्व दिशा में चन्द्रमा ने अपनी शांत और लालिमा लिए किरणों से दिशाओं का आलिंगन करते हुए उदय किया। वह जैसे किसी प्रिय के दीर्घकाल के वियोग के बाद प्रिय के सम्मुख आने पर हर्षित होकर सामने आता है, वैसा प्रतीत हुआ।
भावार्थः:
शरद पूर्णिमा की वह रात्रि इतनी शान्त और सौम्य थी कि चन्द्रमा की लालिमा भी मोहक बन गई थी। गोपियों को लंबे समय के पश्चात मिलन का अवसर मिला — जैसे प्रियतम चिरप्रतीक्षित प्रिय को देखकर पुलकित हो जाए, वैसी ही वह रात्रि भी आनंद से व्याप्त थी।
श्लोक 3
दृष्ट्वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं
रमाननाभं नवकुङ्कुमारुणम् ।
वनं च तत्कोमलगोभी रञ्जितं
जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् ॥ ३ ॥
गद्यार्थः:
श्रीकृष्ण ने नवकुङ्कुम के समान अरुण रंग वाला, लक्ष्मी के मुख के समान, कुमुदों से युक्त वह अखण्ड पूर्णचन्द्र देखा और उस वन को भी देखा जो गोपियों के कोमल पाद-चिन्हों से रंजित हो रहा था। तब वे मधुर कंठ से वामनयनों को मोहित करनेवाला गीत गाने लगे।
भावार्थः:
श्रीकृष्ण ने वह अनुपम पूर्णिमा की रात देखी — चन्द्रमा नवकुंकुम की भांति लालिमा लिए, सम्पूर्ण वन गोपियों के स्पर्श से पावन हो रहा था। ऐसे में श्रीकृष्ण ने अपने मधुर स्वर में गीत गाना आरम्भ किया, जिससे उनका प्रेमरस और अधिक उद्भासित हो सका।
श्लोक 4
निशम्य गीतां तदनङ्गवर्धनं
व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः ।
आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः
स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ॥ ४ ॥
गद्यार्थः:
व्रज की स्त्रियाँ, जिनके मन पहले ही श्रीकृष्ण के प्रति आकर्षित थे, जब उन्होंने कामभावना को बढ़ानेवाला वह गीत सुना, तब वे एक-दूसरे की ओर ध्यान न देकर जहाँ उनका प्रियतम श्रीकृष्ण लटकते कुण्डल सहित उपस्थित थे, वहाँ दौड़ी चली आयीं।
भावार्थः:
गोपियाँ पहले ही कृष्ण-प्रेम से भरी थीं। जब उनके कानों में श्रीकृष्ण का रसरूप गीत पड़ा, तब उनका संयम टूट गया। वे सब किसी को कुछ कहे बिना ही, जैसे किसी अन्तर्ज्ञान से प्रेरित होकर, जहाँ श्रीकृष्ण थे वहाँ चली गईं।
श्लोक 5
दुहन्त्योऽभिययुः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः।
पयोऽधिश्रित्य संयावम् अनुद्वास्यापरा ययुः॥
अनुवाद:
कुछ गोपियाँ, जो उस समय गाय दुह रही थीं, दुहना अधूरा छोड़कर व्याकुल होकर चल पड़ीं। कुछ अन्य गोपियाँ, जो दूध को उबाल रही थीं, बिना उसे उतारे ही वहाँ से चली गईं।
श्लोक 6
परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा पाययन्त्यः शिशून् पयः।
शुश्रूषन्त्यः पतीन् काश्चिद् अश्नन्त्योऽपास्य भोजनम्॥
अनुवाद:
कुछ गोपियाँ जो घर में भोजन परोस रही थीं, वह काम बीच में ही छोड़कर चल दीं। जो बच्चों को दूध पिला रही थीं, उन्होंने बच्चों को दूध पिलाना अधूरा छोड़ दिया। कुछ पतिसेवा में लगी थीं, वे सबकुछ छोड़कर चल पड़ीं। जो स्वयं भोजन कर रही थीं, उन्होंने वह भोजन छोड़ दिया।
श्लोक 7
लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने।
व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः काश्चित् कृष्णान्तिकं ययुः॥
अनुवाद:
कुछ गोपियाँ शरीर पर उबटन लगा रही थीं, कुछ स्नान करके शरीर पोंछ रही थीं, कुछ आँखों में अंजन (काजल) लगा रही थीं—इन सभी ने वह सब बीच में छोड़ दिया और श्रीकृष्ण के पास दौड़ पड़ीं। कुछ तो वस्त्र और आभूषण तक उल्टे-सीधे पहनकर ही श्रीकृष्ण के समीप चली गईं।
श्लोक 8
ता वार्यमाणाः पतिभिः पितृभिः भ्रातृबन्धुभिः।
गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिताः॥
अनुवाद:
उन्हें उनके पति, पिता, भाई और अन्य स्वजन रोकते रह गए, फिर भी वे रुकी नहींं। क्योंकि उनके चित्त तो गोविन्द द्वारा हर लिए गए थे, वे मोहाविष्ट होकर रुकीं ही नहीं।
श्लोक 9
अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः।
कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः॥
अनुवाद:
कुछ गोपियाँ जो घर के भीतर थीं और बाहर नहीं निकल सकीं, उन्होंने अपनी आँखें मूँदकर ध्यान में श्रीकृष्ण का ही स्मरण करते हुए उसी भाव से तदाकार हो गईं।
श्लोक 10
दुःसहप्रेष्ठविरह तीव्रतापधुताशुभाः।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेष निर्वृत्या क्षीणमङ्गलाः॥
अनुवाद:
वे श्रीकृष्ण के विरह के तीव्र ताप से अपने संपूर्ण अशुभ कर्मों को भस्म कर चुकी थीं। ध्यान में उन्हें अच्युत (कृष्ण) का आलिंगन मिल गया था और उसी में वे पूर्णतः तृप्त होकर संसार के समस्त बंधनों से मुक्त हो गईं।
श्लोक 11
तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्गताः।
जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः॥
अनुवाद:
यद्यपि वे गोपियाँ समाज की दृष्टि से 'जारबुद्धि' (प्रेमासक्त स्त्रियाँ) की तरह मानी जा सकती थीं, परन्तु वे तो श्रीकृष्ण को ही परमात्मा जानकर उनसे संयोग करना चाहती थीं। इस योग के फलस्वरूप उन्होंने तत्काल ही अपने गुणमय देह और समस्त बंधनों का परित्याग कर दिया।
श्लोक 12
परीक्षित उवाच
कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने।
गुणप्रवाहोपरमः तासां गुणधियां कथम्॥
अनुवाद:
राजा परीक्षित ने पूछा—हे मुनिश्रेष्ठ! उन गोपियों ने श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम (कान्त) ही माना, पर क्या उन्होंने उन्हें ब्रह्मतत्त्व के रूप में जाना? जब वे गुणप्रधान बुद्धि वाली थीं, तो गुणातीत भगवान् के गुणप्रवाह से उनका विमोचन कैसे हो सका?
श्लोक 13
श्रीशुक उवाच
उक्तं पुरस्ताद् एतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः।
द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः॥
अनुवाद:
श्रीशुक बोले—राजन्! मैंने पहले ही बताया है कि कैसे चेदिराज शिशुपाल ने भी, यद्यपि वह हृषीकेश (कृष्ण) का शत्रु था, फिर भी परम सिद्धि प्राप्त की। जब उनका शत्रु ही परम गति को प्राप्त कर सकता है, तो फिर वे गोपियाँ तो श्रीकृष्ण की अत्यंत प्रिय थीं!
श्लोक 14
नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप।
अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः॥
अनुवाद:
राजन्! निर्गुण, अव्यय और अप्रमेय भगवान् अपने स्वरूप का प्राकट्य इस संसार में जीवों के परम कल्याण के लिए ही करते हैं।
श्लोक 15
कामं क्रोधं भयं स्नेहं ऐक्यं सौहृदमेव च।
नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते॥
अनुवाद:
जो व्यक्ति श्रीहरि में काम, क्रोध, भय, स्नेह, एकत्व या मित्रता आदि किसी भी भाव से निरंतर तन्मय रहते हैं, वे अंततः उसी में लीन हो जाते हैं।
(यहाँ "भाव" ही मुक्ति का साधन है।)
श्लोक 16
न चैवं विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे।
योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत एतद् विमुच्यते॥
अनुवाद:
इस बात पर आपको आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि कैसे गोपियाँ श्रीकृष्ण में लीन होकर मुक्त हो गईं। क्योंकि श्रीकृष्ण समस्त योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं, उन्हीं के द्वारा यह परम विमुक्ति संभव है।
श्लोक 17
ता दृष्ट्वान्तिकमायाता भगवान् व्रजयोषितः।
अवदद् वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्विमोहयन्॥
अनुवाद:
जब श्रीकृष्ण ने देखा कि व्रज की स्त्रियाँ (गोपियाँ) उनके समीप आ गई हैं, तो वाक्चातुर्य में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने उन्हें मीठी-मीठी बातों से मोहित करते हुए कहा—
श्लोक 18
श्रीभगवानुवाच
स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः।
व्रजस्यानामयं कच्चिद् ब्रूतागमनकारणम्॥
अनुवाद:
श्रीभगवान् बोले—“हे भाग्यशालिनियो! तुम सबका स्वागत है। बताओ, मैं तुम्हारे लिए क्या प्रियकार्य कर सकता हूँ? क्या व्रज में सब कुशल है? कृपया यह बताओ कि तुम सब यहाँ क्यों आई हो?”
श्लोक 19
रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता।
प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः॥
अनुवाद:
“यह रात्रि बड़ी भयानक है और भयंकर जीवों से भरी हुई है। हे सुमध्यमाओं! स्त्रियों को इस समय यहाँ रहना उचित नहीं है। अतः तुम सब व्रज को लौट जाओ।”
श्लोक 20
मातरः पितरः पुत्रा भ्रातरः पतयश्च वः।
विचिन्वन्ति ह्यपश्यन्तो मा कृढ्वं बन्धुसाध्वसम्॥
अनुवाद:
“तुम्हारे माता-पिता, पुत्र, भाई और पति सब तुम्हें खोज रहे होंगे। वे तुम्हें न पाकर चिंतित हो गए होंगे। अतः बंधुओं की शुचिता को ध्यान में रखते हुए तुम लोग व्यर्थ की चिंता मत बढ़ाओ।”
श्लोक २१
दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररञ्जितम् ।
यमुनानिललीलैजत् तरुपल्लवशोभितम् ॥
अनुवाद:
(श्रीकृष्ण बोले:) "यह वसंत ऋतु में खिला हुआ वन, पूर्णिमा के चंद्रमा की किरणों से आभासित हो रहा है। यमुना की मंद-मंद वायु की लीलाओं से हिलते हुए पत्तों से वृक्ष सुशोभित हो रहे हैं।"
श्लोक २२
तद्यात मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः ।
क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान् पाययत दुह्यत ॥
अनुवाद:
"इसलिए तुम सब देर मत करो, अब गोष्ठ में लौट चलो। सती स्त्रियों को अपने पतियों की सेवा करनी चाहिए। बछड़े और बालक रो रहे हैं, उन्हें दूध पिलाओ, दुहाई करो।"
श्लोक २३
अथवा मदभिस्नेहाद् भवत्यो यन्त्रिताशयाः ।
आगता ह्युपपन्नं वः प्रीयन्ते मयि जन्तवः ॥
अनुवाद:
"या फिर संभवतः तुम सब मेरे प्रति स्नेहवश अपनी इच्छा पर नियंत्रण न रख सकीं और यहां चली आईं, तो यह भी उचित ही है, क्योंकि सभी जीव मुझसे ही प्रेम करते हैं।"
श्लोक २४
भर्तुः शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया ।
तद्बन्धूनां च कल्याणः प्रजानां चानुपोषणम् ॥
अनुवाद:
"स्त्रियों के लिए पति की निष्कपट सेवा करना ही परम धर्म है। उसी से उनके स्वजनों का कल्याण होता है और संतान का पोषण भी संभव होता है।"
श्लोक २५
दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा ।
पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी ॥
अनुवाद:
"चाहे पति दुष्ट, दुर्भाग्यशाली, वृद्ध, मूर्ख, रोगी या निर्धन ही क्यों न हो, पर जो स्त्री लोक की प्रतिष्ठा चाहती है, वह पति को कभी नहीं त्यागती; वह स्त्री अपातकी (पातक से रहित) मानी जाती है।"
श्लोक २६
अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम् ।
जुगुप्सितं च सर्वत्र ह्यौपपत्यं कुलस्त्रियः ॥
अनुवाद:
"कुलवती स्त्रियों के लिए अपने पति को छोड़कर किसी अन्य से सम्बन्ध बनाना (औपपत्य) स्वर्गविहीन, अपयशकर, तुच्छ, कष्टदायक, भयावह और सर्वत्र निंदनीय माना गया है।"
श्लोक २७
श्रवणाद्दर्शनाद्ध्यानाद् मयि भावोऽनुकीर्तनात् ।
न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान् ॥
अनुवाद:
"केवल मेरे श्रवण, दर्शन, ध्यान और गुणगान से भी मुझमें प्रेम उत्पन्न हो सकता है; मात्र मेरे समीप रहने से नहीं। इसलिए अब तुम सब अपने घर लौट जाओ।"
श्लोक २८
श्रीशुक उवाच —
इति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविन्दभाषितम् ।
विषण्णा भग्नसङ्कल्पा चिन्तामापुर्दुरत्ययाम् ॥
अनुवाद:
(श्री शुकदेव जी कहते हैं:)
श्रीगोविन्द की यह अप्रिय बात सुनकर गोपियाँ अत्यंत विषण्ण हो गईं। उनके हृदय की इच्छा एवं संकल्प टूट गए और वे गहरी चिंता में डूब गईं।
श्लोक २९
कृत्वा मुखान्यवशुचः श्वसनेन शुष्यद्-
बिम्बाधराणि चरणेन भुवो लिखन्त्यः ।
अस्रैरुपात्तमषिभिः कुचकुङ्कुमानि
तस्थुर्मृजन्त्य उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम् ॥
अनुवाद:
उन गोपियों ने दुःख के कारण अपने मुख नीचे कर लिए, श्वास से उनके बिम्ब जैसे होंठ सूखने लगे। वे अपनी चरणांगुलियों से धरती पर लकीरें खींचती रहीं। आँखों के आँसुओं ने उनके स्तनों पर लगे कुमकुम को धो दिया, वे अपनी छाती का दुःख सहते हुए मौन खड़ी रह गईं।
श्लोक ३०
प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं
कृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः ।
नेत्रे विमृज्य रुदितोपहते स्म किञ्चित्
संरम्भगद्गदगिरोऽब्रुवतानुरक्ताः ॥
अनुवाद:
अपना प्रियतम होकर भी अप्रिय बात कहनेवाले श्रीकृष्ण को देखकर वे गोपियाँ, जिन्होंने अपने समस्त सांसारिक कामनाओं को श्रीकृष्ण के लिए त्याग दिया था, आँसुओं से भरी आंखें पोंछकर, रुद्ध कंठ और भावभीने स्वर में उनसे कुछ कहने लगीं।
श्लोक ३१
गोप्य ऊचुः
मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं
सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।
भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्
देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून् ॥
अनुवाद –
गोपियाँ बोलीं – हे प्रभो! आप जैसे दयालु को ऐसा निर्दयी वचन नहीं कहना चाहिए। हमने समस्त सांसारिक विषयों का त्याग करके केवल आपके चरणकमलों की शरण ली है। आप भक्तों के भक्तवत्सल भगवान हैं – जैसे आदिपुरुष मोक्ष चाहने वालों को अपनाते हैं, वैसे ही हमें भी स्वीकार कीजिए, त्यागिए नहीं।
श्लोक ३२
यत्पत्यपत्यसुहृदां अनुवृत्तिरङ्ग
स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम् ।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे
प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा ॥
अनुवाद –
हे प्रियतम! आपने कहा कि स्त्रियों का धर्म है कि वे पति, पुत्र और सगे-संबंधियों की सेवा करें – यह आपने धर्मज्ञ की भाँति कहा। हम मानती हैं कि वह धर्म उपदेश के लिए उचित है, परंतु आपके लिए नहीं – क्योंकि आप तो समस्त जीवों के आत्मा, प्रियतम, और परमबंधु हैं।
श्लोक ३३
कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन्
नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम् ।
तन्नः प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिन्द्या
आशां धृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र ॥
अनुवाद –
हे परमेश्वर! बुद्धिमान लोग आत्मा स्वरूप आप में ही प्रेम करते हैं, फिर वे पति-पुत्रादि से क्या अपेक्षा करेंगे जो तो दुःख ही देते हैं? इसलिए, हे कमलनयन! हम पर कृपा कीजिए – हम जो आपके प्रति आशा-पाश से बंध गई हैं, उसे मत काटिए।
श्लोक ३४
चित्तं सुखेन भवतापहृतं गृहेषु
यन्निर्विशत्युत करावपि गृह्यकृत्ये ।
पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद्
यामः कथं व्रजमथो करवाम किं वा ॥
अनुवाद –
हे प्रभु! जबसे आपने हमारे चित्त को चुरा लिया है, तबसे वह घर के किसी काम में रत नहीं होता; न तो हमारे हाथ गृह-कार्य करते हैं, न पैर आपके चरणों से हटते हैं। फिर हम कैसे वापस व्रज लौटें? और लौटकर करें भी क्या?
श्लोक ३५
सिञ्चाङ्ग नस्त्वदधरामृतपूरकेण
हासावलोककलगीतजहृच्छयाग्निम् ।
नो चेद् वयं विरहजाग्नि उपयुक्तदेहा
ध्यानेन याम पदयोः पदवीं सखे ते ॥
अनुवाद –
हे सखे! कृपया अपने अमृतमय अधरों के स्पर्श, मधुर हास, प्रिय दृष्टि और गीत के अमृत से हमारे हृदय की विरह-जन्य अग्नि को शान्त करें। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो हम इस विरह-अग्नि में जलकर ही आपके चरणों की सेवा को प्राप्त होंगी – केवल ध्यान से ही सही।
श्लोक ३६
यर्ह्यम्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया
दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य ।
अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्यसमक्षमङ्ग
स्थातुं त्वयाभिरमिता बत पारयामः ॥
अनुवाद –
हे कमलनयन! एक बार वनवास के समय जब आप श्रीराधा के साथ विचरण कर रहे थे, हमने संयोग से आपके चरणों का स्पर्श पाया था। तभी से हमें किसी और पुरुष की उपस्थिति सहनीय नहीं लगती – और अब आप कहते हैं कि हमें लौट जाना चाहिए? हाय! कितना असह्य है यह!
श्लोक ३७
श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या
लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम् ।
यस्याः स्ववीक्षण कृतेऽन्यसुरप्रयासः
तद्वद् वयं च तव पादरजः प्रपन्नाः ॥
अनुवाद –
जिस चरण-रज को लक्ष्मीजी और तुलसी जैसे देवी-देवता भी पाने को लालायित हैं, वह आपके चरण हैं। उन्हीं चरणों को पाकर भी लक्ष्मीजी आपके दासों के संग वास करती हैं। उन्हीं चरणों की सेवा में हमने भी अपने को समर्पित कर दिया है – हमें स्वीकार करें।
श्लोक ३८
तन्नः प्रसीद वृजिनार्दन तेऽन्घ्रिमूलं
प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः ।
त्वत्सुन्दरस्मित निरीक्षणतीव्रकाम
तप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम् ॥
अनुवाद –
हे पापहारी! हमने अपने घर-परिवार सब त्यागकर केवल आपके चरणों की सेवा पाने की कामना से यहाँ पदार्पण किया है। आपके हास, दृष्टि और सौंदर्य के प्रति हमारी कामना तीव्र है – हे पुरुषोत्तम! हमारी इस आत्मा को दास्य-भाव की कृपा दें।
श्लोक ३९
वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री
गण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम् ।
दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य
वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः ॥
अनुवाद –
आपका वह अलकों से ढका मुख, झिलमिलाते कुण्डल, कपोलों की कान्ति, अधरों की मधु जैसी मुरझी, हँसी में छलकता वात्सल्य, और वह आश्वासन देने वाली भुजाएँ, लक्ष्मी की शरण – वह वक्षस्थल! इन्हें देखकर हम आपके दास्य में ही रम जाना चाहती हैं।
श्लोक ४०
का स्त्र्यङ्ग ते कलपदायतमूर्च्छितेन
सम्मोहितार्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम् ।
त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं
यद् गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ॥
अनुवाद –
हे प्रिय! आपका मधुर वाक्य, मृदु चाल और भाव-मुद्राएँ इतनी मनोहर हैं कि आपसे विमुख होना तीनों लोकों की किसी भी स्त्री के लिए संभव नहीं। आपके रूप के सौंदर्य को देखकर तो गायें, पक्षी, वृक्ष और मृग तक रोमांचित हो जाते हैं।
श्लोक ४१
व्यक्तं भवान् व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो
देवो यथाऽऽदिपुरुषः सुरलोकगोप्ता ।
तन्नो निधेहि करपङ्कजमार्तबन्धो
तप्तस्तनेषु च शिरःसु च किङ्करीणाम् ॥
अनुवाद –
निश्चय ही आप व्रज की पीड़ा हरने के लिए अवतरित हुए हैं – जैसे आदिपुरुष देवताओं की रक्षा करते हैं। हे संताप नाशक! कृपा कर अपनी करकमलों की छाया हमारे शिर पर दीजिए – हम विरह ताप से तपती आपकी दासियाँ हैं।
श्लोक ४२
श्रीशुक उवाच —
इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्वरेश्वरः ।
प्रहस्य सदयं गोपीः आत्मारामोऽप्यरीरमत् ॥ ४२ ॥
अनुवाद —
श्रीशुकदेव जी बोले—
गोपियों की यह विकल और विनीत वाणी सुनकर योगेश्वरों के ईश्वर, आत्माराम (स्व में स्थित और पूर्ण) भगवान श्रीकृष्ण ने करुणापूर्वक मुस्कराते हुए गोपियों के साथ रमण किया।
श्लोक ४३
ताभिः समेताभिरुदारचेष्टितः
प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः ।
उदारहासद्विजकुन्ददीधतिः
व्यरोचतैणाङ्क इवोडुभिर्वृतः ॥ ४३ ॥
अनुवाद —
उन गोपियों के साथ जो प्रियतम को देखकर प्रसन्नता से खिले हुए मुख वाली थीं, श्रीकृष्ण उदार चेष्टाओं से युक्त होकर रमण कर रहे थे। उनके उदार हास्य की दन्तपंक्तियाँ कुन्द पुष्प के समान चमक रही थीं। वे श्रीकृष्ण, चन्द्रमा से घिरे नक्षत्रों के समान प्रतीत हो रहे थे।
श्लोक ४४
उपगीयमान उद्गायन् वनिताशतयूथपः ।
मालां बिभ्रद् वैजयन्तीं व्यचरन् मण्डयन् वनम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद —
अनेक सुंदरी गोपियाँ जिनकी मंडली की नायिकाएँ थीं, उन्हें रिझाकर श्रीकृष्ण स्वयं भी गान करते हुए, वैजयन्ती माला धारण किए हुए वन में घूमते रहे और वन को अपनी शोभा से मंडित करते रहे।
श्लोक ४५
नद्याः पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम् ।
रेमे तत्तरलानन्द कुमुदामोदवायुना ॥ ४५ ॥
अनुवाद —
श्रीकृष्ण गोपियों के साथ शीतल बालुकाओं से युक्त यमुना नदी के तट पर गए, जहाँ चंचलता से भरे हुए आनंद की लहरें और कुमुद के सुवास से युक्त पवन प्रवाहित हो रही थी। वहाँ उन्होंने रास का रमण किया।
श्लोक ४६
बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु
नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातैः ।
क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणां
उत्तम्भयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार ॥ ४६ ॥
अनुवाद —
व्रज की सुंदरियों के साथ श्रीकृष्ण ने बाहु फैलाकर आलिंगन किया, उनके ललाट और स्तनों पर कराल (मज़बूत) जंघाओं को स्पर्श किया, विनोदमयी नखों से स्पर्श किया, हास्य, चंचल दृष्टि और प्रेमपूर्ण संवादों द्वारा कामदेव को भी मात देने वाला आनंद उत्पन्न किया।
श्लोक ४७
एवं भगवतः कृष्णात् लब्धमाना महात्मनः ।
आत्मानं मेनिरे स्त्रीणां मानिन्योऽभ्यधिकं भुवि ॥ ४७ ॥
अनुवाद —
इस प्रकार महान भगवान श्रीकृष्ण से विशेष रूप से प्राप्त होकर, वे मानिनी गोपियाँ अपने को समस्त स्त्रियों से बढ़कर समझने लगीं।
श्लोक ४८
तासां तत् सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः ।
प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत ॥ ४८ ॥
अनुवाद —
उन गोपियों में उत्पन्न हुए इस सौभाग्य के मद और अभिमान को देखकर केशव श्रीकृष्ण ने उनके अभिमान का शमन और शिक्षा देने हेतु वहीं पर अंतर्धान हो गए।
✨ उपसंहार
यह अध्याय रासलीला की शुरुआत है, जहाँ गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेम, उनकी आत्मसमर्पण की भावना, और भगवान की करूणामयी लीलाओं का साक्षात्कार होता है। किन्तु इस प्रेम में भी अहंकार प्रवेश करता है, तो भगवान अंतर्धान होकर उन्हें शिक्षित करते हैं कि प्रेम का मार्ग केवल समर्पण, निःस्वार्थता और विनय से ही शुद्ध रह सकता है।