जासु बिरहँ सोचहु दिन राती।
रटहु निरंतर गुन गन पाँती॥
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता।
आयउ कुसल देव मुनि त्राता॥
अर्थ — जिनके विरह में अर्थात राम लक्ष्मण एवं माता सीता आप दिन-रात सोच करते (घुलते) रहते हैं और जिनके गुणसमूहों की पंक्तियों को आप निरंतर रटते रहते हैं, वे ही रघुकुल के तिलक, सज्जनों को सुख देनेवाले और देवताओं तथा मुनियों के रक्षक राम सकुशल आ गए।
यहां हम कहना चाहेंगे कि राम अर्थात ज्ञान, सीता अर्थात भक्ति, लक्ष्मण मतलब वैराग्य।
अर्थात आज आयौध्या में ज्ञान भक्ति और वैराग्य वापस आ गए हैं ।
आज हम दिपावली का उत्सव मना रहे हैं, बड़ी खुशी की बात है मनाओ, दिए जलाओ, पटाखे फोड़ो।
लेकिन क्या हम ज्ञान भक्ति एवं वेराग्य में से किसी एक को भी अपना रहे हैं।
मार्ग तो तीन ही हैं-कर्म अर्थात भरत जी है , ज्ञान और भक्ति मार्ग। वैराग्य ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग का ही एक अंग है।
पहली बात तो वैराग्य मार्ग नहीं हैं । वैराग्य एक स्थिति हैं जो गहरे भाव से उत्पन्न होती हैं। औऱ अब जानते भक्ति औऱ ज्ञान के बारे में सभी जानते है कि रस के दो मार्ग हैं और ज्ञान. औऱ भक्ति यानि ईश्वर के प्रति प्रेम परन्तु इन दोनों मार्गो मे चलने के लिए एक बात परम आवश्यक है।
ज्ञान के लिए जिज्ञासा और प्रेम के लिए पिपासा ! इसके बिना कोई आगे नहीं बढ़ पाया !
हमारे संतो ने थोडा सा सरल करके इन दो मार्गो के व्याख्या की है ! वैसे सभी मार्गो का अंतिम लक्ष्य तो वही परम सत्ता की प्राप्ति है !
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन पवित्र कर्म करने वाले अर्थार्थी आर्त जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी ये चार प्रकार के मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।
उन चार भक्तों में मेरे में निरन्तर लगा हुआ अनन्य भक्तिवाला ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है क्योंकि ज्ञानी भक्त को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह भी मेरे को अत्यन्त प्रिय है।
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।
पहले कहे हुए सबके सब भक्त बड़े उदार (श्रेष्ठ भाववाले) हैं। परन्तु ज्ञानी (प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है। कारण कि वह युक्तात्मा है और जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं है ऐसे मेरे में ही दृढ़ आस्थावाला है।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
बहुत जन्मों के अन्त में अर्थात् मनुष्यजन्म में सब कुछ परमात्मा ही है ऐसा जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।।
इन तीनों को पूर्णतः अलग नहीं किया जा सकता है। जिसको संसार से विराग नहीं होगा, उस को प्रभूपद में अनुराग नहीं होगा। फिर वह भक्ति क्या करेगा। और, यदि ज्ञान ही न हो कि भक्ति किनकी करें, कैसे करें, तो वह करेगा क्या?
जैसे चिड़िया को आकाश में उड़ने के लिए तीन चीजें चाहिए - पग, पर और पूंछ। एक के अभाव में वह उड़ नहीं सकती। उसी तरह भक्ति में भी तीन बातें जरूरी हैं- ज्ञान, वैराग्य और योग। योग का अर्थ है, आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की क्रिया ( ध्यान योग)।
एक बार ब्रह्माजी ने भगवान शिव से पूछा प्रभु संसार के समस्त लोग त्रयतापों से व्यथित हो रहे हैं। इनसे मुक्ति पाने का क्या उपाय है? भगवान शिव ने उत्तर दिया –
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः।
योगोपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत।।
योगशिखोपनिषद् अर्थात् योगहीन ज्ञान भला मोक्षप्रद कैसे हो सकता है? उसी तरह ज्ञानहीन योग भी मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए मुमुक्षु को ज्ञान और योग दोनों का दृढ़ता के साथ अभ्यास करना चाहिए।
धर्म ते विरति योग ते ग्याना।
ग्यान मोक्षप्रद वेद बखाना।।
जब तक सत् धर्म का पालन नहीं किया जाता, तब तक वैराग्य उत्पन्न नहीं होगा, जब तक वैराग्य नहीं होगा तो (सांसारिक आसक्ति की मनःस्थिति में) योग (ध्यानयोग) नहीं हो सकेगा। जब तक योग नहीं होगा तब तक ज्ञान (आत्मज्ञान, अनुभव ज्ञान) उत्पन्न नहीं होगा और जब तक ज्ञान उत्पन्न नहीं होगा, तब तक मोक्ष संभव नहीं है।
सबसे अच्छा एक ही रास्ता है- भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि –
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूंगा, डरो मत।
श्रीकृष्ण के उपदेश को समझने के लिए हमें धर्म के अर्थ को जानना चाहिए। यह शब्द 'धृ' धातु से बना है। जिसका अर्थ 'धारण करने योग्य' या 'उत्तरदायित्व, कर्त्तव्य, विचार और वे कार्य जो हमारे लिए उपयुक्त' है। वास्तव में दो प्रकार के धर्म हैं-शारीरिक धर्म और आध्यात्मिक धर्म। ये दोनों प्रकार के धर्म 'आत्मा' को समझने की दो विभिन्न धारणाओं पर आधारित हैं। जब हम शरीर के रूप में अपनी पहचान करते है, तब हमारी शारीरिक उपाधियों, दायित्वों, कर्तव्यों और नियमों के अनुसार हमारा धर्म निर्धारित होता है। इसलिए शारीरिक माता-पिता की सेवा करना, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों का निर्वहन आदि सब शारीरिक धर्म हैं। इसे अपर धर्म या शारीरिक धर्म भी कहते हैं। इस धर्म में ब्राह्मण, क्षत्रिय धर्म आदि भी सम्मिलित है लेकिन जब हम अपनी पहचान आत्मा के रूप में करते हैं तब हमारे वर्गों के संसारिक नाम और आश्रम नहीं होते। आत्मा का पिता, माता, सखा, प्रियतम और निवास स्थान सब भगवान होता है। इसलिए हमारा एकमात्र धर्म प्रेममयी भक्ति से भगवान की सेवा करना बन जाता है। इसे पराधर्म या आध्यात्मिक धर्म भी कहा जाता है। यदि कोई शारीरिक धर्म का त्याग करता है तब इसे कर्त्तव्य से विमुख होने के कारण पाप माना जाता है। लेकिन जब कोई अपने शारीरिक धर्म का त्याग करता है और आध्यात्मिक धर्म का आश्रय लेता है तब इसे पाप नहीं माना जाता है।
देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किङ्करो नायमृषी च राजन्।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तुम्।।
जो भगवान के शरणागत नहीं होते उन पर पाँच प्रकार के ऋण हो जाते हैं। ये ऋण है-स्वर्ग के देवताओं के प्रति, ऋषियों के प्रति, पितरों के प्रति, अन्य मनुष्यों के प्रति और अन्य जीवों जैसे अतिथियों और कुटुम्बियों के प्रति। वर्णाश्रम प्रणाली में इन सब ऋणों से स्वयं को मुक्त करने के लिए विविध प्रकार की प्रक्रियाएँ निश्चित की गयी हैं। लेकिन जब हम भगवान के शरणागत होते हैं तब हम इन सभी ऋणों से स्वतः मुक्त हो जाते हैं। जिस प्रकार से वृक्ष की जड़ को जल देने से जल स्वतः उसकी शाखाओं, तनों, पत्तियों, पुष्पों और फलों को प्राप्त हो जाता है। समान रूप से भगवान के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने से हम स्वतः सभी के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूरा कर सकते हैं। इसलिए यदि हम समुचित रूप से आध्यात्मिक धर्म में स्थित हो जाते हैं तब शारीरिक धर्म का त्याग करने से कोई पाप नहीं लगता। वास्तव में पूर्ण और सच्चे हृदय से आध्यात्मिक धर्म में लीन रहना ही परम लक्ष्य है।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।
जो भक्तजन अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हुए मुझे पूजते हैं, ऐसे नित्ययुक्त साधकों के योगक्षेम को मैं स्वयं वहन करता हूं।
आगे भगवान कहते हैं कि –
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्यमुक्तस्य योगिनः ॥
पार्थ! जो योगी अनन्य भक्ति भाव से सदैव मेरा चिन्तन करते हैं, उनके लिए मैं सरलता से सुलभ रहता हूँ क्योंकि वे निरन्तर मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं।
पूरी गीता में केवल यही एक श्लोक है जिसमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्हें पाना सरल है किन्तु इसकी शर्तों के संबंध में 'अनन्यचेताः' अर्थात 'कोई अन्य नहीं' शब्द कहा गया है जिसका अर्थ है कि मन अनन्यता से अकेले उनमें तल्लीन रहना चाहिए।