भागवत दशम स्कंध, अध्याय 30 ( रासपंचाध्यायी 2) हिन्दी अनुवाद सहित

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत दशम स्कंध, अध्याय 30 ( रासपंचाध्यायी 2) हिन्दी अनुवाद सहित 

श्रीमद्भागवतम् महापुराणम्
दशम स्कन्धः, अध्याय ३० – "कृष्णान्वेषणम्"

Bhagwat 10.30 raspanchadhyayi
भागवत दशम स्कंध, अध्याय 30 ( रासपंचाध्यायी 2) हिन्दी अनुवाद सहित 


श्रीशुक उवाच –


श्लोक १
अन्तर्हिते भगवति सहसैव व्रजाङ्गनाः ।
अतप्यंस्तमचक्षाणाः करिण्य इव यूथपम् ॥ १ ॥

हिन्दी भावार्थ
भगवान् के अन्तर्धान होते ही गोपियाँ सहसा व्याकुल हो उठीं।
वे उन्हें न देख पाने के कारण हथिनी की तरह संतप्त हुईं।


श्लोक २
गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितैः
मनोरमालापविहारविभ्रमैः ।
आक्षिप्तचित्ताः प्रमदा रमापतेः
तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिकाः ॥ २ ॥

हिन्दी भावार्थ
उनकी गति, स्मित, चंचल दृष्टि और रम्य बातें उन्हें प्रिय थीं।
उनके मन रमापति में रम चुके थे, वे उन्हीं की भाँति व्यवहार करने लगीं।
श्रीकृष्णमयी वे स्त्रियाँ उनकी विविध लीलाओं का अभिनय करने लगीं।


श्लोक ३
गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु
प्रियाः प्रियस्य प्रतिरूढमूर्तयः ।
असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका
न्यवेदिषुः कृष्णविहारविभ्रमाः ॥ ३ ॥

हिन्दी भावार्थ
चाल, मुस्कान, दृष्टि और वाणी तक वे श्रीकृष्ण समान बनीं।
“मैं ही कृष्ण हूँ” — इस भाव से वे गोपियाँ लीला करने लगीं।
श्रीकृष्ण के विहार की भ्रम-लीला में लीन वे उनके स्वरूप हो गईं।


श्लोक ४
गायन्त्य उच्चैरमुमेव संहता
विचिक्युरुन्मत्तकवद्वनाद्वनम् ।
पप्रच्छुराकाशवदन्तरं बहि-
र्भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन् ॥ ४ ॥

हिन्दी भावार्थ
वे श्रीकृष्ण का नाम ऊँचे स्वर में गाते हुए इकट्ठी हो गईं।
जंगल-जंगल वे उन्मत्त स्त्रियों की भाँति खोजने लगीं।
कभी आकाश, कभी हवा, कभी पेड़ों से पूछतीं— “क्या कृष्ण दिखे?”


श्लोक ५
दृष्टो वः कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मनः ।
नन्दसूनुर्गतो हृत्वा प्रेमहासावलोकनैः ॥ ५ ॥

हिन्दी भावार्थ
हे अश्वत्थ, प्लक्ष और वटवृक्ष! क्या तुमने हमारे मन को हर लेने वाले
प्रेमपूर्ण हास्य और दृष्टि से भरे नन्दसुत को देखा है?


श्लोक ६
कच्चित्कुरबकाशोक नागपुन्नागचम्पकाः ।
रामानुजो मानिनीनामितो दर्पहरस्मितः ॥ ६ ॥

हिन्दी भावार्थ
हे कुरबक, अशोक, नाग, पुन्नाग और चम्पक वृक्ष! क्या श्रीराम के अनुज
ने यहाँ आकर अहंकारी गोपिकाओं का मान हरने वाली मुस्कान बिखेरी?


श्लोक ७
कच्चित्तुलसि कल्याणि गोविन्दचरणप्रिये ।
सह त्वालिकुलैर्बिभ्रद्दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युतः ॥ ७ ॥

हिन्दी भावार्थ
हे कल्याणी तुलसी! गोविन्द के चरणों में प्रीति रखने वाली!
क्या तुमने मधुमक्खियों से घिरे हुए अपने प्रिय अच्युत को देखा है?


श्लोक ८
मालत्यदर्शि वः कच्चिन्मल्लिके जातियूथिके ।
प्रीतिं वो जनयन् यातः करस्पर्शेन माधवः ॥ ८॥

हिन्दी भावार्थ
हे मालती, मल्लिका और जाति! क्या माधव ने अपने कर-स्पर्श से
तुम्हें प्रीति प्रदान करते हुए यहाँ से प्रस्थान किया?


श्लोक ९
चूतप्रियालपनसासनकोविदार
जम्ब्वर्कबिल्वबकुलाम्रकदम्बनीपाः ।
येऽन्ये परार्थभवका यमुनोपकूलाः
शंसन्तु कृष्णपदवीं रहितात्मनां नः ॥ ९॥

हिन्दी भावार्थ
हे आम, प्रियाल, पनस, अशोक, कोविदार, जामुन, अर्क, बेल, बकुल, आम्र, कदम्ब, नीप आदि वृक्षो!
हे यमुनातट के पेड़ों! यदि तुमने हमारे जीवन के प्राण कृष्ण को देखा हो, तो बताओ!


श्लोक १०
किं ते कृतं क्षिति तपो बत केशवाङ्घ्रि
स्पर्शोत्सवोत्पुलकिताङ्गनहैर्विभासि ।
अप्यङ्घ्रिसम्भव उरुक्रमविक्रमाद्वा
आहो वराहवपुषः परिरम्भणेन ॥ १०॥

हिन्दी भावार्थ
हे धरती! क्या तुम्हारे तप से तुमको यह पुण्य प्राप्त हुआ है कि
केशव के चरण-स्पर्श से पुलकित होकर तुम आलोकित हो रही हो?
या तुम वही हो जिनको विष्णु ने अपने वराह रूप में आलिंगन किया था?


श्लोक ११

श्रीशुक उवाच ।

बाहुं प्रियांस उपधाय गृहीतपद्मो
रामानुजस्तुलसिकालिकुलैर्मदान्धैः ।
अन्वीयमान इह वस्तरवः प्रणामं
किं वाभिनन्दति चरन् प्रणयावलोकैः ॥

अपनी प्रियतमा के बाहुपाश में सिर रखे हुए,
कमल के समान सुंदर चरणों से शोभायमान
बलरामजी के अनुज श्रीकृष्ण,
तुलसी के गुच्छों और मतवाले भ्रमरों से घिरे
इधर-उधर विचरण करते हैं।
वे वस्त्रों की सरसराहट से घिरे हुए,
प्रणयपूर्ण दृष्टि से देख देखकर मानो प्रणामों का स्वीकार करते हैं।

श्लोक १२

पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पतेः ।
नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो ॥

ये लताएँ, जो वृक्षों की शाखाओं को आलिंगन कर रही हैं,
मानो पूछ रही हों — क्या वे श्रीकृष्ण के कर-स्पर्श से पुलकित हो गई हैं?
अवश्य ही उन्होंने उनके कोमल करों का स्पर्श पाया है।

श्लोक १३

इत्युन्मत्तवचो गोप्यः कृष्णान्वेषणकातराः ।
लीला भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिकाः ॥

इस प्रकार गोपियाँ श्रीकृष्ण की खोज में उन्मत्तों की भाँति वाणी बोलती हुई,
उनकी लीला का अनुसरण करने लगीं।
वे श्रीकृष्ण के प्रेम में तत्स्वरूप हो गई थीं।

श्लोक १४

कस्याचित्पूतनायन्त्याः कृष्णायन्त्यपिबत्स्तनम् ।
तोकयित्वा रुदत्यन्या पदाहन् शकटायतीम् ॥

कोई गोपी पूतना बनकर आती हुई श्रीकृष्ण को स्तनपान कराने का अभिनय करती थी।
दूसरी गोपी बालक बनकर रोने लगती,
तो तीसरी शकटासुर को लात मारने का अभिनय करती।

श्लोक १५

दैत्यायित्वा जहारान्यामेको कृष्णार्भभावनाम् ।
रिङ्गयामास काप्यङ्घ्री कर्षन्ती घोषनिःस्वनैः ॥

कोई गोपी असुर बनकर श्रीकृष्ण का अपहरण करती,
तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर गोपियों के समूह को अपनी वंशी से आकर्षित करती।

श्लोक १६

कृष्णरामायिते द्वे तु गोपायन्त्यश्च काश्चन ।
वत्सायतीं हन्ति चान्या तत्रैका तु बकायतीम् ॥

दो गोपियाँ कृष्ण और बलराम बन जातीं,
कुछ गाएँ चराने का अभिनय करतीं,
एक वत्सासुर को मारने का अभिनय करती,
तो कोई बकासुर बनने का अभिनय करती।

श्लोक १७

आहूय दूरगा यद्वत्कृष्णस्तमनुवर्ततीम् ।
वेणुं क्वणन्तीं क्रीडन्तीमन्याः शंसन्ति साध्विति ॥

कोई गोपी दूर से दूसरी को बुलाती,
जो श्रीकृष्ण की भूमिका निभाते हुए पीछे-पीछे चलती है,
वंशी बजाती और क्रीड़ा करती है —
अन्य गोपियाँ उसकी सराहना करतीं: 'वाह! कितना सुंदर अभिनय है।'

श्लोक १८

कस्याञ्चित्स्वभुजं न्यस्य चलन्त्याहापरा ननु ।
कृष्णोऽहं पश्यत गतिं ललितामिति तन्मनाः ॥

एक गोपी अपने ही भुज पर सिर रखती है और कहती है —
"मैं श्रीकृष्ण हूँ, देखो मेरी ललित चाल।"
अन्य गोपियाँ उसकी इस भावना में मग्न रहती हैं।

श्लोक १९

मा भैष्ट वातवर्षाभ्यां तत्त्राणं विहितं मय ।
इत्युक्त्वैकेन हस्तेन यतन्त्युन्निदधेऽम्बरम् ॥

एक गोपी कहती है — "डरो मत! वर्षा और वायु से रक्षा हेतु मैं उपाय करती हूँ।"
फिर एक हाथ से वस्त्र उठाकर गोवर्धनधारण का अभिनय करती है।

श्लोक २०

आरुह्यैका पदाक्रम्य शिरस्याहापरां नृप ।
दुष्टाहे गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दण्डकृत् ॥

हे राजन्! एक गोपी दूसरी के सिर पर पैर रखकर चढ़ जाती है और कहती है —
"अरे दुष्टा! हट जा, अब मैं राक्षसों को दंड देने वाला बन गया हूँ।"

श्लोक २१

तत्रैकोवाच हे गोपा दावाग्निं पश्यतोल्बणम् ।
चक्षूंष्याश्वपिदध्वं वो विधास्ये क्षेममञ्जसा ॥

वहाँ एक गोपी कहती है — "हे गोपों! देखो, चारों ओर दावानल फैल गया है।
अपनी आँखें बंद कर लो, मैं शीघ्र ही तुम्हें सुरक्षित कर दूँगी।"

श्लोक २२

बद्धान्यया स्रजा काचित्तन्वी तत्र उलूखले ।
बध्नामि भाण्डभेत्तारं हैयङ्गवमुषं त्विति ।
भीता सुदृक्पिधायास्यं भेजे भीतिविडम्बनम् ॥

कोई कोमलांगिनी गोपी स्रजा से उलूखल बाँधती हुई कहती है —
"मैं इस माखनचोर को, जिसने बर्तन तोड़े हैं, बाँध रही हूँ।"
फिर कोई गोपी डरने का अभिनय करती है,
नेत्र बंद कर मुँह छुपा लेती है, मानो भयभीत हो।

श्लोक २३

एवं कृष्णं पृच्छमाना वृन्दावनलतास्तरून् ।
व्यचक्षत वनोद्देशे पदानि परमात्मनः ॥

इस प्रकार गोपियाँ वृन्दावन की लताओं और वृक्षों से श्रीकृष्ण के विषय में पूछती हुई
वन में श्रीकृष्ण के चरणचिह्नों को देखती हैं।

श्लोक २४

पदानि व्यक्तमेतानि नन्दसूनोर्महात्मनः ।
लक्ष्यन्ते हि ध्वजाम्भोज वज्राङ्कुशयवादिभिः ॥

वे कहती हैं — "ये नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के पदचिह्न स्पष्ट दिखाई देते हैं,
क्योंकि इनमें ध्वज, अर्धचन्द्र, कमल, वज्र, अंकुश आदि के चिन्ह हैं।"

श्लोक २५

तैस्तैः पदैस्तत्पदवीमन्विच्छन्त्योऽग्रतोऽबलाः ।
वध्वाः पदैः सुपृक्तानि विलोक्यार्ताः समब्रुवन् ॥

उन चरणचिन्हों का अनुसरण करती हुई वे गोपियाँ जब आगे बढ़ती हैं,
तो उन्हें किसी युवती के गहरे पदचिन्ह भी दिखाई देते हैं,
वे दुखपूर्वक कहती हैं —

श्लोक २६

कस्याः पदानि चैतानि याताया नन्दसूनुना ।
अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः करेणोः करिणा यथा ॥

"ये चरणचिन्ह किस गोपी के हैं, जिसे श्रीकृष्ण अपने वामकंधे पर बाँह टिकाकर
हाथ से थामे हुए साथ ले गए हैं, जैसे कोई हाथी हथिनी को ले जाता है।"


श्लोक 27

कस्याः पदानि चैतानि याताया नन्दसूनुना ।
अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः करेणोः करिणा यथा ॥ २७ ॥

अनुवाद:
ये पदचिह्न हैं किसी एक गोपी के, जो श्रीनन्दनन्दन श्रीकृष्ण के साथ चली गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने अपना बाहु श्रीकृष्ण के कंधे पर रखा है, जैसे हथिनी अपने पति हाथी के साथ जाती है।


श्लोक 28

अनयाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः ।
यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥ २८ ॥

अनुवाद:
निश्चित ही इस गोपी ने भगवान हरि की परम आराधना की होगी, तभी तो उन्होंने हम सबको छोड़कर प्रसन्नता के साथ उसे एकांत में ले गए।


श्लोक 29

धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्र्यब्जरेणवः ।
यान् ब्रह्मेशौ रमा देवी दधुर्मूर्ध्न्यघनुत्तये ॥ २९ ॥

अनुवाद:
धन्य हैं ये व्रजवासी महिलाएं जो श्रीगोविन्द के चरणकमलों की धूलि प्राप्त कर पाईं, जिसे ब्रह्मा, शिव और स्वयं लक्ष्मीजी भी अपने मस्तक पर धारण करने के लिए लालायित रहते हैं।


श्लोक 30

तस्या अमूनि नः क्षोभं कुर्वन्त्युच्चैः पदानि यत्।
यैकापहृत्य गोपीनां रहो भुन्क्तेऽच्युताधरम् ॥ ३० ॥

अनुवाद:
उस गोपी के ये गहरे पदचिन्ह हमारे हृदय में अत्यधिक खलबली मचा रहे हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण ने हम सबको छोड़कर केवल उसी को एकांत में अपने अधरों का रसास्वादन कराया।


श्लोक 31

न लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणाङ्कुरैः।
खिद्यत्सुजाताङ्घ्रितलामुन्निन्ये प्रेयसीं प्रियः ॥ ३१ ॥

अनुवाद:
अब उस गोपी के पदचिह्न दिखाई नहीं दे रहे हैं। संभवतः उसके कोमल चरणों में काँटे चुभ गए हों, तब श्रीकृष्ण ने उसे अपनी बाहों में उठा लिया होगा।


श्लोक 32

इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो वधूम् ।
गोप्यः पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिनः ॥३२॥

अनुवाद:
देखो! यहाँ पदचिह्न गहरे हो गए हैं, जिससे स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण अपनी प्रिय वधू को उठाकर चल रहे हैं और उनके ऊपर प्रेम का भार है।


श्लोक 33

अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना ।
अत्र प्रसूनावचयः प्रियार्थे प्रेयसा कृतः ।
प्रपदाक्रमणे एते पश्यतासकले पदे ॥ ३३ ॥

अनुवाद:
यहाँ पर उस प्रेयसी को श्रीकृष्ण ने उतारा होगा ताकि वह फूल चुन सके। देखो! उसके चारों ओर चरणचिह्न बिखरे हुए हैं।


श्लोक 34

केशप्रसाधनं त्वत्र कामिन्याः कामिना कृतम् ।
तानि चूडयता कान्तामुपविष्टमिह ध्रुवम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद:
यहाँ पर श्रीकृष्ण ने अपनी प्रिय गोपी के केशों को सँवारा होगा। निश्चित ही वह उन्हें बैठाकर यह कार्य कर रहे थे।


श्लोक 35

रेमे तया चात्मरत आत्मारामोऽप्यखण्डितः ।
कामिनां दर्शयन् दैन्यं स्त्रीणां चैव दुरात्मताम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद:
श्रीकृष्ण, जो आत्माराम हैं और अपने आप में पूर्ण हैं, फिर भी उस गोपी के साथ रमण कर रहे थे, जिससे वे प्रेम में आसक्त स्त्रियों की दैन्यता और दुर्बलता को दिखा सकें।


श्लोक 36

इत्येवं दर्शयन्त्यस्ताश्चेरुर्गोप्यो विचेतसः ।
यां गोपीमनयत्कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने ॥ ३६ ॥

अनुवाद:
इस प्रकार गोपियाँ भ्रमित चित्त से उस गोपी की चर्चा करती रहीं, जिसे श्रीकृष्ण अन्य गोपियों को छोड़कर वन में एकांत में ले गए थे।


श्लोक 37

सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम् ।
हित्वा गोपीः कामयाना मामसौ भजते प्रियः ॥ ३७ ॥

अनुवाद:
वह गोपी स्वयं को अन्य सभी गोपियों से श्रेष्ठ समझने लगी, क्योंकि श्रीकृष्ण ने बाकी सबको छोड़कर केवल उसी को चुना था।


श्लोक 38

ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत् ।
न पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः ॥ ३८ ॥

अनुवाद:
जब वह गोपी वन के भीतर कुछ दूर तक श्रीकृष्ण के साथ चली गई, तो उसने गर्व से कहा—अब मैं और चल नहीं सकती, मुझे वहीं ले चलो जहाँ तुम्हारा मन है।


श्लोक 39

एवमुक्तः प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामिति ।
ततश्चान्तर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत ॥ ३९ ॥

अनुवाद:
श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा—तो मेरी पीठ पर चढ़ जाओ। किन्तु इसके बाद वे तत्काल अदृश्य हो गए। वह वधू अत्यंत व्याकुल होकर विलाप करने लगी।


श्लोक 40

हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज ।
दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम् ॥ ४० ॥

अनुवाद:
वह विलाप करती रही—हाय! हे मेरे स्वामी, हे रमणीयतम प्रियतम! कहाँ हो तुम? हे करुणासागर, मुझे दीन दासी पर कृपा करो और अपने दर्शन दो।


श्लोक 41

अन्विच्छन्त्यो भगवतो मार्गं गोप्योऽविदूरितः ।
ददृशुः प्रियविश्लेषान्मोहितां दुःखितां सखीम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद:
जब गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण की खोज करती हुई उस ओर पहुँची, तो उन्होंने उस गोपी को अत्यंत दुःखी, भ्रमित अवस्था में पाया, जिसे श्रीकृष्ण छोड़कर अंतर्धान हो गए थे।


श्लोक 42

तया कथितमाकर्ण्य मानप्राप्तिं च माधवात् ।
अवमानं च दौरात्म्याद्विस्मयं परमं ययुः ॥ ४२ ॥

अनुवाद:
जब उस गोपी ने सारी कथा सुनाई—कैसे श्रीकृष्ण ने उसे सम्मान दिया और फिर अपमानित करके अदृश्य हो गए—तब सभी गोपियाँ अत्यंत आश्चर्यचकित हो उठीं।


श्लोक 43

ततोऽविशन् वनं चन्द्र ज्योत्स्ना यावद्विभाव्यते ।
तमः प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतुः स्त्रियः ॥ ४३ ॥

अनुवाद:
इसके पश्चात वे सभी गोपियाँ उस वन में चली गईं जहाँ चाँदनी रात में सब कुछ दिखाई दे रहा था, परंतु जब वह स्थान अंधकार में लुप्त हो गया, तब वे लौट आईं।


श्लोक 44

तन्मनस्कास्तदलापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिकाः ।
तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मगाराणि सस्मरुः ॥ ४४ ॥

अनुवाद:
उन गोपियों का चित्त, वाणी, क्रिया और आत्मा सभी श्रीकृष्ण में लीन हो चुके थे। वे केवल उन्हीं की लीलाओं का गायन करती रहीं, अपने घर-परिवार को भी भूल चुकी थीं।


श्लोक 45

पुनः पुलिनमागत्य कालिन्द्याः कृष्णभावनाः ।
समवेता जगुः कृष्णं तदागमनकाङ्क्षिताः ॥ ४५ ॥

अनुवाद:
फिर वे सब यमुना नदी के तट पर उस रासस्थली में आकर एकत्र हुईं और श्रीकृष्ण की अगवानी की आशा करते हुए उनके गुणों का गान करने लगीं।


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशम स्कन्धे कृष्णान्वेषणं नाम त्रिंशोऽध्यायः समाप्तः।

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