संस्कृत श्लोक: "असारे खलु संसारे सुखभ्रान्तिः शरीरिणाम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
🕉️ मूल श्लोक:
असारे खलु संसारे सुखभ्रान्तिः शरीरिणाम्।लालापानमिवाङ्गुष्ठे बालानां स्तन्यविभ्रमः ॥
🙏 जय श्रीराम।
प्रस्तुत श्लोक का व्याकरण, शाब्दिक अर्थ, भावार्थ, तात्त्विक विश्लेषण, आधुनिक सन्दर्भ, एवं प्रेरणास्पद निष्कर्ष सहित विस्तृत और व्यवस्थित व्याख्यान यहाँ प्रस्तुत है —
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संस्कृत श्लोक: "असारे खलु संसारे सुखभ्रान्तिः शरीरिणाम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
🧠 पदविच्छेद एवं शाब्दिक अर्थ:
पद | अर्थ |
---|---|
असारे | जिसमें कोई सार (स्थायित्व, सत्यता) न हो — असार |
खलु | निःसंदेह, वास्तव में |
संसारे | संसार में, जीवन के चक्र में |
सुखभ्रान्तिः | सुख की भ्रांति (मिथ्या सुख की धारणा) |
शरीरिणाम् | देहधारी प्राणियों की |
लालापानम् | लार (saliva) का पान करना |
इव | के समान |
अङ्गुष्ठे | अंगूठे में |
बालानाम् | बालकों का, शिशुओं का |
स्तन्यविभ्रमः | माँ के स्तन्य (दूध) की मिथ्या धारणा |
📖 सरल हिंदी अनुवाद:
"वास्तव में यह संसार असार है, फिर भी देहधारी प्राणी इसमें सुख की भ्रांति पाले रहते हैं; जैसे कोई शिशु अपने अंगूठे को चूसकर यह समझता है कि वह माँ का दूध पी रहा है।"
🪷 भावार्थ (भावात्मक प्रस्तुति):
यह श्लोक अद्वैत वेदांत और वैराग्य भावना का अत्यंत मार्मिक चित्रण करता है। संसार को सारहीन बताते हुए यह कहता है कि —
👉 संसार के विषय-भोग, ममता, संबंध, संपत्ति आदि दिखने में सुखद प्रतीत होते हैं, किंतु यह केवल एक भ्रम है।
👉 जैसे शिशु अपने ही अंगूठे को चूसता है और उसे लगता है कि वह माँ का स्तन पी रहा है, वैसा ही भ्रम देहधारी प्राणियों को संसार के विषयों के प्रति होता है।
🧘 तात्त्विक विवेचन (दार्शनिक दृष्टि से):
1. असार संसार का तात्पर्य:
- संसार नश्वर है, परिवर्तनशील है, क्षणभंगुर है।
- "सार" वही वस्तु है जो शाश्वत हो — आत्मा, ब्रह्म, परम तत्व।
- शरीर, इन्द्रिय सुख, संबंध, धन, यश – ये सभी असार हैं।
2. सुख की भ्रांति क्यों?
- जीव अपनी आत्मिक सत्ता को भुलाकर देह के साथ तादात्म्य कर लेता है।
- उसे लगता है कि इन्द्रियों के द्वारा मिलने वाला सुख ही वास्तविक सुख है।
- किंतु यह केवल "सुख की अनुभूति का भ्रम" है, जैसा स्वप्न में सुख अनुभव करना।
3. अंगूठा और स्तन्य – उपमा की महत्ता:
- बच्चा जब भूखा होता है और माँ पास नहीं होती, तो वह अपने अंगूठे को चूसकर संतोष करता है।
- पर वह संतोष केवल लार का स्वाद है, उसमें पोषण नहीं।
- इसी प्रकार संसार का सुख भी क्षणिक तृप्ति देता है पर अंतरात्मा का पोषण नहीं।
🕯️ आधुनिक जीवन में सन्दर्भ:
- आज मनुष्य मोबाइल, सोशल मीडिया, भोग-विलास, संबंधों, मान-सम्मान आदि में सुख खोजता है।
- वह इस भौतिकता को ही जीवन मान लेता है।
- किंतु अंततः यह सब अस्थायी, रोग-दुःखजन्य, और असंतोषवर्धक ही सिद्ध होता है।
🏵️ उपनिषद/गीता से सन्निकट विचार:
- ईशावास्य उपनिषद्: “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्” — त्यागपूर्वक उपभोग करो, लोभ मत करो।
- भगवद्गीता 2.14:"मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः..."— इन्द्रिय विषय सुख-दुःख मिथ्या हैं, सहने योग्य हैं।
🪔 प्रेरणास्पद निष्कर्ष:
- हमें संसार के आकर्षणों को समझकर वैराग्य भाव अपनाना चाहिए।
- सच्चा सुख आत्मा में, भगवान में, ध्यान और भक्ति में निहित है।
- विषय-भोगों का त्याग कर हम स्थायी सुख (नित्य आनन्द) प्राप्त कर सकते हैं।
📜 संक्षिप्त रूप में सार:
"संसार में जो सुख का भ्रम है, वह लार के समान है — भीतर से केवल खाली। जो इस भ्रम से ऊपर उठकर आत्मा को पहचान लेता है, वही वास्तविक रूप से मुक्त है।"
✨ श्लोक का व्याकरणात्मक विश्लेषण (पद-पद पर):
पद | मूल शब्द | पद रूप | लिंग | वचन | विभक्ति | व्याकरणीय विवरण |
---|---|---|---|---|---|---|
असारे | असार | पुंलिंग | एकवचन | सप्तमी | विशेष्य (सप्तमी कारक) | "असार" = सार रहित; सप्तमी: "असारे संसारे" |
खलु | — | अव्यय | — | — | — | निश्चयार्थक अव्यय (खलु = निःसंदेह, निश्चय से) |
संसारे | संसार | पुंलिंग | एकवचन | सप्तमी | सप्तमी कारक, अधिकरण | "असारे" विशेषण है "संसारे" का |
सुखभ्रान्तिः | सुखभ्रान्ति | स्त्रीलिंग | एकवचन | प्रथमा | कर्तृ | "सुखभ्रान्तिः" = सुख की भ्रांति; मुख्य कर्ता है |
शरीरिणाम् | शरीरिन् | पुंलिंग | बहुवचन | षष्ठी | संबंध कारक | शरीरधारियों की (dehadhāriṇām) |
लालापानम् | लालापान | नपुंसकलिंग | एकवचन | प्रथमा | उपमेय पद | लाला का पान = लार चूसना |
इव | — | अव्यय | — | — | — | उपमा सूचक अव्यय (जैसे, के समान) |
अङ्गुष्ठे | अङ्गुष्ठ | पुंलिंग | एकवचन | सप्तमी | अधिकरण कारक | अंगूठे में (जिसमें लार पिया जा रहा है) |
बालानाम् | बाल | पुंलिंग | बहुवचन | षष्ठी | संबंध कारक | बच्चों का (कौन अंगूठा चूस रहा है) |
स्तन्यविभ्रमः | स्तन्य + विभ्रम | पुंलिंग | एकवचन | प्रथमा | उपमेय/विषय | स्तन्य का भ्रम (मिथ्या धारणा) |
🧠 संरचना विश्लेषण (सिंटैक्टिक संरचना):
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यह श्लोक दो भागों में विभाजित है:(१) मुख्य वाक्य:👉 "असारे खलु संसारे सुखभ्रान्तिः शरीरिणाम्"→ कर्ता: सुखभ्रान्तिः→ कर्म: नहीं है→ अधिकरण: असारे संसारे→ संबंध: शरीरिणाम्
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(२) उपमा वाक्य:👉 "लालापानमिवाङ्गुष्ठे बालानां स्तन्यविभ्रमः"→ उपमेय: स्तन्यविभ्रमः→ उपमान: लालापानम्→ अधिकरण: अङ्गुष्ठे→ संबंध: बालानाम्→ उपमा सूचक अव्यय: इव
🔍 समास विश्लेषण:
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सुखभ्रान्तिः → तत्पुरुष समास
- सुखस्य भ्रान्तिः = सुख का भ्रम
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लालापानम् → तत्पुरुष समास
- लालयाः पानम् = लार का पान
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स्तन्यविभ्रमः → तत्पुरुष समास
- स्तन्यस्य विभ्रमः = स्तन्य का भ्रम
👉 सभी समास अर्थ में संज्ञावाचक और यथार्थ बोधक हैं, पर व्यंग्य अर्थ की अभिव्यक्ति उपमेय से प्रकट होती है।
🎯 काव्य अलंकार:
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उपमा अलंकार:
- "लालापानमिव..." में स्पष्ट उपमा है —शिशु के अंगूठा चूसने को संसार के सुख की भ्रांति से तुलना की गई है।उपमेय: स्तन्यविभ्रमःउपमान: लालापानम्उपमेय में उपमान और ‘इव’ के प्रयोग से उपमा अलंकार सिद्ध होता है।
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व्याज स्तुति (व्यंग्यात्मक बोध):
- यहाँ संसार के सुख को प्रशंसा नहीं, व्यंग्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
🪷 नैतिक, दार्शनिक व आध्यात्मिक संकेत:
- संसार न तो वास्तविक है, न उसमें कोई स्थायी सुख है।
- देहधारी आत्मा मिथ्या सुख की खोज में लिप्त रहता है, जबकि वह असार जगत में अपने आपको खो रहा है।
- इस श्लोक से वैराग्य, विवेक, और आत्मबोध की ओर मार्गदर्शन होता है।
🧾 विस्तृत भावार्थ (संक्षेप में):
जैसे एक बालक अपने अंगूठे को चूसकर सोचता है कि वह दूध पी रहा है, जबकि वह केवल लार का पान कर रहा होता है, वैसे ही यह देहधारी जीव असार संसार में सुख की भ्रांति में जीता है।वास्तविक सुख आत्मा में है, परंतु माया के कारण वह उसे विषयों में ढूँढता है।
🕯️ उपसंहार (निष्कर्ष):
- यह श्लोक वैराग्य शतकम्, भर्तृहरि, या विवेकचूडामणि जैसे ग्रंथों की वैराग्य भावना की गहराई को स्पर्श करता है।
- यह दर्शाता है कि आत्मानुभव और विवेक के बिना, मनुष्य मृगतृष्णा में दौड़ता रहता है।
🌼 हरिः ॐ तत्सत् 🌼