पुरुषसूक्तम् (Purusha Sukta) ऋग्वेद का अत्यंत गूढ़ एवं दार्शनिक सूक्त है, जिसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, समाज की चार वर्ण-व्यवस्थाओं (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) और सृष्टि के दिव्य पुरुष के विराट स्वरूप का वर्णन मिलता है। इस सूक्त के माध्यम से वेद बताते हैं कि सम्पूर्ण जगत उसी एक पुरुष से उत्पन्न हुआ है जो सहस्रशीर्ष, सहस्रचक्षु और सहस्रपाद है। पुरुषसूक्त न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह दार्शनिक, सामाजिक और आध्यात्मिक संतुलन का भी आधार है। इसमें ‘यज्ञ’ को सृष्टि-संचालन की ऊर्जा बताया गया है। इस लेख में पुरुषसूक्त के संस्कृत मूल श्लोकों के साथ-साथ उनका सरल हिन्दी अनुवाद, भावार्थ और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। जानिए कैसे यह सूक्त ‘विराट पुरुष’ की अवधारणा के माध्यम से मानवता को एकता, समर्पण और ब्रह्म-एकत्व का संदेश देता है।
पुरुषसूक्तम् (Purusha Sukta): ब्रह्माण्ड की सृष्टि का दैवी गूढ़ रहस्य – Vedic Cosmic Creation Hymn Explained
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| पुरुषसूक्तम् (Purusha Sukta): ब्रह्माण्ड की सृष्टि का दैवी गूढ़ रहस्य – Vedic Cosmic Creation Hymn Explained |
🌷🌷🌷🌷 पुरुषसूक्तम् 🌷🌷🌷🌷
प्रारम्भिक शान्ति पाठ
ॐ तच्छं॒ योरावृ॑णीमहे । गा॒तुं य॒ज्ञाय॑ । गा॒तुं य॒ज्ञप॑तये । दैवी᳚ स्व॒स्तिर॑स्तु नः ।
स्व॒स्तिर्मानु॑षेभ्यः । ऊ॒र्ध्वं जि॑गातु भेष॒जम् । शन्नो॑ अस्तु द्वि॒पदे᳚ । शं चतु॑ष्पदे ।
ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ।
भावार्थ:
हम उस शुभ शक्ति (परमात्मा) की शरण लेते हैं जो हमें यज्ञ के लिए प्रेरित करती है, जो यज्ञपति (ईश्वर) तक पहुँचने का मार्ग दिखाती है। देवताओं की कृपा हम पर बनी रहे, मनुष्यों में कल्याण हो, औषधियाँ (प्रकृति के तत्व) हमारे जीवन को स्वस्थ बनाएँ। दोपाय (मनुष्य) और चतुष्पाय (पशु) — दोनों के लिए मंगल हो।
तीनों लोकों में शान्ति रहे।
मुख्य पुरुषसूक्तम्
(१)
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्त्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥
भावार्थ:
वह पुरुष (परमात्मा) सहस्रों सिरों, सहस्रों नेत्रों और सहस्रों चरणों वाला है। उसने सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने अस्तित्व से घेरकर, उससे भी दस अँगुल ऊँचा (अर्थात सर्वत्र व्याप्त) होकर स्थित है।
(२)
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानः यदन्नेनातिरोहति ॥
भावार्थ:
यह समस्त सृष्टि — जो हो चुकी है और जो आगे होगी — सब उसी पुरुष (ईश्वर) से है। वही अमरत्व का स्वामी है और वही अन्न (भौतिक रूप) के रूप में इस जगत में व्याप्त होकर भी सबको अतिक्रमित करता है।
(३)
एतावानस्य महिमा अतो ज्यायांश्च पुरुषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥
भावार्थ:
यह (दिखने वाला) उसका केवल एक भाग है। उसके तीन भाग अमृतस्वरूप हैं और दिव्य लोकों में स्थित हैं। उसका एक भाग ही सम्पूर्ण भूतों (जीवों) में प्रकट है।
(४)
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।
ततो विश्वं व्यक्रामत् साशनानशने अभि ॥
भावार्थ:
उस पुरुष के तीन भाग ऊपर (अमृत लोक में) स्थित हैं और एक भाग यहाँ प्रकट हुआ। उसी भाग से यह सम्पूर्ण विश्व प्रसारित हुआ — भक्ष्य और अभक्ष्य दोनों सहित।
(५)
तस्माद्विराडजायत विराजो अधि पुरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥
भावार्थ:
उस पुरुष से ही विराट् उत्पन्न हुआ और उस विराट् से पुनः पुरुष (जीव) प्रकट हुआ। वह प्रकट होकर आगे-पीछे, सर्वत्र पृथ्वी में फैल गया।
(६)
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥
भावार्थ:
जब देवताओं ने पुरुष को हवि (यज्ञद्रव्य) बनाकर यज्ञ किया — तब वसन्त ऋतु घृत (आहुति) बनी, ग्रीष्म ऋतु इध्म (समिधा) बनी, और शरद ऋतु हवि (बलि) बनी।
(७)
सप्तास्यासन् परिधयः त्रिः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वानाः अबध्नन्पुरुषं पशुम् ॥
भावार्थ:
उस यज्ञ के सात परिधि (घेरे) थे और इक्कीस समिधाएँ रखी गईं। देवताओं ने उस यज्ञ में पुरुष को ही यज्ञ-पशु बनाकर बाँधा।
(८)
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥
भावार्थ:
जब पुरुष का यज्ञ किया गया, तो देवताओं और साध्य ऋषियों ने उसी के द्वारा यज्ञ किया। उसने ही आरंभ में देवताओं को यज्ञ-पथ दिखाया।
(९)
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।
पशूꣳस्तांश्चक्रे वायव्यान् आरण्यान्ग्राम्याश्च ये ॥
भावार्थ:
उस सर्वहुत यज्ञ से घृत और विविध पशु उत्पन्न हुए — वायव्य (आकाश में रहने वाले), आरण्य (वनवासी), और ग्राम्य (पालित)।
(१०)
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दाꣳसि जज्ञिरे तस्मात् यजुस्तस्मादजायत ॥
भावार्थ:
उसी यज्ञ से ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और छन्द उत्पन्न हुए। अर्थात् सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान उसी पुरुष से निकला।
(११)
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः ॥
भावार्थ:
उसी पुरुष से घोड़े और दोनों ओर से उपयोगी पशु (गायें, बकरे, आदि) उत्पन्न हुए।
(१२–१३)
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्य कौ बाहू कावूरू पादावुच्यते।
ब्रह्मणोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥
भावार्थ:
जब देवताओं ने उस पुरुष का विभाजन किया, तो उन्होंने विचार किया — इसका मुख क्या बनेगा, बाँहें क्या, जंघाएँ क्या और पैर क्या?
तब मुख से ब्राह्मण, बाँहों से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। (अर्थात् सम्पूर्ण समाज उसी एक पुरुष का अंग है।)
(१४–१५)
चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत।
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात् तथा लोकानकल्पयन् ॥
भावार्थ:
उस पुरुष के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, मुख से इन्द्र और अग्नि, प्राण से वायु उत्पन्न हुए।
नाभि से आकाश, सिर से स्वर्ग, पैरों से पृथ्वी और कानों से दिशाएँ बनीं। इस प्रकार सब लोकों की रचना हुई।
(१६–१८)
वेदा हमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्णं तमसस्तु पारि।
सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरः नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते॥
धा॒ता पुरस्ता॒द्यमुदाजहार शक्रः प्रविद्वान्प्रदिशश्चतस्रः।
तम् एव विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था अयनाय विद्यते॥
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्ते यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाḥ॥
भावार्थ:
मैं उस परम पुरुष को जानता हूँ जो सूर्य के समान तेजस्वी और अंधकार से परे है।
जिसने सब रूप बनाकर उन्हें नाम दिए और सबका अधिष्ठाता बनकर स्थित है।
जो इस पुरुष को जान लेता है, वही अमरत्व प्राप्त करता है; अन्य कोई मार्ग नहीं।
देवताओं ने उसी से यज्ञ किया — और वही धर्मों की उत्पत्ति का प्रथम कारण बना।
वे सब उस उच्च स्थान पर पहुँचते हैं जहाँ पूर्व साध्य देव रहते हैं।
॥ ॐ नमो नारायणाय ॥
🌿 उत्तरनारायणम् 🌿
(१–२)
अद्भ्यः संभूतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताधि।
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तत्पुरुषस्य विश्वमाजानमग्रे॥
वेदा हमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥
भावार्थ:
जल, पृथ्वी और रस (सत्त्व तत्व) से विश्वकर्मा (सृष्टिकर्ता) उत्पन्न हुआ। उसी से परम पुरुष का रूप प्रकट हुआ जो सम्पूर्ण विश्व का आदि बीज है।
वह आदित्य के समान प्रकाशमान, अंधकार से परे है। जो उसे जान लेता है वही अमरत्व को प्राप्त करता है — अन्य कोई मार्ग नहीं।
(३)
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तः अजायमानो बहुधा विजायते।
तस्य धीराः परिजानन्ति योनिं मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधसः॥
भावार्थ:
प्रजापति उस पुरुष के गर्भ में विचरता है, जो अजन्मा होते हुए भी अनेक रूपों में प्रकट होता है।
ज्ञानी जन उसके जन्म-रहस्य को समझते हैं और मरीचि आदि ऋषियों के पद (ज्ञान) की प्राप्ति करते हैं।
(४–५)
यो देवेभ्य आतपति यो देवानां पुरोहितः।
पूर्वो यो देवेभ्यो जातः नमो रुचाय ब्राह्मये॥
रुचं ब्राह्मं जनयन्तः देवा अग्रे तदब्रुवन्।
यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात् तस्य देवा असन् वशे॥
भावार्थ:
जो देवों में सबसे तेजस्वी, पुरोहित रूप में स्थित और उनसे भी पूर्व जन्मा है — उस ब्रह्मस्वरूप को नमस्कार है।
देवताओं ने आरंभ में उस ब्रह्म-ज्योति को उत्पन्न किया। जो ब्राह्मण उस सत्य को जान लेता है, उसके अधीन देवता भी हो जाते हैं (अर्थात् उसे देवतुल्य सिद्धि प्राप्त होती है)।
(६)
ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ अहोरात्रे पार्श्वे।
नक्षत्राणि रूपम् अश्विनौ व्यात्तम्।
इष्टं मनिषाण। अमुं मनिषाण। सर्वं मनिषाण॥
भावार्थ:
तेरी दो पत्नियाँ हैं — ह्री (लज्जा) और लक्ष्मी (समृद्धि)।
तेरे पास दिन-रात्रि तेरे पार्श्व में हैं, नक्षत्र तेरे रूप हैं, अश्विनीकुमार तेरे मुख पर सुशोभित हैं।
हम तेरे प्रिय की, तेरे अमृत की, और तेरे सम्पूर्ण कल्याण की कामना करते हैं।
समापन शान्ति पाठ
ॐ तच्छं॒ योरावृ॑णीमहे । गा॒तुं य॒ज्ञाय॑ । गा॒तुं य॒ज्ञप॑तये । दैवी᳚ स्व॒स्तिर॑स्तु नः ।
स्व॒स्तिर्मानु॑षेभ्यः । ऊ॒र्ध्वं जि॑गातु भेष॒जम् । शन्नो॑ अस्तु द्वि॒पदे᳚ । शं चतु॑ष्पदे ।
ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ।
🌺 ॥ इति श्री पुरुषसूक्तम् तथा उत्तरनारायणम् भावार्थसहित सम्पूर्णम् ॥ 🌺
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