यह संस्कृत श्लोक — “अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं, सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति” — नियति और पुरुषार्थ के गूढ़ संबंध को उजागर करता है। इसका अर्थ है कि जिसे दैव अर्थात् ईश्वर या भाग्य की रक्षा प्राप्त है, वह बिना मानवीय सुरक्षा के भी सुरक्षित रहता है, जबकि जिसे दैव से विनाश प्राप्त है, वह चाहे कितनी भी सुरक्षा में क्यों न हो, नष्ट हो जाता है। यह श्लोक हमें बताता है कि मनुष्य का प्रयत्न आवश्यक है, परंतु सब कुछ केवल प्रयत्न से नहीं होता — परिणाम पर नियति का भी गहरा प्रभाव होता है। जीवन में यह संदेश हमें विनम्रता, धैर्य और संतुलन सिखाता है कि हम कर्म करें, लेकिन परिणाम की चिंता ईश्वर पर छोड़ दें। “दैव-रक्षा का सिद्धांत” आज के आधुनिक जीवन में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना प्राचीन काल में था, क्योंकि चाहे विज्ञान कितना भी उन्नत क्यों न हो, कुछ घटनाएँ अब भी मानव नियंत्रण से परे हैं। इस श्लोक का सार यही है कि दैव और पुरुषार्थ दोनों ही जीवन के पहिए हैं — एक बिना दूसरे अधूरा है। यह नीति-वचन आत्मविश्वास और ईश्वर-विश्वास दोनों को संतुलित रूप से अपनाने की प्रेरणा देता है।
अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं Shlok with Meaning – Destiny vs Effort in Life
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| अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं Shlok with Meaning – Destiny vs Effort in Life |
1. श्लोक (संस्कृत)
2. अंग्रेजी ट्रान्सलिटरेशन (IAST और सरल)
3. हिन्दी अनुवाद (भावपूर्ण)
4. शब्दार्थ (शब्द — अर्थ — पदविन्यास)
- अरक्षितम् — अ-रक्षितम् = रक्षित न (वाच्य): सुरक्षा न पाकर, असंरक्षित।
- तिष्ठति — स्थित/रहता है; जीवित रहता है।
- दैव-रक्षितम् — दैवेन रक्षितम् = भाग्य/ईश्वरीय रक्षा में।
- सुरक्षितम् — आरक्षित, मनुष्यों द्वारा सुरक्षा प्राप्त।
- दैव-हतम् — दैवेन हत (= नियति/भाग्य द्वारा मारित) = नियति से नष्ट।
- विनश्यति — नष्ट होता है, समाप्त हो जाता है।
- जीवति — जीवित रहता है।
- अनाथः — अनाथ, सहायता-रहित, निर्बल।
- अपि — भी।
- वने विसर्जितः — वन में छोड़ा हुआ/परित्यक्त।
- कृतप्रयत्नः — जो प्रयत्न करता है, परिश्रमी; (कृत + प्रयत्नः) = प्रयत्न किए हुए व्यक्ति।
- अपि — भी।
- गृहेऽपि — घर में भी।
- नश्यति — नष्ट हो जाता है।
5. व्याकरणात्मक (साँख्यिक/विवेचनीय) विश्लेषण
- वाक्यरचना: श्लोक दो द्विपदों में विभक्त है — प्रत्येक द्विपद में विरोधाभास (antithesis) व्यक्त किया गया है: अरक्षितं — दैवरक्षितं ; सुरक्षितं — दैवहतं। दूसरे द्विपद में व्यवहारिक उदाहरण: जीवति अनाथोऽपि वने... कृतप्रयत्नोऽपि गृहेपि नश्यति।
- समास और विभक्तियाँ:
- दैवरक्षितं — संयोजित: दैव + रक्षितम् (तत्पुरुष-समास)। अर्थ — जो दैव द्वारा रक्षित हो।
- दैवहतं — दैव + हतम् (तत्पुरुष/समयोजित) — जो नियति द्वारा हत हुआ।
- वने विसर्जितः — वने (अधिकरण) + विसर्जितः (कृदन्त) — परित्यक्त।
- कृतप्रयत्नः — कृत (पूर्ववर्ती) + प्रयत्नः ; कृतप्रयत्नः = प्रयत्न किया हुआ व्यक्ति / प्रयत्नशील।
- गृहेऽपि — गृहे + अपि (अधिकरण में ‘अपि’ के साथ) — घर में भी।
- क्रिया रूप:
- तिष्ठति, विनश्यति, जीवति, नश्यति — सर्वनाम-रहित निष्क्रिय/सकर्मक क्रियाएँ; वर्तमान काल (लट्) के रूप में प्रयुक्त।
- छन्द (अनुशोभन टिप्पणी): श्लोक की लय सामान्यतः श्लोक (अनुष्टुप्) के समीप प्रतीत होती है—प्रत्येक पादा साधारणतः आठ-अठारह मात्राओं के बराबर बैठता है। भाषिक शैली में लघु- विरोधाभास (antithetical parallelism) प्रमुख है।
6. छन्द-विश्लेषण (संक्षेप में)
आम भारतीय नीतिकथाओं व श्लोकों में इस प्रकार के द्वंद्वात्मक-द्विपदनुक्रम (parallel antithesis) से विचार दृढ़ होते हैं। रूपान्तरॆण इसे अनुष्टुप्-प्रकार का बोलचाल का श्लोक मान सकते हैं — पर मेट्रिक गणना के लिए मूल पाठ का मात्रागणित आवश्यक होगा; यहाँ भाव-विन्यास पर बल दिया गया है न कि सख्त मात्रागणना पर।
7. आधुनिक सन्दर्भ — विचार एवं व्यावहारिक अर्थ
यह श्लोक दर्शनतः नियति बनाम प्रयत्न (Daiva vs. Purushartha) की परंपरागत भारतीय चर्चा को संक्षेप में व्यक्त करता है। आधुनिक सन्दर्भों में इसका उपयोग कई तरह से किया जा सकता है:
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जीवन-दृष्टि: किसी की सुरक्षा केवल बाह्य साधनों (लोग, घर, सुरक्षा) से नहीं सुनिश्चित होती—कई बार अवसर, समय, तथा अनपेक्षित परिस्थितियाँ (जो हम 'नियति' कहते हैं) निर्णायक होती हैं। इसलिए संयम के साथ—प्रयत्न करते हुए—नैराश्य/अहंकार भी न रखें।
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नीति-अर्थ (Public policy): किसी भी सुरक्षा-योजना (सुरक्षा नीति, बीमा, साइबर सुरक्षा) का पूर्ण आश्वासन नहीं होता; अनिच्छित ख़तरे (प्राकृतिक आपदा, महामारी, अचानक आर्थिक धक्का) आ सकते हैं। इसलिए “सम्भाव्यता और अनिश्चितता के साथ तैयारी” (resilience planning) महत्वपूर्ण है—यानि नियति के तत्व को न नकारें और जोखिम-प्रबंधन अपनाएं।
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मनोवैज्ञानिक पहलू: श्लोक आश्वासन देता है कि केवल प्रयत्न पर निर्भर रहना (या केवल सुरक्षा-चक्र में फँसना) दोनों असमर्थ हैं; मानसिक विवेक — जहां मानव श्रम एवं धारणा (effort) का महत्त्व है पर स्वीकार भी कि कुछ घटित घटनाएँ हमारी सीमाओं के बाहर हैं — यही संतुलन स्वस्थ दृष्टिकोण देता है।
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धार्मिक/आध्यात्मिक दृष्टि: कर्म करो पर ईश्वर-भक्ति/नियति को नकारो — संयोग और नियति को भी स्वीकार करो। भगवद्गीता का "कर्म करो, फल की इच्छा मत करो" भाव–रेखा से भी यह संगत है: प्रयत्न आवश्यक, पर फल परमेश्वर के हाथ में।
8. संवादात्मक नीति-कथा (संक्षिप्त संवादित कथा — नीतिपरक)
(दो पात्र — सिद्धार्थ (परिश्रमी व्यापारी) और मोहन (नम्र अरण्यजीवी/यात्री))
नीति: प्रयत्न करने से न घबराओ; पर उसी के साथ अनिश्चितताओं के लिए तैयार (मानसिक व व्यावहारिक दोनों रूप से) रहना बुद्धिमानी है।
9. निष्कर्ष (संक्षेप में)
- श्लोक सादगी से एक गहरी सच्चाई कहता है: सुरक्षा और प्रयत्न महत्वपूर्ण हैं, पर वे सर्वशक्तिमान नहीं।
- जीवन में 'प्रयत्न' और 'नियति' दोनों का स्थान है — बुद्धि यही बताती है कि प्रयत्न करते हुए भी परिणाम के प्रति आग्रह कम रखें और अनिश्चितताओं के लिए तैयार रहें।
- नीति-स्तर पर इसका अर्थ है: सुरक्षा-उपाय आवश्यक पर वे पूर्ण जमानत नहीं; इसलिए जोखिम-नियन्त्रण, बहु-स्तरीय तैयारी और अनिश्चितता के प्रति सहनशीलता विकसित करें।
- व्यक्तिगत स्तर पर यह श्लोक धैर्य, विनम्रता और विवेक की प्रेरणा देता है—हमें कर्म करें, पर फल की पूर्ण आश्रितता न रखें।

