कृपण और धन का विष: लोभ पर संस्कृत नीति श्लोक | Miser and Wealth Sanskrit Shlok Meaning in Hindi
1) संस्कृत (IAST) — Transliteration
2) भावार्थ (स्पष्ट हिन्दी):
एक कंजूस व्यक्ति अपना धन नहीं छोड़ता — न वह उसे खर्च करता है, न दान देता है। क्या वास्तव में उस कंजूस ने धन पर विजय पा ली है? या धन उसके भीतर विष बनकर समा गया है और उसे तब तक नहीं छोड़ता जब तक वह मर न जाए?
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| कृपण और धन का विष: लोभ पर संस्कृत नीति श्लोक | Miser and Wealth Sanskrit Shlok Meaning in Hindi |
3) शब्दार्थ — प्रमुख शब्दों का अर्थ (word-by-word)
- शरणम् — आश्रय/शरण (यहाँ शायद रूप/प्रतीकात्मक; पर पंक्ति-आरम्भ में प्रयुक्त)
- किं — क्या / कैसा / whether
- प्रपन्नानि — (प्रपन्न) समर्पित/आश्रित/या यहाँ सम्भवतः ‘जो समर्पित/सम्प्राप्त/प्रवर्तित हुए’ — पर पठनानुसार यहाँ किसी पराधीनता अथवा घेरे हुए की ओर संकेत। (यहाँ पाठ थोड़ा अस्थिर दिखता है; अर्थ के लिए नीचे व्याकरण-टीप पढें)
- विषवन् / viṣa-van — विष वाला / विषवत् / विष की भाँति (poison-like)
- मारयन्ति — मारते हैं / प्रभावित करते हैं (क्रिया: मार् — हानि पहुँचाना / kill/harm)
- वा — या (प्रश्नवाचक संयोजक)
- न — नकार (not)
- त्यज्यन्ते — त्यज् (छोड़ना) — बहुवचन अप्रत्त्यय (प्रेक्षणीय: "न त्यज्यन्ते" = "छोड़े नहीं जाते / नहीं छोड़ा जाता / वह नहीं त्यागता")
- न भुज्यन्ते — भुज् (भुञ्ज् = उपयोग करना, भोग करना) — "न भुज्यन्ते" = "न भोगते/न खर्च होते" (passive/impersonal nuance)
- कृपणेन — कृपण (कंजूस) — instrumental (by the miser) — "कृपणेन" = "कंजूस द्वारा"
- धनानि — धन (wealth) — बहुवचन (acc/plural)
- यत् — जो (relative pronoun) — "धनानि यत्" = "जो धन" / "that wealth" — सम्बन्धवाचक
4) व्याकरणात्मक विश्लेषण (मुख्य बिंदु)
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वाक्य-रचना (syntax):दो खण्ड रूप में पंक्ति रचित है — प्रथम हिस्सा शंकासूचक/प्रश्नात्मक (क्या विषवत् समाप्य/प्रभावित करते हैं?) ; द्वितीय हिस्सा स्पष्ट कथन: कंजूस का धन न त्यज्यते न भुज्यते (न छोड़ा जाता, न भोगा जाता) — और यह धन कंजूस द्वारा नियंत्रित है (कृपणेन) — विहित relat. clause
धनानि यत्= "जो धन"। -
क्रिया रूप (verbal forms):
- मारयन्ति — त्रि-पुरुष बहुवचन वर्तमान क्रिया (वे मारते/हानि पहुँचाते हैं)। यहाँ संभावित वस्तु/प्रभाव: विषवत् (viṣa-vat) किसे मारयन्ति? — संभवतः प्रसंग में 'शरणम् प्रपन्नानि' या 'प्रपन्नानि' पर प्रभाव का संकेत।
- त्यज्यन्ते / भुज्यन्ते — द्वितीय पंक्ति में ये बहुवचन रूप हैं; इनका उपयोग passive/impersonal भाव में हुआ है — "ना त्यज्यन्ते" = "न वह (धन) त्यागा जाता है" या "न वे (धन) छोड़े जाते हैं" — context के हिसाब से अर्थ "कंजूस अपना धन न छोड़े"।
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सम्भावित पाठ-संशय:मूल पंक्ति में
प्रपन्नानिऔरशरणंका संबंध थोड़ा अस्पष्ट दिखता है — पर आपके अंग्रेजी व्याख्यान के अनुरूप हमने second half पर ध्यान केंद्रित किया — यानी मुख्य संदेश कंजूस-धन सम्बन्धी है। संभव वैकल्पिक शुद्ध पाठ:“(क)ञ्जूसः — शरणं किम् प्रपन्नान्? विषवत् मारयन्ति वा?…” — पर यह reconstructive है; वास्तविक अर्थ पर आपके अंग्रेजी/तेलुगु व्याख्यान से मार्गदर्शन मिला। -
अर्थ-गत संक्षेप: व्याकरण के आधार पर वाक्य कहता है: "धन, जिसे कंजूस ने हाथ में बाँधकर रखा है, न छोड़ा जाता न भोगा जाता" — और यह प्रश्न करता है— क्या यह विजय है या विष? (धन का internalization)
5) आधुनिक संदर्भ (प्रासंगिकता)
- व्यावहारिक उदाहरण: आज-कल बहुत लोग बचत करते हैं, पर कंजूसी और परहेज़ के बीच अंतर स्पष्ट होना चाहिए। यदि धन संग्रहित कर लेने का उद्देश्य सुरक्षा/कुटुंब/भविष्य हो — वह सराहनीय है; पर जब धन किसी भय, लालच या स्वार्थ के कारण दूसरों की भलाई से रोका जाए तो वह न तो उपयोगी है, न दान हेतु प्रयुक्त होता — यहाँ श्लोक के अनुसार वह विषवत् बन जाता है।
- आर्थिक-नैतिक संदर्भ: समाज में धन का परिसंचरण (circulation) आवश्यक है — पर यदि धन बंद रहता है तो आर्थिक गतिविधि प्रभावित होती है; साथ ही मानवीय स्तर पर भी कंजूसता संबंधों को विषाक्त कर देती है।
- मानसिक स्वास्थ्य: अत्यधिक जड़ता (attachment) — जैसे धन का अत्यधिक होड़ — व्यक्ति का सहानुभूति, आनंद, सर्व-कल्याण भाव छीन लेती है; यह मूढ़ता आत्मा के लिये विषवत् है।
6) संवादात्मक नीति-कथा (Dialog / Short Parable)
दृश्य: एक ग्राम में दो मित्र — रामदास (कंजूस) और बुधभाष (समझदार)। गाँव में बाढ़ आई; लोगों को दान-सहायता की जरूरत।
- बुधभाष: "रामदास, तुम्हारे पास बहुत अनाज है — क्या तुम बाँटोगे?"
- रामदास (कम्पित स्वर): "नहीं—मैंने ये बचत की है।"
- बुधभाष: "अगर तुम इसे नहीं बांटोगे, तो क्या तुम धन पर विजय प्राप्त कर चुके हो?"
- रामदास: "मैं सुरक्षित हूं।"
- बुधभाष: "पर क्या वह सुरक्षा तुम्हें दूसरों का दुःख देखने की शक्ति देती है? दोस्त, धन वह नहीं जो तुम गिनते हो; धन वह भी है जो तुम दूसरों को साझा कर सको। यदि तुम बाँटते, तो यह धन जीवन देता; पर जो नहीं देने पर टिका रहे, वह विष की भाँति तुम्हें अंदर से खाएगा—तुम्हारे रिश्ते, सम्मान और मन की शांति को।"
नैतिक: धन पर विजय न वह है जो उसे बाँध कर रखे, बल्कि जो उसे सही प्रयोजन में लगा दे — तभी धन सुखदायी और जीवनदायी बनता है; अन्यथा वह विषवत् रूप धारण कर लेता है।
7) निष्कर्ष — (Takeaways)
- कंजूसता ≠ विजय: केवल धन पर पकड़ रखना, उसे न खर्च या दान करना, विजय नहीं — बल्कि बंधन है।
- धन का सामाजिक प्रयोग आवश्यक: धन का सही प्रवाह समाज और आत्मा दोनों के लिए लाभकारी है।
- आंतरिक विष का संकेत: यदि धन व्यक्ति को आध्यात्मिक/नैतिक रूप से रोकता है तो वह अंदर का विष है — जिसे मृत्यु तक त्यागना मुश्किल हो सकता है।
- व्यवहारिक सलाह: संतुलन रखें — बुद्धिमानी से बचत, पर दान, सहयोग और उपयोग भी अनिवार्य रखें; इससे धन औचित्यपूर्ण और जीवनदायी बनता है।
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