Srimad Bhagavatam Canto 3 Chapter 15: Jay-Vijay Ko Shap & Vaikuntha Varnan (Hindi)

Sooraj Krishna Shastri
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श्रीमद्भागवत महापुराण

तृतीय स्कन्ध: अध्याय १५ (जय-विजय को शाप)

मैत्रेय उवाच
प्राजापत्यं तु तत्तेजः परतेजोहनं दितिः । दधार वर्षाणि शतं शङ्कमाना सुरार्दनात् ॥ १ ॥
भावार्थ: दिति ने प्रजापति (कश्यप) के उस वीर्य को, जो दूसरों के तेज का नाश करने वाला था, देवताओं के अनिष्ट की आशंका से सौ वर्षों तक अपने उदर में धारण किए रखा।
लोके तेनाहतालोके लोकपाला हतौजसः । न्यवेदयन्विश्वसृजे ध्वान्तव्यतिकरं दिशाम् ॥ २ ॥
भावार्थ: उस गर्भ के तेज से लोकों का प्रकाश क्षीण हो गया और लोकपालों का ओज (शक्ति) छिन गया। तब उन्होंने दिशाओं में फैले हुए उस घोर अन्धकार के विषय में ब्रह्माजी (विश्वसृजे) से जाकर निवेदन किया।
देवा ऊचुः
तम एतद्विभो वेत्थ संविग्ना यद्वयं भृशम् । न ह्यव्यक्तं भगवतः कालेनास्पृष्टवर्त्मनः ॥ ३ ॥
भावार्थ: हे प्रभो! यह जो अन्धकार फैला है, इसे आप जानते ही हैं, जिससे हम बहुत भयभीत हो रहे हैं। आप काल के प्रभाव से मुक्त हैं, इसलिए आपसे कुछ भी छिपा नहीं है।
देवदेव जगद्धातः लोकनाथशिखामणे । परेषामपरेषां त्वं भूतानामसि भाववित् ॥ ४ ॥
भावार्थ: हे देवाधिदेव! हे जगदाधार! हे लोकनाथशिखामणे! आप समस्त जड़ और चेतन (श्रेष्ठ और कनिष्ठ) प्राणियों के मन का भाव जानते हैं।
नमो विज्ञानवीर्याय माययेदमुपेयुषे । गृहीतगुणभेदाय नमस्तेऽव्यक्तयोनये ॥ ५ ॥
भावार्थ: हम उन विज्ञान-शक्ति सम्पन्न आपको नमस्कार करते हैं, जिन्होंने अपनी माया से यह जगत् रूप स्वीकार किया है और जो सत्त्वादि गुणों के भेद को ग्रहण करके भी मूलतः अव्यक्त कारण हैं।
ये त्वानन्येन भावेन भावयन्त्यात्मभावनम् । आत्मनि प्रोतभुवनं परं सदसदात्मकम् ॥ ६ ॥
भावार्थ: जो लोग अनन्य भाव से, सम्पूर्ण लोकों को धारण करने वाले, कार्य-कारण रूप और सबके आत्मस्वरूप आप (परमेश्वर) का ध्यान करते हैं...
तेषां सुपक्वयोगानां जितश्वासेन्द्रियात्मनाम् । लब्धयुष्मत् प्रसादानां न कुतश्चित्पराभवः ॥ ७ ॥
भावार्थ: ...उन परिपक्व योगियों की, जिन्होंने प्राणायाम द्वारा श्वास और इन्द्रियों को जीत लिया है और जिन्हें आपकी कृपा प्राप्त हो चुकी है, कहीं भी पराजय नहीं होती।
यस्य वाचा प्रजाः सर्वा गावस्तन्त्येव यन्त्रिताः । हरन्ति बलिमायत्ताः तस्मै मुख्याय ते नमः ॥ ८ ॥
भावार्थ: जैसे नकेल (रस्सी) में बंधे हुए बैल अपने स्वामी का बोझ ढोते हैं, वैसे ही आपकी वाणी (वेदों) के नियंत्रण में रहकर सभी प्रजाएं विधिपूर्वक आपको बलि (भेंट) समर्पित करती हैं। उन मुख्य प्राणस्वरूप आपको हम नमस्कार करते हैं।
स त्वं विधत्स्व शं भूमन् तमसा लुप्तकर्मणाम् । अदभ्रदयया दृष्ट्या आपन्नानर्हसीक्षितुम् ॥ ९ ॥
भावार्थ: हे भूमन! इस अन्धकार के कारण हमारे नित्य-कर्म (यज्ञादि) लुप्त हो गए हैं। आप हमारा कल्याण करें। हम विपत्ति में हैं, आप अपनी अपार करुणाभरी दृष्टि से हमें देखें।
एष देव दितेर्गर्भ ओजः काश्यपमर्पितम् । दिशस्तिमिरयन् सर्वा वर्धतेऽग्निरिवैधसि ॥ १० ॥
भावार्थ: हे देव! कश्यप जी द्वारा स्थापित यह दिति का गर्भ ईंधन पाकर बढ़ने वाली आग की तरह सभी दिशाओं को अन्धकारमय करते हुए बढ़ रहा है।
मैत्रेय उवाच
स प्रहस्य महाबाहो भगवान् शब्दगोचरः । प्रत्याचष्टात्मभूर्देवान् प्रीणन् रुचिरया गिरा ॥ ११ ॥
भावार्थ: हे महाबाहु विदुर! देवताओं की प्रार्थना सुनकर वेदमूर्ति भगवान ब्रह्माजी हंसे और अपनी मधुर वाणी से देवताओं को प्रसन्न करते हुए बोले।
ब्रह्मोवाच
मानसा मे सुता युष्मत् पूर्वजाः सनकादयः । चेरुर्विहायसा लोकान् लोकेषु विगतस्पृहाः ॥ १२ ॥
भावार्थ: मेरे मानस पुत्र सनकादि, जो तुम्हारे पूर्वज (बड़े भाई) हैं, वे सांसारिक विषयों से विरक्त होकर आकाशमार्ग से लोकों में विचरण कर रहे थे।
त एकदा भगवतो वैकुण्ठस्यामलात्मनः । ययुर्वैकुण्ठनिलयं सर्वलोकनमस्कृतम् ॥ १३ ॥
भावार्थ: एक बार वे भगवान विष्णु के परम धाम वैकुण्ठ लोक में गए, जो शुद्ध सत्त्वमय है और सभी लोकों द्वारा वंदनीय है।
वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठमूर्तयः । येऽनिमित्तनिमित्तेन धर्मेणाराधयन् हरिम् ॥ १४ ॥
भावार्थ: उस वैकुण्ठ में वे दिव्य पुरुष निवास करते हैं जो 'वैकुण्ठमूर्ति' (चतुर्भुज रूप वाले) हैं और जो निष्काम भाव से केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए उनकी आराधना करते हैं।
यत्र चाद्यः पुमानास्ते भगवान् शब्दगोचरः । सत्त्वं विष्टभ्य विरजं स्वानां नो मृडयन् वृषः ॥ १५ ॥
भावार्थ: जहाँ साक्षात् धर्मस्वरूप, आदिपुरुष भगवान, अपने भक्तों को सुख देने के लिए शुद्ध सत्त्वगुण (रजोगुण-तमोगुण रहित) को स्वीकार करके विराजमान रहते हैं।
यत्र नैःश्रेयसं नाम वनं कामदुघैर्द्रुमैः । सर्वर्तुश्रीभिर्विभ्राजत् कैवल्यमिव मूर्तिमत् ॥ १६ ॥
भावार्थ: वहाँ 'नैःश्रेयस' (कल्याणमय) नाम का एक वन है, जिसके वृक्ष कामनाओं को पूरा करने वाले (कल्पवृक्ष) हैं। वह वन सब ऋतुओं की शोभा से संपन्न होकर मूर्तिमान कैवल्य मोक्ष सा प्रतीत होता है।
वैमानिकाः सललनाश्चरितानि यत्र गायन्ति लोकशमलक्षपणानि भर्तुः । अन्तर्जलेऽनुविकसन् मधुमाधवीनां । गन्धेन खण्डितधियोऽप्यनिलं क्षिपन्तः ॥ १७ ॥
भावार्थ: वहाँ विमानों पर चढ़कर गंधर्वजन अपनी पत्नियों के साथ प्रभु की पापनाशिनी लीलाओं का गान करते हैं। सरोवरों में खिली हुई माधवी लताओं की सुगन्ध जब उनके चित्त को अपनी ओर खींचती है, तब वे हरि-कथा में विघ्न समझकर उस सुगंधित वायु की भी उपेक्षा (निंदा) कर देते हैं।
पारावतान्यभृतसारसचक्रवाक । दात्यूहहंसशुकतित्तिरिबर्हिणां यः । कोलाहलो विरमतेऽचिरमात्रमुच्चैः । भृङ्गाधिपे हरिकथामिव गायमाने ॥ १८ ॥
भावार्थ: वहाँ कबूतर, कोयल, सारस, चकवा, पपीहा, हंस, तोता, तीतर और मोर आदि पक्षी कोलाहल करते रहते हैं, लेकिन जब भ्रमरराज (भौंरा) गुंजार करता है, तो वे सब यह सोचकर चुप हो जाते हैं कि वह भगवान की कथा गा रहा है।
मन्दारकुन्दकुरबोत्पलचम्पकार्ण । पुन्नागनागबकुलाम्बुजपारिजाताः । गन्धेऽर्चिते तुलसिकाभरणेन तस्या । यस्मिंस्तपः सुमनसो बहु मानयन्ति ॥ १९ ॥
भावार्थ: वहाँ मन्दार, कुन्द, कमल, चम्पा, और पारिजात आदि पुष्पों की गंध होने पर भी तुलसी की गंध का ही अधिक आदर किया जाता है, क्योंकि तुलसी भगवान को अत्यंत प्रिय हैं और प्रभु ने उन्हें धारण किया हुआ है। ऐसा लगता है मानो वे पुष्प तुलसीजी की तपस्या की सराहना कर रहे हों।
यत्सङ्कुलं हरिपदानतिमात्रदृष्टैः । वैदूर्यमारकतहेममयैर्विमानैः । येषां बृहत्कटितटाः स्मितशोभिमुख्यः । कृष्णात्मनां न रज आदधुरुत्स्मयाद्यैः ॥ २० ॥
भावार्थ: वह धाम वैदूर्य, मरकत और स्वर्ण के विमानों से भरा हुआ है। उन विमानों पर चढ़ी हुई सुंदर स्त्रियाँ, जिनके नितम्ब भारी और मुख मन्द मुस्कान से युक्त हैं, अपने हाव-भाव से भी उन भक्तों के मन में कामवासना उत्पन्न नहीं कर पातीं जिनका चित्त श्रीकृष्ण में लगा हुआ है।
श्री रूपिणी क्वणयती चरणारविन्दं । लीलाम्बुजेन हरिसद्मनि मुक्तदोषा । संलक्ष्यते स्फटिककुड्य उपेतहेम्नि । सम्मार्जतीव यदनुग्रहणेऽन्ययत्‍नः ॥ २१ ॥
भावार्थ: परम सुन्दरी दोषरहित लक्ष्मीजी अपने नूपुरों की झनकार करती हुई, हाथ में लीलाकमल लेकर भगवान के भवन में ऐसे दिखाई देती हैं मानो वे स्फटिक और सोने की दीवारों में अपना प्रतिबिंब देखकर झाड़ू लगा रही हों (सेवा कर रही हों)। अन्य स्त्रियाँ तो केवल उनकी कृपा पाने के लिए यत्न करती हैं।
वापीषु विद्रुमतटास्वमलामृताप्सु । प्रेष्यान्विता निजवने तुलसीभिरीशम् । अभ्यर्चती स्वलकमुन्नसमीक्ष्य वक्त्रम् । उच्छेषितं भगवतेत्यमताङ्ग यच्छ्रीः ॥ २२ ॥
भावार्थ: अपने बागों की मूंगे से जड़ी बावडियों में, जिनका जल अमृत समान है, जब लक्ष्मीजी अपनी दासियों के साथ तुलसी द्वारा भगवान की पूजा करती हैं, तो जल में अपने सुंदर मुख का प्रतिबिंब देखकर सोचती हैं कि भगवान ने मेरे मुख का चुम्बन किया है (यह अधरराग उसी का चिह्न है), और वे लजा जाती हैं।
यन्न व्रजन्त्यघभिदो रचनानुवादात् । श्रृण्वन्ति येऽन्यविषयाः कुकथा मतिघ्नीः । यास्तु श्रुता हतभगैर्नृभिरात्तसारान् । तांस्तान् क्षिपन्त्यशरणेषु तमःसु हन्त ॥ २३ ॥
भावार्थ: उस धाम में वे अभागे लोग नहीं जा सकते जो भगवान की कथाओं से विमुख हैं और बुद्धि का नाश करने वाली तुच्छ विषयों की चर्चा (कु-कथा) सुनते हैं। ऐसी कु-कथाएं पुण्य को नष्ट करके जीव को घोर अज्ञान रूपी अंधकार (नरक) में डाल देती हैं।
येऽभ्यर्थितामपि च नो नृगतिं प्रपन्ना । ज्ञानं च तत्त्वविषयं सहधर्मं यत्र । नाराधनं भगवतो वितरन्त्यमुष्य । सम्मार्जतीव यदनुग्रहणेऽन्ययत्‍नः ॥ २४ ॥
भावार्थ: जो लोग हम देवताओं द्वारा वांछित मनुष्य योनि पाकर भी, जिसमें ज्ञान और धर्म की प्राप्ति सुलभ है, भगवान की आराधना नहीं करते, वे अवश्य ही भगवान की माया द्वारा ठगे गए हैं।
यच्च व्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्या । दूरे यमा ह्युपरि नः स्पृहणीयशीलाः । भर्तुर्मिथः सुयशसः कथनानुराग । वैक्लव्यबाष्पकलया पुलकीकृताङ्गाः ॥ २५ ॥
भावार्थ: वैकुण्ठ धाम उन्हीं को प्राप्त होता है जो यम-नियमों से परे हैं (भक्ति में लीन होने के कारण), जो हमसे (देवताओं से) भी ऊपर हैं, और जो भगवान की कथा सुनकर प्रेम से गद्गद हो जाते हैं, जिनके शरीर में रोमांच तथा आँखों में आंसू आ जाते हैं।
तद्विश्वगुर्वधिकृतं भुवनैकवन्द्यं । दिव्यं विचित्रविबुधाग्र्यविमानशोचिः । आपुः परां मुदमपूर्वमुपेत्य योग । मायाबलेन मुनयस्तदथो विकुण्ठम् ॥ २६ ॥
भावार्थ: तब उन मुनियों (सनकादि) ने अपनी योगमाया के प्रभाव से उस परम वंदनीय, विश्वगुरु भगवान के धाम वैकुण्ठ को प्राप्त किया, जो श्रेष्ठ विमानों से सुशोभित है, और वहां पहुंचकर उन्हें अपूर्व आनंद हुआ।
तस्मिन्नतीत्य मुनयः षडसज्जमानाः । कक्षाः समानवयसावथ सप्तमायाम् । देवावचक्षत गृहीतगदौ परार्ध्य । केयूरकुण्डलकिरीटविटङ्कवेषौ ॥ २७ ॥
भावार्थ: मुनिगण बिना किसी आसक्ति के छह ड्योढ़ियाँ (दरवाजे) पार कर गए। सातवीं ड्योढ़ी पर उन्होंने दो समान आयु वाले देवों को देखा, जो गदा धारण किए हुए थे, और बाजूबंद, कुंडल व मुकुट आदि आभूषणों से सुसज्जित थे।
मत्तद्विरेफवनमालिकया निवीतौ । विन्यस्तयासितचतुष्टयबाहुमध्ये । वक्त्रं भ्रुवा कुटिलया स्फुटनिर्गमाभ्यां । रक्तेक्षणेन च मनाग्रभसं दधानौ ॥ २८ ॥
भावार्थ: उनकी चार नीली भुजाओं के बीच वनमाला सुशोभित थी जिस पर मतवाले भंवरे गुंजार कर रहे थे। उनकी भौहें टेढ़ी थीं, नथुने फड़क रहे थे और लाल आँखों से वे कुछ क्रोधित प्रतीत हो रहे थे।
द्वार्येतयोर्निविविशुर्मिषतोरपृष्ट्वा । पूर्वा यथा पुरटवज्रकपाटिका याः । सर्वत्र तेऽविषमया मुनयः स्वदृष्ट्या । ये सञ्चरन्त्यविहता विगताभिशङ्काः ॥ २९ ॥
भावार्थ: सनकादि मुनि, जो सर्वत्र समदृष्टि रखते हैं और बिना रोक-टोक विचरते हैं, वे द्वारपालों को देखकर भी बिना कुछ पूछे वैसे ही भीतर जाने लगे जैसे उन्होंने पिछले हीरों-जड़े किवाड़ वाले छह द्वारों को पार किया था।
तान्वीक्ष्य वातरशनांश्चतुरः कुमारान् । वृद्धान्दशार्धवयसो विदितात्मतत्त्वान् । वेत्रेण चास्खलयतामतदर्हणांस्तौ । तेजो विहस्य भगवत् प्रतिकूलशीलौ ॥ ३० ॥
भावार्थ: उन मुनियों को, जो देखने में पांच वर्ष के बालक जैसे नग्न (वातरशना) थे लेकिन वास्तव में आत्मज्ञानी और वृद्ध (प्राचीन) थे, उन द्वारपालों ने भगवान के स्वभाव के विपरीत आचरण करते हुए अपनी बेंत (छड़ी) अड़ाकर रोक दिया और उनकी हंसी भी उड़ाई। वे मुनि इस व्यवहार के योग्य नहीं थे।
ताभ्यां मिषत्स्वनिमिषेषु निषिध्यमानाः । स्वर्हत्तमा ह्यपि हरेः प्रतिहारपाभ्याम् । ऊचुः सुहृत्तमदिदृक्षितभङ्ग ईषत् । कामानुजेन सहसा त उपप्लुताक्षाः ॥ ३१ ॥
भावार्थ: जब देवताओं के देखते-देखते, हरि के उन द्वारपालों ने परम पूजनीय मुनियों को रोका, तब अपने प्रियतम भगवान के दर्शन में विघ्न पड़ने के कारण मुनियों को क्रोध (कामानुज) आ गया और उनकी आँखें क्षोभ से लाल हो गईं। उन्होंने द्वारपालों से कहा—
मुनय ऊचुः
को वामिहैत्य भगवत् परिचर्ययोच्चैः । तद्धर्मिणां निवसतां विषमः स्वभावः । तस्मिन् प्रशान्तपुरुषे गतविग्रहे वां । को वात्मवत् कुहकयोः परिशङ्कनीयः ॥ ३२ ॥
भावार्थ: मुनियों ने कहा— "अरे! तुम दोनों यहाँ भगवान की सेवा में रहकर भी विषम स्वभाव वाले (भेदभाव रखने वाले) कैसे हो गए? भगवान तो परम शांत और वैरभाव से रहित हैं। तुम कपटी लोग यहाँ किस शत्रु से डर रहे हो, जो तुम हमें रोक रहे हो?"
न ह्यन्तरं भगवतीह समस्तकुक्षौ । आत्मानमात्मनि नभो नभसीव धीराः । पश्यन्ति यत्र युवयोः सुरलिङ्‌गिनोः किं । व्युत्पादितं ह्युदरभेदि भयं यतोऽस्य ॥ ३३ ॥
भावार्थ: भगवान के उदर में तो सारा ब्रह्मांड है। ज्ञानी जन उनमें और सारे जगत में आकाश (घटाकाश-महाकाश) की भांति कोई भेद नहीं देखते। तुम देवताओं का वेश धरने वाले अज्ञानी हो, तुम्हारे अंदर यह भेद-बुद्धि और भय कहाँ से आया?
तद्वाममुष्य परमस्य विकुण्ठभर्तुः । कर्तुं प्रकृष्टमिह धीमहि मन्दधीभ्याम् । लोकानितो व्रजतमन्तरभावदृष्ट्या । पापीयसस्त्रय इमे रिपवोऽस्य यत्र ॥ ३४ ॥
भावार्थ: तुम दोनों मन्दबुद्धि हो, अतः तुम भगवान की सेवा के योग्य नहीं हो। इसलिए हम तुम्हारे पाप का प्रायश्चित करने के लिए तुम्हें दण्ड देने का विचार करते हैं। तुम इस वैकुण्ठ लोक से गिरकर उस पापमय (मृत्यु) लोक में जाओ, जहाँ काम, क्रोध और लोभ—ये तीन शत्रु निवास करते हैं।
तेषामितीरितमुभाववधार्य घोरं । तं ब्रह्मदण्डमनिवारणमस्त्रपूगैः । सद्यो हरेरनुचरावुरु बिभ्यतस्तत् । पादग्रहावपततामतिकातरेण ॥ ३५ ॥
भावार्थ: मुनियों का वह घोर शाप (ब्रह्मदण्ड) सुनकर, जिसे किसी भी अस्त्र से नहीं टाला जा सकता, वे दोनों द्वारपाल (जय-विजय) अत्यंत भयभीत हो गए और कातर होकर तुरंत मुनियों के चरणों में गिर पड़े।
भूयादघोनि भगवद्भिरकारि दण्डो । यो नौ हरेत सुरहेलनमप्यशेषम् । मा वोऽनुतापकलया भगवत्स्मृतिघ्नो । मोहो भवेदिह तु नौ व्रजतोरधोऽधः ॥ ३६ ॥
भावार्थ: उन्होंने प्रार्थना की— "हे भगवन! आपने हम पापियों को जो दण्ड दिया है, वह उचित ही है। वह भले ही हमें मिले, पर हमारी प्रार्थना है कि अधोगति (असुर योनि) में जाते समय भी मोह के कारण हमारी स्मृति नष्ट न हो, हमें भगवान का विस्मरण कभी न हो।"
एवं तदैव भगवान् अरविन्दनाभः । स्वानां विबुध्य सदतिक्रममार्यहृद्यः । तस्मिन् ययौ परमहंसमहामुनीनाम् । अन्वेषणीयचरणौ चलयन् सहश्रीः ॥ ३७ ॥
भावार्थ: उसी समय, भगवान कमलनयन, जो साधुओं के हृदय हैं, अपने द्वारपालों द्वारा संतों का अपमान हुआ जानकर लक्ष्मीजी के साथ पैदल ही वहाँ पधारे। उनके चरण कमलों को बड़े-बड़े परमहंस भी खोजते रहते हैं।
तं त्वागतं प्रतिहृतौपयिकं स्वपुम्भिः । तेऽचक्षताक्षविषयं स्वसमाधिभाग्यम् । हंसश्रियोर्व्यजनयोः शिववायुलोलः । शुभ्रातपत्रशशिकेसरशीकराम्बुम् ॥ ३८ ॥
भावार्थ: सनकादि मुनियों ने देखा कि उनकी समाधि के विषय (ध्येय) भगवान स्वयं आ रहे हैं। उनके पार्षदों ने छत्र-चामर आदि राजचिह्न लिए हुए थे। श्वेत चँवरों की हवा से हिलते हुए मोती और जल की बूंदों वाले छत्र के नीचे भगवान सुशोभित थे।
कृत्स्नप्रसादसुमुखं स्पृहणीयधाम । स्नेहावलोककलया हृदि संस्पृशन्तम् । श्यामे पृथावुरसि शोभितया श्रिया स्वः । चूडामणिं सुभगयन्तमिवात्मधिष्ण्यम् ॥ ३९ ॥
भावार्थ: भगवान का मुख अत्यंत प्रसन्न था और वे सभी के आश्रय थे। अपनी प्रेमभरी दृष्टि से वे मुनियों के हृदय को स्पर्श कर रहे थे। उनके श्याम वर्ण के विशाल वक्षस्थल पर लक्ष्मीजी सुशोभित थीं, जिससे वैकुण्ठ लोक का सौंदर्य और भी बढ़ गया था।
पीतांशुके पृथुनितम्बिनि विस्फुरन्त्या । काञ्च्यालिभिर्विरुतया वनमालया च । वल्गुप्रकोष्ठवलयं विनतासुतांसे । विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जम् ॥ ४० ॥
भावार्थ: वे अपने विशाल नितम्बों पर पीताम्बर और चमकती हुई करधनी पहने थे। गले में वनमाला थी जिस पर भंवरे गुंजार कर रहे थे। सुंदर कलाई में कंगन थे। उनका एक हाथ गरुड़ जी के कंधे पर रखा था और दूसरे हाथ में वे कमल घुमा रहे थे।
विद्युत्क्षिपन् मकरकुण्डलमण्डनार्ह । गण्डस्थलोन्नसमुखं मणिमत्किरीटम् । दोर्दण्डषण्डविवरे हरता परार्ध्य । हारेण कन्धरगतेन च कौस्तुभेन ॥ ४१ ॥
भावार्थ: उनके गाल बिजली की तरह चमकते मकर कुंडलों से सुशोभित थे। नासिका ऊंची थी और सिर पर मणियों जड़ा मुकुट था। उनकी भुजाओं के बीच लटकता हुआ अनमोल हार और गले में कौस्तुभ मणि उनकी सुंदरता को बढ़ा रहे थे।
अत्रोपसृष्टमिति चोत्स्मितमिन्दिरायाः । स्वानां धिया विरचितं बहुसौष्ठवाढ्यम् । मह्यं भवस्य भवतां च भजन्तमङ्गं । नेमुर्निरीक्ष्य न वितृप्तदृशो मुदा कैः ॥ ४२ ॥
भावार्थ: भगवान का वह रूप अत्यंत सुंदर था, मानो भक्तों के लिए ही उन्होंने उसे प्रकट किया हो। उस रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी गर्वित होती हैं। मुनिगण उस रूप को देखकर तृप्त नहीं हो रहे थे और उन्होंने अत्यंत हर्ष के साथ सिर झुकाकर भगवान को प्रणाम किया।
तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द । किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः । अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां । सङ्क्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥ ४३ ॥
भावार्थ: उस समय भगवान के चरणकमलों की मकरन्द (पराग) से मिश्रित होकर तुलसी की गंध वायु के द्वारा मुनियों की नासिका में प्रविष्ट हुई। यद्यपि वे मुनि नित्य ब्रह्मानन्द (अक्षर ब्रह्म) में लीन रहने वाले थे, तथापि उस दिव्य गंध ने उनके मन और शरीर में एक अद्भुत हर्ष और प्रेम-विकार (सात्विक क्षोभ) उत्पन्न कर दिया।
ते वा अमुष्य वदनासितपद्मकोशम् । उद्वीक्ष्य सुन्दरतराधरकुन्दहासम् । लब्धाशिषः पुनरवेक्ष्य तदीयमङ्‌घ्रि । द्वन्द्वं नखारुणमणिश्रयणं निदध्युः ॥ ४४ ॥
भावार्थ: मुनियों ने भगवान के नीलकमल के समान मुख और कुन्दकली जैसी सफेद मुस्कान वाले अधरों को देखा। फिर अपनी मनोकामना पूर्ण जानकर उन्होंने भगवान के उन चरण-कमलों का ध्यान किया जो लाल मणियों जैसे नखों से सुशोभित थे।
पुंसां गतिं मृगयतामिह योगमार्गैः । ध्यानास्पदं बहुमतं नयनाभिरामम् । पौंस्नं वपुर्दर्शयानमनन्यसिद्धैः । औत्पत्तिकैः समगृणन्युतमष्टभोगैः ॥ ४५ ॥
भावार्थ: योगमार्ग से खोजने वाले पुरुषों के लिए जो परम गति हैं और ध्यान करने योग्य हैं, उन नयनाभिराम भगवान के मानवीय रूप को देखकर मुनियों ने उनकी स्वाभाविक अष्ट सिद्धियों से युक्त वचनों द्वारा स्तुति की।
कुमारा ऊचुः
योऽन्तर्हितो हृदि गतोऽपि दुरात्मनां त्वं । सोऽद्यैव नो नयनमूलमनन्त राद्धः । यर्ह्येव कर्णविवरेण गुहां गतो नः । पित्रानुवर्णितरहा भवदुद्‍भवेन ॥ ४६ ॥
भावार्थ: हे अनंत! यद्यपि आप दुष्टों के हृदय में रहकर भी उनसे छिपे रहते हैं, किन्तु आज आप हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हो गए हैं। जब हमारे पिता ब्रह्माजी ने आपके रहस्य का वर्णन किया था, तभी से आप कानों के रास्ते हमारे हृदय-गुफा में विराजमान थे।
तं त्वां विदाम भगवन्परमात्मतत्त्वं । सत्त्वेन सम्प्रति रतिं रचयन्तमेषाम् । यत्तेऽनुतापविदितैर्दृढभक्तियोगैः । उद्‍ग्रन्थयो हृदि विदुर्मुनयो विरागाः ॥ ४७ ॥
भावार्थ: हे भगवन! हम आपको साक्षात् परमात्मतत्त्व जानते हैं, जो अब शुद्ध सत्त्वगुण के द्वारा अपने भक्तों को आनंद दे रहे हैं। वैराग्यवान मुनि अहंता-ममता रूपी हृदय की ग्रन्थियों को काटकर दृढ़ भक्तियोग द्वारा ही आपको जान पाते हैं।
नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं । किन्त्वन्यदर्पितभयं भ्रुव उन्नयैस्ते । येऽङ्ग त्वदङ्‌घ्रिशरणा भवतः कथायाः । कीर्तन्यतीर्थयशसः कुशला रसज्ञाः ॥ ४८ ॥
भावार्थ: जो रसिक भक्त आपकी पवित्र कीर्ति और कथाओं के रसास्वादन में कुशल हैं और जिन्होंने आपके चरणों की शरण ले ली है, वे आत्यन्तिक मोक्ष को भी कुछ नहीं गिनते। फिर उस इन्द्र-पद आदि की तो बात ही क्या, जो आपकी भौंहों के इशारे (काल) से भयभीत रहता है।
कामं भवः स्ववृजिनैर्निरयेषु नः स्तात् । चेतोऽलिवद्यदि नु ते पदयो रमेत । वाचश्च नस्तुलसिवद्यदि तेऽङ्‌घ्रिशोभाः । पूर्येत ते गुणगणैर्यदि कर्णरन्ध्रः ॥ ४९ ॥
भावार्थ: हे प्रभु! यदि हमारा चित्त भौंरे की तरह आपके चरण-कमलों में रमता रहे, हमारी वाणी तुलसी की तरह आपके चरणों की शोभा का वर्णन करती रहे और हमारे कान आपके गुणों से भरे रहें, तो हमें अपने पापों (शाप देने के अपराध) के कारण भले ही नरक में जाना पड़े, हमें उसकी परवाह नहीं है।
प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरुहूत रूपं । तेनेश निर्वृतिमवापुरलं दृशो नः । तस्मा इदं भगवते नम इद्विधेम । योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान् प्रतीतः ॥ ५० ॥
भावार्थ: हे विपुलकीर्ति! आपने अपना जो यह मनोहारी रूप प्रकट किया है, इससे हमारी आँखों को परम तृप्ति मिली है। आप देहाभिमानियों (अज्ञानी) के लिए दुर्लभ हैं। हम आप भगवान को नमस्कार करते हैं।
॥ इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे तृतीयस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ॥

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