(१) अग्नि में डाला हुआ पदार्थ नष्ट नहीं होता -
सबसे पहले समझ लेने की बात यह है कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ नष्ट नहीं होता । अग्नि का काम स्थूल पदार्थ को सूक्ष्म रूप में परिवर्तित कर देना है। यज्ञ करते हुए अग्नि में घी डालते हैं, वह नष्ट नहीं होता, स्थूल घी परमाणुओं में बदल जाता है, जो भी एक कटोरी में था, परमाणुओं के रूप में वह सारे घर में फैल जाता है। सामग्री में गुग्गल, जायफल, जावित्री, मुनक्का आदि जो कुछ डाला गया था वह परमाणुओं में टूट-टूटकर सारे वायु मण्डल में व्याप्त हो जाता है। किसी बात का पता चलता है, किसी का नहीं। उदाहरणार्थ, स्थूल मिर्च को आप जेब में डालकर फिरते रहें, कुछ नहीं होगा, उसी को हमामदस्ते में कूटें तो उसकी धमक से छीकें आने लगेंगी, उसी को आग में डाल दें तो सारे घर के लोग दूर-दूर बैठे हुए भी परेशान हो जायेंगे क्यों परेशान हो जायेंगे ? क्योंकि आग का काम स्थूल वस्तु को तोड़कर सूक्ष्म कर देना है और वस्तु सूक्ष्म होकर परिमित स्थान में कैद न रहकर दूर-दूर असर करती है । मनु ने ठीक कहा है-आग में डालने से हवि सूक्ष्म होकर सूर्य तक फैल जाती है- 'अग्नौ हुतं हविः सम्यक् आदित्यं उपतिष्ठति ।'
(२) अग्नि में डालने से पदार्थ का गुण भी बढ़ जाता है-
हवन के विषय में जानने की दूसरी बात यह है कि किसी वस्तु को अग्नि में डालने से उसका दायरा, उसका क्षेत्र ही नहीं बढ़ जाता, उसका विस्तार ही नहीं हो जाता, उसका गुण भी कई गुणा बढ़ जाता है। जैसा हमने ऊपर कहा, अग्नि में मिर्च डालने से इतना ही नहीं कि धुएँ के रूप में सूक्ष्म होकर वह दूर-दूर फैल जाती है, उसका गुण भी बहुत बढ़ जाता है। अग्नि का काम स्थूल वस्तु को सूक्ष्म बनाकर 'परिमाणात्मक' (Quantitative) परिवर्तन कर देना ही नहीं है, 'गुणात्मक' (Qualitative) परिवर्तन कर देना भी है। तभी आग में पड़ी मिर्च सिर्फ घर भर में ही नहीं फैल जाती साथ ही उसकी तेजी भी कई गुणा बढ़ जाती है।
(३) स्थूल पदार्थों के अग्नि द्वारा सूक्ष्म हो जाने पर उनका स्वास्थ्य पर प्रभाव -
स्थूल पदार्थ जब अग्नि में पड़कर सूक्ष्म हो जाते हैं, तब उनका प्रभाव क्षेत्र और प्रभाव की गहराई बढ़ जाती है- यह हमने देखा। उदाहरणार्थ, अगर अग्नि में गुग्गुल आदि सुगन्धित द्रव्यों को डालें तो उनकी गन्ध सारे मकान को महका देती है। अगर अग्नि में गन्धक को डालें तो सारा मकान गन्धमय हो जाता है। अग्नि के दो काम हैं या तो यह शुद्ध करती है, या अगर वस्तु का अपना कोई गुण है, तो उसे फैला देती हैं, फैलाने के साथ-साथ गाढ़ा कर देती है। कल्पना कीजिए कि मुर्दा पड़ा पड़ा सड़ रहा है, मकान में सीलन के कारण बीमारी फैल रही है। मुर्दे की सड़न मुर्दे तक ही सीमित नहीं, दूर-दूर तक फैल रही है, सीलन की गन्ध भी मकान में घुसने से पहले ही दूर से अनुभव होने लगती है। मुर्दे की सड़न और सीलन की गन्ध शरीर का यह मकान का स्वाभाविक गुण नहीं है, अग्नि इन्हें समाप्त कर वातावरण को शुद्ध कर देगी। गुग्गुल तथा गन्धक का गुण अपना स्वाभाविक गुण है, अग्नि स्थूल गुग्गुल तथा गन्धक को सूक्ष्म करके परमाणुओं में विभक्त करके इनके गुणों को विस्तृत क्षेत्र में फैला देती है, साथ ही उन गुणों को कई गुण बढ़ा देती है। इसका स्वास्थ्य पर बहुत भारी प्रभाव है। डॉक्टर लोग खांसी-जुकाम में रोगी को युकेलिप्स ऑयल की भाप देते हैं। भाप क्यों देते हैं ? इसलिए भाप देते हैं, क्योंकि इस तेल को आग द्वारा उबलते पानी में डाल देने से जो भाप निकलती है, उसका क्षेत्र शीशी में पड़े युकेलिप्टस ऑयल से कई गुणा बढ़ जाता है, प्रभाव भी साधारण पड़े तेल से कई गुणा बढ़ जाता है। सूक्ष्म परमाणुओं में विभक्त हो जाने से औषधि का गुण बढ़ जाता है – हवन का यह आधारभूत सिद्धान्त है, इस सिद्धान्त को आयुर्वेद, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि सब चिकित्सा पद्धतियाँ स्वीकार करती हैं। ऐलोपैथी में खाँसी, जुकाम, यक्ष्मा आदि में भाप देना हमारे उक्त कथन को सिद्ध करता ही है, आयुर्वेद तथा होम्योपैथी में भी इस सिद्धान्त को माना जाता है।
(क) आयुर्वेद की भस्में इस सिद्धान्त को पुष्ट करती हैं-
आयुर्वेद में लोह, अभ्रक, मुक्ता, रजत, सुवर्ण आदि को अग्नि का ताप देकर उनकी भस्में बनायी जाती हैं और आयुर्वेद का सिद्धान्त यह है कि भस्मों को जितना अग्नि ताप दिया जाय उतनी ही उनकी रोग निवारण की शक्ति बढ़ जाती है। लोह, अभ्रक, रजत, सुवर्ण अपने सूक्ष्मरूप में पड़े रहें, तो उनसे कुछ नहीं होता, अगर अग्नि के माध्यम से उन्हें भस्म कर दिया जाय, तो वे जीवनप्रद हो जाते हैं। अग्नि का सम्पर्क होने से इन धातुओं की भस्में शतपुटी, सहस्रपुटी कहलाती हैं। शतपुटी की अपेक्षा सहस्रपुटी भस्म का रोग निवारण के लिए प्रभाव ज्यादा है। सहस्रपुटी की जगह शतसहस्रपुटी का प्रभाव और ज्यादा है धातुओं में अग्नि के सम्पर्क से रोग निवारण की यह शक्ति कहाँ से आ जाती है ? प्रत्येक वस्तु में रोग निवारण की शक्ति हैं, परन्तु वह तभी प्रकट होती है, जब वह अपने स्थूल रूप को छोड़कर सूक्ष्मरूप में आती है। स्थूल वस्तु के घटक परमाणु जब विरल हो जाते हैं तब उनके भीतर निहित शक्ति प्रकट हो जाती है। आयुर्वेद में यह समझा जाता है कि धातु चिकित्सा कठिन से कठिन रोगों को दूर कर देती है। धातुओं से भस्म बनाकर उन्हें रोग के निवारण के लिये प्रयुक्त करना एक प्रकार का अग्निहोत्र ही है, सिर्फ भेद इतना है कि अग्निहोत्र में मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है, धातुओं की भस्म बनाने में मन्त्रों का उच्चारण नहीं किया जाता, सिर्फ अग्नि द्वारा स्थूल को सूक्ष्म का रूप देकर उसकी शक्ति का विकास किया जाता है।
(ख) होम्योपैथी की पोटेन्सी भी इस सिद्धान्त को पुष्ट करती है-
हम कह चुके हैं कि स्थूल पदार्थ में निहित परमाणु जब विरल हो जाते हैं, तब उनमें शक्ति का विस्फोट होता है। यज्ञ द्वारा स्थूल पदार्थों के परमाणुओं की विरलता अग्नि के माध्यम से की जाती है, जिसे हवन या यज्ञ कहते हैं। आयुर्वेद में औषधियों के परमाणुओं की विरलता उपलों की अग्नि द्वारा की जाती है, जिससे रोगनिवारक भस्मों का निर्माण होता है। होम्योपैथी में यह कार्य 'विचूर्णीकरण' (Trituration ) तथा 'आलोड़न' (Succussion) द्वारा किया जाता है। 'विचूर्णीकरण' का क्या अर्थ है ? औषधि को खरल में डालकर उसे एक निश्चित अनुपात में पीसा जाता है, जिससे स्थूल- पदार्थ के परमाणु विरल हो जाते हैं और जो शक्ति स्थूल पदार्थ में तिरोहित थी, वह प्रकट हो जाती है। इसे 'शक्तिकरण' (Potentization) कहते हैं। 'आलोड़न' का क्या अर्थ है ? औषधि को स्पिरिट में डाल दिया जाता है, उसका पूर्ण घोल (Saturated solution) बन जाने पर उसे नितार लिया जाता है, उसके बाद उसका अत्यन्त सूक्ष्म अंश स्पिरिट में डालकर उसे झटके दिये जाते हैं। यह झटके देना एक तरह से द्रव पदार्थ का पीसना है, जिससे औषधि के परमाणु विरल हो जाते हैं जैसे 'विचूर्णीकरण' से स्थूल पदार्थ में तिरोहित शक्ति प्रकट हो जाती है, वैसे ही 'आलोड़न से भी स्थूल पदार्थ की रोग निवारण करनेवाली शक्ति प्रकट हो जाती है। होम्योपैथी में स्थूल पदार्थों के अणु परमाणुओं विरल कर उनमें निहित रोग निवारक शक्ति को आविर्भूत कर लेना भी एक प्रकार का यज्ञ है, जिसमें मन्त्रोच्चारण तो नहीं होता, परन्तु यज्ञ का जो काम है वह सब हो जाता है।
(ग) सूक्ष्म पदार्थों का स्वास्थ्य पर प्रभाव कैसे पड़ता है-
मनुष्य का स्वास्थ्य उसके भीतर विद्यमान शुद्ध रुधिर पर आश्रित है। रुधिर जितना शुद्ध होगा उतना ही व्यक्ति स्वस्थ होगा। रुधिर जितना अशुद्ध होगा उतना ही व्यक्ति अस्वस्थ होगा। शरीर में रुधिर का सञ्चार तो हृदय से होता है, परन्तु अशुद्ध रक्त को शुद्ध करने का कारखाना फेफड़े हैं। जैसे पेट से खाना हज़्म होकर, रुधिर बनकर, शरीर में खपता है, वैसे यह रुधिर जिसपर स्वास्थ्य तथा जीवन निर्भर हैं, फेफड़ों द्वारा शुद्ध होकर शरीर में संचार करता तथा हमें जीवनी-शक्ति प्रदान करता है। अगर फेफड़ों में शुद्ध तथा पौष्टिक वायु पहुँचेगी तो व्यक्ति स्वस्थ, सुन्दर, सुडौल होगा, अगर फेफड़ों में अशुद्ध कीटाणु मिश्रित अपौष्टिक हवा पहुँचेगी, तो व्यक्ति अस्वस्थ, कुरूप तथा बेडौल होगा । अन्वेषणों से यह पाया गया है कि साधारण रूप में एक युवा व्यक्ति के फेफड़ों में २३० वर्ग ईंच वायु रहती है। इसमें से २० से लेकर ३० वर्ग ईंच वायु श्वास बाहर छोड़ने पर प्रश्वास में बाहर चली जाती है, २०० वर्ग ईंच तक फेफड़ों में जमा रहती है। अगर गहरा प्रश्वास लिया जाय तो १३० वर्ग ईंच तक वायु बाहर निकाली जा सकती है। ऐसा प्राणायाम से किया जा सकता है। शुद्ध वायु का पूर्ण लाभ लेने के लिये प्राणायाम करते हुए भरपूर वेग से फेफड़ों को वायु को बाहर फेंकना चाहिए ताकि फेफड़े १३० वर्ग ईंच तक वायु से खाली हो जायें। जब इस प्रकार फेफड़े वायु से खाली हो जायेंगे, तब उनमें रिक्तता (Vaccum) उत्पन्न हो जायेगी। भौतिकी का यह नियम है कि रिक्तता को भरने के लिए वायु अपने आप उस तरफ वेग से आती है ताकि खाली स्थान भर जाए। इस रिक्तता को शुद्ध वायु तथा यज्ञाग्नि द्वारा औषधियों से भावित - औषधि - अनुप्राणित- अग्निहोत्र की वायु अपने-आप भर देती है। जब हम पहाड़ों अथवा समुद्र तट पर होते हैं तब खाली फेफड़े ओषजन तथा ओजोन से भरकर रक्त को जीवनप्रद शुद्ध वायु देते हैं । इसी तरह जब हम यज्ञ करते हैं तब घृत तथा सामग्री में जो औषधियाँ डाली जाती हैं, उनका अग्नि द्वारा सूक्ष्म तत्त्व इन खाली फेफड़ों को भरकर हमें घृत तथा सामग्री की औषधियों का लाभ पहुँचाता है। अग्निहोत्र का यह प्रत्यक्ष लाभ है, जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता।
(४) क्या हवन से स्वास्थ्यनाशक कार्बनडाइऑक्साइड गैस नहीं पैदा होती -
हवन के विषय में प्रायः दो आक्षेप किये जाते हैं। एक तो यह कि लकड़ियों को जलाने से कार्बनडाइऑक्साइड गैस पैदा होती है, जो स्वास्थ्य के लिये घातक है, दूसरा यह कि इस मँहगाई के जमाने में जब शुद्ध घी खाने को नहीं मिलता तब उसे आग में फूँक देना बुद्धिमानी नहीं है। दूसरे आक्षेप का उत्तर हम पीछे देंगे, पहले विज्ञान के आधार पर किये गये आक्षेप का उत्तर देंगे - यह आक्षेप कि लकड़ियों को जलाने से कार्बन डाय- ऑक्साइड गैस पैदा होती है।
(क) कार्बन डाय-ऑक्साइड गैस-
इसमें सन्देह नहीं कि लकड़ियों को जलाने से कार्बन डाय-ऑक्साइड गैस पैदा होता है, परन्तु प्रश्न यह है कि कार्बन डाय- ऑक्साइड कहाँ उत्पन्न नहीं होता। सृष्टि में इस गैस की भी आवश्यकता है। वनस्पतियों का आहार ही यह गैस हैं। आज जब वन महोत्सव मनाये जा रहे हैं, जंगल बढ़ाने का प्रोग्राम चल रहा है, तब वृक्षों के भोजन को बढ़ाने की भी उतनी ही आवश्यकता बढ़ रही है, जिस कमी को पूरा करने के लिए यज्ञों की भी आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त इस गैस का उत्पन्न होना मात्र स्वास्थ्य के लिए घातक नहीं है। कार्बन डाय-ऑक्साइड गैस तो वायु में हर जगह घुला मिला रहता है, कहीं इसकी मात्रा अधिक होती है, कहीं कम। पहाड़ों में ऑक्सीजन तथा ओजोन की मात्रा अधिक होती है, शहरों में जहां मनुष्यों की बस्ती घनी होती है, वहाँ कार्बन डाय-ऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि पहाड़ों में कार्बन डाय- ऑक्साइड नहीं होता, या शहरों में ऑक्सीजन नहीं होता । कार्बन डाय-ऑक्साइड की सीमा से अधिक मात्रा स्वास्थ्य के लिए हानिकर है। अग्निहोत्र करते हुए जो कार्बन डाय-ऑक्साइड पैदा होता है वह निरा कार्बन डाय ऑक्साइड नहीं होता, उसमें घृत तथा सामग्री में पड़ी अनेक रोगनाशक स्थूल औषधियों के अग्नि द्वारा सूक्ष्मीकृत परमाणु भी मिले होते हैं। क्योंकि रोगनाशक स्थूल औषधियों का सूक्ष्मीकरण - ऐसा सूक्ष्मीकरण जिससे वे वायु-मण्डल में फैल जायें - बिना अग्नि को जलाये नहीं हो सकता और अग्नि को जलाने से कार्बन डाय-ऑक्साइड भी पैदा हो जाता है, इसलिये इस दुविधा में से निकलने के लिये और कार्बन डाय-ऑक्साइड की हानि को दूर करने के लिए रोगनाशक औषधियों की प्रभूत मात्रा सामग्री में डाली जाती है। यह तो स्पष्ट है कि औषधियों के विरल परमाणु ही रोगों को नष्ट करते हैं- इस बात को ऐलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद सब स्वीकार करते हैं। फिर प्रश्न यह रह जाता है कि वायुमण्डल में इन परमाणुओं को पहुँचाने का अग्निके अतिरिक्त दूसरा कौन-सा साधन है ? अग्नि के साधन से अगर कार्बन डाय-ऑक्साइड पैदा हो जाती है, तो उसके प्रभाव को कम तो किया जा सकता है, उसे पैदा होने से रोका नहीं जा सकता। उसके प्रभाव को कम करने के लिए ही अग्निहोत्र में कस्तूरी, केसर, अगर, तगर, चन्दन, इलायची, जायफल, जावित्री, तुलसी, कपूरकचरी, जटामांसी (बालछड़), गुग्गल, काश्मीरी धूप, छलपुड़ी, लाँग, नागरमोथा आदि सुगन्धित पदार्थ डाले जाते हैं। यह तो प्रत्यक्ष अनुभव से जाना जा सकता है कि जहाँ सिर्फ कार्बन डाय- ऑक्साइड होगा वहाँ सिर में चक्कर आ जायेगा, बेहोशी आ जायेगी, परन्तु अग्निहोत्र में जहाँ उससे भी ज्यादा कार्बन डाय-ऑक्साइड पैदा हो रहा होगा, वहाँ अगर सामग्री में उक्त औषधियाँ पड़ी होंगी तो उस सुगन्धित वायु में साँस लेने से आराम आयेगा। कहने का अभिप्राय इतना ही है कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अग्निहोत्र से कार्बन डाय ऑक्साइड पैदा होता है, परन्तु इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि अग्निहोत्र से जितना कार्बन डाय- ऑक्साइड पैदा होता है उसकी अपेक्षा उसके विनाशकारी अंश को नष्ट करके औषधियों के स्वास्थ्यकारी अंश को प्रभूत मात्रा में बढ़ा दिया जाता है।
(ख) मँहगाई
अब प्रश्न यह रह जाता है कि वर्तमान युग के आर्थिक संकट में जब लोगों को खाने के लिये ही घी तथा मिष्टान्न नहीं मिलता, तब इन पदार्थों को हवन द्वारा अग्नि में फूँक देना कहाँ तक युक्ति संगत कहा जा सकता है ? इस शंका का उत्तर समझने के लिये हवन के मुख्य उद्देश्यों को जान लेना जरूरी है। हवन के मुख्य तौर पर ये चार उद्देश्य कहे जाते हैं -
(क) वैयक्तिक तथा सामाजिक वायुमण्डल को शुद्ध करना,
(ख) वैयक्तिक तथा सामाजिक रोगों को दूर करना,
(ग) रोग के कीटाणुओं को नष्ट करना,
(घ) वृष्टि की कमी को दूर करना।
हम यहाँ इन चारों पर संक्षिप्त विचार करेंगे।
(क) हवन द्वारा वैयक्तिक तथा सामाजिक वायु मण्डल को शुद्ध करना
प्रत्येक व्यक्ति का निज घर दूषित वायु से भरा रहता है। इतना ही नहीं कि उसमें कार्बन डाय- ऑक्साइड भरी रहती है, इसके अलावा अनेक प्रकार के कीटाणु हर घर में मौजूद रहते हैं। अनेक घरों में सीलन से घर में बदबू भरी रहती है सीलन के कारण खाँसी, जुकाम, गठिया, अंगों में अनेक प्रकार के दर्द बने रहते हैं। इन सब रोगों का इलाज करने के लिये जिन औषधियों का हम सेवन करते हैं. वे मुफ्त नहीं मिलतीं। उनका हिसाब लगाया जाय तो अमीर घरों में तो वे प्रत्येक महीने में सैकड़ों में बैठती हैं, गरीब घरों में अगर यह भी समझ लिया जाय कि सरकारी दवाखानों से उन्हें दवाएँ मुफ्त में मिलती हैं, तो भी दूषित तथा कीटाणुमय घर के वायुमण्डल में लोगों को जो कष्ट उठाना पड़ता है, उसके मुकाबिले में अग्निहोत्र द्वारा वायु शुद्ध करते रहना क्या मँहगा पड़ता है ? अग्निहोत्र का काम सिर्फ अपने घर की वायु को शुद्ध कर लेना ही नहीं है, इससे पास-पड़ोस की वायु भी शुद्ध हो जाती हैं, क्योंकि वायु किसी कमरे में बन्द रहने वाली वस्तु नहीं है, वायु का काम तो संचरण करना है। इस समय हमारे घर की दूषित तथा कीटाणुमय वायु केवल हमें ही रुग्ण नहीं करती, हमारे पास-पड़ोस के लोगों में भी रोग के कीटाणुओं को पहुँचाती रहती है । इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति का अपने घर में अग्निहोत्र करना केवल उसे ही वैयक्तिक लाभ नहीं पहुँचाता, यह सम्पूर्ण समाज के वायु मण्डल को शुद्ध करता है। जब घर-घर में यज्ञ होगा, अग्नि जलेगी, दूषित कीटाणु नष्ट होंगे, तब सारे समाज का वायु मण्डल शुद्ध हो जायेगा और कीटाणुओं के नष्ट हो जाने से हर व्यक्ति रुग्ण नहीं दिखलाई देगा। वायु मण्डल का शुद्ध हो जाना व्यक्ति तथा समाज के आर्थिक बोझ को हल्का करता है।
(ख) हवन द्वारा वैयक्तिक तथा सामाजिक रोगों को दूर करना
यह तो हम देख ही चुके हैं कि हवन से वायुमण्डल शुद्ध होता है जो थोड़ा बहुत कार्बन 1 डाय- ऑक्साइड पैदा होता है, उसका सुगन्धित द्रव्यों के जलने से भरपूर प्रतिकार हो जाता है। इसके अतिरिक्त अग्निहोत्र का दूसरा लाभ यह है कि अग्नि के जलने तथा औषधियों के अग्नि द्वारा परमाणुओं में विभक्त हो जाने से उनके रोगों के नाशक तत्त्व हमारे घर के छोटे-से-छोटे छिद्रों में जाकर रोगजनक कीटाणुओं का नाश कर देते हैं। सामग्री में जितनी औषधियाँ पड़ती हैं सब कीटाणुनाशक हैं। शंका करनेवाला कह सकता कि कीटाणुओं के नाश के लिये फिनाइल का प्रयोग क्यों न कर लिया जाय ? ठीक है, अगर फिनाइल तथा एण्टी-सेप्टिक पदार्थ मुफ्त में बँटते हों, तब बात दूसरी है, उनका खर्च तो काष्ठौषधियों से ज्यादा पड़ जाता है। इसके अतिरिक्त अग्निहोत्र तो एक धार्मिक संस्कार है, जो प्रतिदिन वैदिकधर्मी को धार्मिक तौर पर प्रातः सायं करना होता है। मनुष्य का ऐसा स्वभाव है कि धर्म के साथ जो बात जुड़ जाती है, उसे वह नैत्यिक कर्म के रूप में करने लगता है, अन्यथा उसे करने में तर्क-वितर्क में उलझा रहता है। अगर फिनाइल ही डालनी है, तो रोज क्यों डाली जाए, जब जरूरत हो तब ही उसका प्रयोग क्यों न किया जाय। ऐसी हालत में जब घर में रोग आ ही बैठता है तब फिनाइल की सूझती है। अगर फिनाइल को रोज-रोज ही डालना है, अगर फिनाइल का यज्ञ ही करना है, तो इस बदबूदार वस्तु की अपेक्षा उन औषधियों का अग्निहोत्र के रूप में प्रयोग क्यों न किया जाय तो कीटाणुओं को भी नष्ट कर देती हैं और साथ ही घर भर को सुगन्धि से भर देती हैं ?जैसे अग्निहोत्र द्वारा व्यक्ति अपने घर के रोगों को दूर कर सकता है, वैसे इससे समाज में पनप रहे अन्य रोग भी नष्ट हो जाते हैं रोग के कीटाणु सिर्फ वे नहीं हैं जो हमारे घर में मौजूद हैं या आ गये हैं हमारी तरह अन्य लोगों के घरों में अपनी अपनी तरह के रोग, अपनी-अपनी तरह के कीटाणु हैं। अगर हर घर में कीटाणुनाशक औषधियोंसे हवन होंगे, तो हमारे ही नहीं, समाज भर के सभी प्रकार के कीटाणु नष्ट हो जायेंगे। इस प्रकार हमारा ही भला नहीं होगा, समाज-भर का भला होगा।
(ग) हवन द्वारा रोग के कीटाणुओं के नष्ट होने के परीक्षण
डॉ० फुन्दन लाल एम०डी० ने 'यज्ञ चिकित्सा' नामक एक ग्रन्थ १९४९ में जबलपुर से प्रकाशित किया था। वे ऐलोपैथिक डॉक्टर थे, परन्तु सब कुछ छोड़कर क्षय रोग की यज्ञ द्वारा चिकित्सा करने में जुट गये थे। उन्होंने जबलपुर में एक टी०बी० सैनिटोरियम भी खोला था। उन्होंने यज्ञ की गैस के सम्बन्ध में कुछ परीक्षण किये थे। 'यज्ञ चिकित्सा' नामक ग्रन्थ १९३ पृष्ठ पर वे लिखते हैं-"काँच की १२ शीशियाँ ली गई और वैज्ञानिक रीति से उन्हें नितान्त शुद्ध कर लिया गया तथा उनके कृमि इत्यादि सब निकाल दिये गये । उसके पश्चात् दो-दो शीशियों में दूध, मांस इत्यादि ६ वस्तुएँ भरी गई अब ६ शीशियों को एक और और ६ शीशियों को दूसरी ओर रख दिया गया। उनमें से एक ओर वाली शीशियों में हवन - गैस पहुँचाई गई और दूसरी ओर की शीशियों में उद्यान की शुद्ध वायु भर दी गई। शीशियाँ बन्द करके रख दी गईं और नित्यप्रति उनका निरीक्षण करते रहे। परिणाम यह निकला कि जिन शीशियों में उद्यान की वायु थी उनमें सडांद शीघ्र प्रारम्भ हुआ और शीघ्रतापूर्वक बढ़ रहा था। इसके विपरीत जिन शीशियों में हवन गैस पहुँचायी गई थी, उनमें सड़ांद देर से प्रारम्भ हुआ और शनैः-शनैः बढ़ता रहा, जिसका मतलब साफ है कि हवन- गैस ओषजन - युक्त उद्यान की शुद्ध वायु से भी सड़ाद को अधिक रोकती है। यह परीक्षण हवन की साधारण सामग्री से किया गया था। जब क्षय-नाशक विशेष सामग्री बनाई जाय, तो उसका प्रभाव उन सड़े हुए फेफड़ों पर और अच्छा होगा जो क्षय रोग के कीटाणुओं के कारण सड़ने लगते हैं। साथ ही यह परीक्षण यह भी सिद्ध करता है। कि जो लोग नित्यप्रति हवन करते हैं, उनके शरीर में इस प्रकार के रोग उत्पन्न ही नहीं हो सकते, जिनमें किसी भीतरी स्थान में पीप उत्पन्न हो और यदि कहीं उत्पन्न हो तो नित्यप्रति हवन-गैस पहुँचाने से मवाद तुरन्त सूख जायेगा और क्षत अच्छा हो जायेगा। "
" इसके अतिरिक्त एक और परीक्षण किया गया। हवन गैस को पानी में मिलाकर उससे बाहर के सड़े-गले क्षत धोये गये इसका परिणाम यह हुआ कि पहले किसी-किसी क्षत से पीप अधिक निकली, फिर क्षत बहुत शीघ्र भर कर सूख गया। पहले बहुत अधिक पीप आने का कारण यह था कि भीतर का गहराई तक का पीप बाहर निकल आया और फिर क्षत भर गया।"
(घ) हवन द्वारा वृष्टि की कमी को दूर करना -
हवन द्वारा वायु शुद्ध होती है, रोग के कीटाणुओं का नाश होता है-हवन के इन दो लाभों के अलावा इसका तीसरा लाभ अनावृष्टि के समय वृष्टि की कमी को दूर करना है। यज्ञ में घी का प्रयोग वर्षा लाने में कैसे सहायक बनता है इस सम्बन्ध में श्रीयुत् आत्मारामजी ने - १९२४ में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'संस्कार चन्द्रिका' में लिखा है-" घी के अणु वर्षा बरसाने में अपूर्व साधन हैं पानी और घी दो ऐसे पदार्थ हैं, जो सर्दी में जम जाते हैं और गर्मी से पिघल जाते हैं जिस सर्दी में पानी नहीं जमता, उसमें घी जम जाता है। हवन में जब घी के अणु सूक्ष्म होकर ऊपर चढ़ते हैं, तो वायु में डोलनेवाले बादलों के तल के पास ही पहुँचकर स्वयं जम जाने से उनको भी जमाने और बरसाने का काम देते हैं। पश्चिमीय वैज्ञानिक कहते हैं कि बादलों के नीचे के भाग, अर्थात् तल में यदि कृत्रिम रीति से सर्दी पहुँचायी जा सके, तो बादल बरस सकता है।"
इसका अभिप्राय यह हुआ कि घी के परमाणु जब आसमान में चढ़कर बादलों के तले में पहुँचते हैं तब वहाँ की ठण्ड के कारण वे जम जाते हैं। घी के परमाणुओं के जमने के कारण उनके साथ सम्पर्क में आनेवाले बादलों के वाष्प के कण भी घी के ठण्डे परमाणुओं की वजह से भाप की जगह पानी बन जाते हैं और बरस पड़ते हैं आसमान में हर समय भाष के रूप में पानी रहता ही है, यज्ञ द्वारा आसमान में चढ़ने वाले घी के परमाणु घी होने के कारण वहाँ की ठण्ड से जम जाते हैं और साथ लगी सारी वाष्प को ठण्डा कर देते हैं। वाष्प के ठण्डा होने का अर्थ है - पानी का बरस पड़ना, इस प्रकार हवन वर्षा लाने में सहायक है। ऊपर हमने अग्निहोत्र के जिन चार उद्देश्यों का जिक्र किया उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि अगर अग्निहोत्र से ये चार लक्ष्य पूर्ण हो जाते हैं, तो इस पर व्यक्ति तथा समाज का जो आर्थिक व्यय होगा उसकी तुलना में व्यक्ति तथा समाज को स्वास्थ्य तथा अन्य दृष्टियों से आर्थिक लाभ बहुत अधिक होगा।
हवन की सामग्री के सम्बन्ध में विचार
ऋषि दयानन्द ने तीसरे समुल्लास में हवन की वैज्ञानिकता पर विचार करते हुए प्रश्नकर्त्ता को उत्तर दिया है - " जो तुम पदार्थ-विद्या जानते तो कभी ऐसी बात न कहते, क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता। देखो, जहाँ होम होता है वहाँ से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है, वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने से ही समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म होकर, फैल कर वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है केशर कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और इतर आदि सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु का प्रवेश करा सकें, क्योंकि उनमें भेदक - शक्ति नहीं है, और अग्नि का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकाल कर पवित्र वायु का प्रवेश कर देता है।" इससे आगे चल कर लिखा है- " इसीलिये आर्यवर शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत-सा होम करते और कराते थे। जबतक इस होम करने का प्रचार रहा, तबतक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा हो जाए।"
ऋषि दयानन्द ने प्रत्येक आर्य के लिये सिर्फ अपने घर में ही यज्ञ करने की बात नहीं कही, सार्वजनिक- यज्ञ करने की भी बात कही है। जब घर-घर में नित्य यज्ञ हो और सामूहिक रूप में बड़े-बड़े यज्ञ हों, तब आध्यात्मिक वातावरण ही पवित्र नहीं होता, सम्पूर्ण देश का भौतिक वातावरण भी शुद्ध, पवित्र वायु से भर जाता है। अग्निहोत्र में जो पदार्थ डाले जाते हैं उनपर विचार करने से स्पष्ट हो जाएगा कि वे सूक्ष्म रूप धारण कर किस तरह देश के सम्पूर्ण वायु मण्डल को स्वस्थ बना देते हैं
(१) सुगन्धित द्रव्य - कस्तूरी, केसर, अगर, तगर, चन्दन, जटामांसी, इलायची, तुलसी, जायफल, जावित्री, कपूर व कपूरकचरी, गुग्गुल, नागरमोथा, बालछड़, नर कचूरा, सुगन्धवाला, लवंग, दालचीनी आदि।
(२) उत्तम पदार्थ- शुध्ध घी, दूध, फल, कन्द, चावल, जौं, गेहूँ आदि ।
(३) मधुर पदार्थ - खांड, शहद, किशमिश, छुआरा आदि ।
(४) रोगनाशक औषधियाँ - गिलोय आदि ।
(५) समिधा - आम, बबूल, बरगद, गूलर, नीम, अशोक, पीपल, पलाश, चन्दन, देवदार आदि ।
सुगन्धित द्रव्यों के सम्बन्ध में विचार
केसर के विषय में पं० आत्माराम जी अमृतसरी अपनी पुस्तक 'संस्कारचन्द्रिका' में लिखते हैं-" जब मद्रास में प्लेग फैल रहा था तब डॉ० किंग आई०एम०एस० ने हिन्दू विद्यार्थियों को उपदेश दिया था कि यदि तुम घी और केसर से हवन करो, तो महामारी (प्लेग) का नाश हो सकता है।" आगे वे लिखते हैं-" श्वेत चन्दन का तेल निकाल कर सुजाक तथा आतशक जैसे भयङ्कर रोगों में उनके विष का निवारण करने के लिये अमरीका के कई डॉक्टर तथा भारत के वैद्य उसका उपयोग करते हैं। तुलसी के लिये प्रसिद्ध ही है कि यह मलेरिया - दोष को दूर करता है। पंढरपुर में विठोवा के मन्दिर के आस-पास इतनी तुलसी लगी है कि वहाँ मलेरिया नहीं होता।"
उत्तम पदार्थों के सम्बन्ध में विचार
घी, दूध, फल आदि द्रव्यों के सम्बन्ध में विचार श्री आत्माराम जी आगे लिखते हैं- "घृत, दूध, फल, कन्द आदि पुष्टिकारक पदार्थ हैं। सुगन्धित तथा पुष्टिकारक पदार्थ यदि बिना घृत मिलाये अग्नि में जलाये जायें, तो उनकी सुगन्धि तथा पुष्टि में तीव्रता और सूखापन होने से जुकाम आदि रोग उत्पन्न हो सकते हैं, परन्तु जिस समय उनमें घृत मिलाया जाता है, उस समय जुकाम आदि किसी प्रकार के रोग का भय नहीं रहता और सुगन्धि की तीव्रता मर्यादा में आ जाती है। घी का दूसरा अपूर्व गुण यह है कि यह विषनाशक पदार्थ है। इसके अतिरिक्त यह अग्नि प्रदीप्त करता है। दूध, बादाम, केला, नासपाती, सेव, नारियल का तेल आदि पुष्टिकारक वस्तुएँ हैं, जिनके जलाने से मिष्ट के अणु वायु में फैल कर जहाँ अनेक रोगों को दूर करते हैं वहाँ पुष्टि भी करते हैं ।"
मधुर पदार्थों के सम्बन्ध में विचार
"गुड़, शक्कर, शहद, छुहारे, दाख आदि मधुर पदार्थ हैं। सगुन्धित पदार्थों के साथ सृष्टि में मिठास भी रहता है। सुगन्धित पुष्पों पर मधुमक्खी फूलों की मिठास को लेने आती है। गुड़, खांड, मिश्री के जलने से मन्द मन्द मीठी सुगन्धि आती है। जब सुगन्धित, मीठे पदार्थों के साथ घी भी जलता है, तब तो सुगन्धि और भी रोचक हो जाती है। एक विद्वान् ने लिखा था कि आग में शक्कर जलाने से हे फीवर' नहीं होता।"
रोगनाशक औषधियों तथा समिधाओं के सम्बन्ध में विचार
" रोगनाशक औषधियों को आग में डालकर रोगी के रोग नाशतथा रोगाविष्ट वातावरण को शुद्ध करने की प्रथा संसार भर में पायी जाती है। प्लुटार्क का कहना है कि आग से वायु शुद्ध होती है। प्रो० मैक्समूलर लिखते हैं कि बड़े पैमाने में आग जलाने की परिपाटी शताब्दी पूर्व स्काटलैंड में पायी जाती थी। महामारी को दूर करने के लिये आयरलैंड और दक्षिणी अमरीका में अग्नि जलाने की प्रथा भी। जापान में होम को धोम कहते हैं और मन्दिरों में सुगन्धित द्रव्य जलाते हैं। जर्मनी में लेवेण्डर की बत्ती जलाई जाती है। पारसियों के धर्म-मन्दिरों में से हवन की सुगन्ध हर समय उठा करती है। संसार भर में सुगन्धित पदार्थों को अग्नि में डालना उन लोगों के अनुभव पर ही आश्रित है।"
डॉ० सत्यप्रकाश डी० एस सी० ने हवन पर विज्ञान की दृष्टि से अंग्रेजी - में एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है-:अग्निहोत्र या एक प्राचीन प्रदूषण-विरोधी प्रक्रिया (रासायनिक दृष्टिकोण से एक अध्ययन) आप अलाहाबाद विश्व विद्यालय के केमिस्ट्री विभाग के अध्यक्ष थे, अब आप संन्यासी होकर स्वामी सत्यप्रकाशानन्द हो गये हैं। आपने सामग्री का विश्लेषण करते हुए यह पाया कि उसमें ऐसे तत्त्व हैं जिनसे फौरमैल्डीहाइड (Formaldehyde) गैस उत्पन्न होता है। यह गैस बिना परिवर्तित हुए वायु-मण्डल में फैल जाता है। कुछ अंश तक कार्बन डॉय- ऑक्साइड भी फौरमैल्डीहाइड में तबदील हो जाती है। वे लिखते हैं-
" To some extent, even carbon dioxide is also reduced to formaldehyde."
आगे चलकर उक्त पुस्तक के पृष्ट १५३ पर आप लिखते हैं कि १८८६ में ल्यू तथा फिशर (Loew and Fischer) ने यह मालूम किया कि फॉर्मॅल्डीहाइड एक शक्तिशाली कीटाणुनाशक तत्त्व है। अनेक पदार्थों को यह सड़ने से बचा लेता है। बीयर तथा ब्राचेट (Cambier and Brochet) ने परीक्षणों से सिद्ध किया कि इस गैस से घर के गर्दे में से भी कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। स्लेटर तथा रायडिल (Slater and Rideal) ने इसका ४० प्रतिशत घोल बनाकर परीक्षण किया तो पता चला कि टाइफस, बी० कोलाई तथा कोलन के कीटाणु इससे १० मिनट से भी कम समय में नष्ट हो गये और अन्य रोगों के कीटाणु २० या ३० मिनट में नष्ट हो गये। कुछ ऐसे भी परीक्षण किये गये, जिनमें धागों को भिन्न-भिन्न रोगों के कीटाणुओं में सिक्त करके उन्हें कुछ दूरी पर रखकर उनपर फौर्मेल्डीहाइड का वाष्प डाला गया। परिणाम आशातीत तथा आश्चर्यजनक पाया गया। इन धागों पर टाइफस तथा बी० कोलाई के कीटाणुओं का कुछ असर ही नहीं हो सका, क्योंकि इन पर फोर्मेल्डीहाइड का वाष्प अपना प्रभाव कर चुका था । यह बात विशेषरूप से ध्यान देने की है कि फोर्मेल्डीहाइड का प्रभाव तभी होता है जब पानी के वाष्पों का साथ हो, अन्यथा इसका कीटाणुनाशक प्रभाव नहीं होता। यही कारण है कि अग्निहोत्र करते हुए पानी का भरपूर प्रयोग होता है। कभी आचमन किया जाता है, कभी यज्ञ वेदी के चारों तरफ जल-सेचन किया जाता है, कभी शरीर पर जल से छींटे दिये जाते हैं- इस सबका परिणाम यह होता है कि रोगाणुनाशक फोर्मेल्डीहाइड पूर्णरूप से अपना प्रभाव करती है। यह बात ठीक है कि हवन में केवल फोर्मेल्डीहाइड ही नहीं पैदा होता, परन्तु प्रतिदिन के अग्निहोत्र में जिन पदार्थों से यह गैस पैदा होती है और जितनी भी होती है, वह वायुमण्डल को शुद्ध करने तथा उसे कीटाणुरहित करने में पर्याप्त होती है। फोर्मेल्डीहाइड के अलावा सामग्री में विद्यमान पदार्थों से अन्य भी अनेक तत्त्व उत्पन्न होते हैं। उदाहरणार्थ, नारियल आदि के डालने से कुछ तेल वाष्प रूप में निकलते हैं, जिनके विषय में परीक्षणों से सिद्ध हुआ है कि उनके कारण जुएँ नहीं पड़तीं, अगर देर तक तेल की वाष्प में रहें तो मर जाती हैं।
एस० रिडील एण्ड ई० रिडील ने १९२१ में एक ग्रन्थ प्रकाशित किया जिसका नाम था—Chemical Disinfection and Sterilization इस ग्रन्थ में वे लिखते हैं। कि लड़ाई के समय सिपाहियों को देर तक खन्दकों में रहना पड़ता है। वहाँ रहते हुए उन्हें कई कीटाणु आ घेरते हैं। उनसे बचने के लिये ऐसी पेटियों का निर्माण किया गया है, जिनमें तीव्र गन्ध होती है। वे इन पेटियों को अपने-अपने जिस्म से सटाकर बाँध लेते हैं। इनकी गन्ध से खन्दकों के कीटाणु उन पर प्रभाव नहीं करते।
इसमें सन्देह नहीं कि हर प्रकार की सामग्री हर रोग का निवारण नहीं कर सकती, परन्तु अगर अग्नि में औषधियाँ डालने से रोग का प्रतिकार हो सकता है, तो इस बात की गवेषणा करनी होगी कि किस रोग के लिये किन पदार्थों की सामग्री उपयोगी होगी। कहा जाता है कि हवन से फोर्मेल्डीहाइड पैदा होता होगा, गंधवाली गैसें भी पैदा होती होंगी जो कीटाणुनाशक हैं, परन्तु साथ ही कार्बन डाय-ऑक्साइड भी तो पैदा होता है, जो मनुष्य के लिए घातक है। शायद बेचारे कार्बन डायऑक्साइड पर बेकार की बौछार की जाती है। यद्यपि इससे जीवनी-शक्ति को लाभ नहीं पहुँचता, तो भी यह कोई भयानक विष नहीं है। हम रोज सोडा, कोको, लिमका आदि पीते हैं, इनमें कार्बन डाय- ऑक्साइड की गैस ही तो होती है। रसोईघर में हम चूल्हा जलाते हैं, घण्टों वहाँ काम करते हैं। क्या सब लोग रसोईघर में मर जाते हैं ? सच्चाई तो यह है कि आग जलने के समय जो रोगनाशक गैसें उत्पन्न होती हैं, उन्हें उठाकर दूर-दूर तक तथा आसमान में उठाकर चढ़ा देने का काम कार्बन डाय ऑक्साइड ही करता है। अग्नि से उत्पन्न होकर यह इतनी उड़ान भरता है कि प्रायः देखा जाता है कि जब बड़े-बड़े यज्ञ कई दिन तक होते रहते हैं तब यज्ञ - जनित तत्त्वों को यह इतनी ऊँचे उठा ले जाता है कि यज्ञ करते-करते आसमान बादलों से घिर जाता है और वर्षा होने लगती है। यह तो हर किसी के अनुभव की बात है कि जब प्रचण्ड आग लगती है, जंगल के जंगल धधक उठते हैं, टनों कार्बन डाय ऑक्साइड उत्पन्न होता है, तब वर्षा अवश्य आ जाती है।
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