संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर सुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥

Sooraj Krishna Shastri
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   संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है, परंतु उन्होंने (असली बात) कहना नहीं जाना, ।

  क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप अर्थात गर्मी मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं॥ 

  प्राणीमात्र मेरे सखा है। ऐसी भावना बन जाती है, संसार में किसी को वह अपना शत्रु नहीं मानता। प्रत्येक प्राणी में उसे ईश्वर नजर आता है। वह किसी से बैर नहीं करता। अब भोजन करते समय हमारे ही दांतों से हमारी जिह्वा कट गई। अब हम किसे डांटे, किसे मारे; क्योंकि दांत भी हमारा और जिह्वा भी हमारी।

  इसी प्रकार जब संत को कोई कष्ट देता है तो संत कहता है, इसने मुझे कष्ट दिया। पर यह भी तो ईश्वर का अंश है, जो अंश मुझमें है ईश्वर का, वही अंश इसमें भी है। तो सब में ईश्वर का दर्शन करने वाला किसी से बैर कैसे कर सकता है। लेकिन संत हैं कौन? 

 आज कल तो कोई भी गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया तो संत बन गया।

  संतत्व कोई कॉलेज या विश्वविद्यालय की डिग्री नहीं है जो किसी को प्रदान की जाती है, जिसकी जांच करके एक सच्चे संत की पहचान स्थापित की जा सकती है। कलियुग में  संत होने का ढोंग करने वाले इतने ढोंगी हैं कि सच्चे संत की पहचान करना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव हो जाता है।

 भगवान यहां पर संत के लक्षण बताते हैं।

तितिक्षव: कारुणिका: सुहृदः सर्वदेहिनाम्।

आजातशत्रवः शान्ता: साधवः साधुभूषणा:।।

 जो तितिक्षु हो, सहनशील हो, मान अपमान में तुल्य हो। किसी ने माला पहनाया तो खुश नहीं है। किसी ने अपमानित किया तो दुखी नहीं है, उन्हें संत कहते हैं।

एक कहानी के माध्यम से समझते हैं ।

  अयोध्या के एक वैष्णव संत नौका द्वारा सरयू पार करने की इच्छा से घाट पर आए  । 

  वर्षा ऋतु का समय था  सरयू में बाढ़ आई थी घाट पर एक ही नौका थी उस समय और उनमे कुछ ऐसे लोग बैठे थे जैसे लोगों की इस युग में सर्वत्र बहुलता है ।

  किसी को भी कष्ट देने , किसी का परिहास्य करने में उन्हें आनंद आता था ।  साधुओं से तो वैसे ही उन्हें चिढ़ थी ।

  कोई साधु उनके साथ नौका में बैठे यह उनको पसंद नहीं था , उनको देखते ही कहने लगेे यहां  स्थान नहीं है दूसरी नौका से आना सब का स्वर एक जैसा बन गया ।

   साधु पर व्यंग भी कैसे गये लेकिन साधु को पार जाना था नौका दूसरी थी नहीं , संध्या हो चुकी थी और रात्रि मैं कोई नौका मिल नहीं सकती थी। 

    उन्होंने नम्रता से प्रार्थना की तो मल्लाह ने कहा एक और बैठ जाइए , नौका में पहले से बैठे अपने को सुसभ्य मानने वाले लोगों को झुंझलाहट तो बहुत हुई किंतु साधु को नौका में बैठने से वे रोक नहीं पाए ।

   अपना क्रोध उन्होंने साधु पर उतारना प्रारंभ किया साधु पहले से नौका के एक किनारे पर संकोच से बैठे थे उन पर व्यंग कैसे जा रहे थे इसकी इन्हें चिंता नहीं थी , वह चुपचाप भगवान का नाम जप करते रहे , नौका तट से दूर पहुंची किसी ने साधु पर जल उलीचा , किसी ने उनकी पीठ और गर्दन में हाथ से आघात किया , इतने पर भी जब साधु की शांति भंग नहीं हुई तो उन लोगों ने धक्का देकर साधु को बीच धारा में गिरा देने का निश्चय किया ।

   वह धक्का देने लगे सच्चे संत की क्षमा अपार होती है , किंतु जो संतों के सर्वस्व हैं विश्वसमर्थ हैं वे जगनायक अपने जनों पर होते अत्याचार को चुपचाप से नहीं सह पाते , साधु पर होता हुआ अत्याचार  सीमा पार कर रहा था , आकाशवाणी सुनाई पड़ी ! महात्मन् आप आज्ञा दें तो इन दुष्टों को क्षण  भर में भस्म कर दिया जाए ।

   आकाशवाणी सब ने स्पष्ट सुनी अब ( काटो तो खून नहीं ) अभी तक जो शेर बने हुए थे उनको काठ मार गया जो जैसे थे वैसे ही रह गए भय के मारे दो क्षण  उनसे हिला तक नहीं गया ।

 लेकिन साधु ने दोनों हाथ जोड़ लिए थे वे गदगद स्वर में कह रहे थे -

मेरे दयामय स्वामी आपके ही यह अबोध बच्चे हैं ।

  आप ही इनके अपराध क्षमा ना करेंगे तो कौन क्षमा करेगा , यह भूले हुये हैं आप इन्हें क्षमा करें  और यदि मुझ पर आपका स्नेह है तो मेरी यह प्रार्थना स्वीकार करें कि इन्हें सद्बुद्धि प्राप्त हो ।  इनके दोष दूर हों ।

  आपके श्री चरणों में इन्हें  अनुराग प्राप्त हो। न तो संत आशीर्वाद देते हैं और न ही संत किसी को श्राप देते हैं।

गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।

   जो स्वस्थ (स्वरूप में स्थित), सुख-दु:ख में समान रहता है तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समदृष्टि रखता है; ऐसा  पुरुष प्रिय और अप्रिय को तथा निन्दा और आत्मस्तुति को तुल्य समझता है।।

कृपालु महाराज जी कहते हैं कि -

बुधो बालवत् क्रीडेत् कुशलो जड़वच्चरेत् ।

वदेदुन्मत्तद् विद्वान् गोचर्याँ नैहमश्चरेत् ॥

  संत पूर्ण ज्ञान होते हुए भी बालक के समान सरल और भोला होता है। वह प्रशंसा और निंदा दोनों में समभाव रखता है।

 सभी विषयों में निपुण होने के बावजूद, वह एक पागल व्यक्ति का रूप धारण कर सकता है।

  एक सक्षम विद्वान होने के बावजूद वह एक असभ्य व्यक्ति की तरह व्यवहार कर सकता है, जो व्यवहार के सभी सामाजिक मानदंडों को अस्वीकार कर सकता है। भागवत कहता है -

क्वचिद् रुदत्यचुतचिंतया क्वचिद्ध-

सन्ति नंदंति वदन्त्यलौकिकाः ।

नृत्यन्ति गायन्त्यनिशीलन्त्यजन् 

भवन्ति तूष्णीं परमेत्य निर्वृताः ॥

  दिव्य प्रेम-सुख में मदहोश और डूबे हुए वे कभी परमानंद में रोते हैं, कभी हँसते रहते हैं और कभी-कभी कुछ अस्पष्ट-सी बात कह देते हैं और अति प्रसन्न हो जाते हैं। कभी-कभी वे दुनिया के बाकी हिस्सों से बेखबर होकर नाचते-गाते हैं और कभी-कभी चुप हो जाते हैं।"

  चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रभावित करने वाले भी निश्चित रूप से संत नहीं होते हैं। इतिहास सिद्ध करता है कि सूरदास, तुलसीदास, नानक, तुकाराम, चैतन्य महाप्रभु आदि संतों ने लोगों को प्रभावित करने के लिए कभी चमत्कार नहीं दिखाया। यदि उन्होंने कभी कोई चमत्कार किया तो वह चमत्कार केवल अपने प्रिय भक्तों को बचाने के लिए था। लेकिन धोखेबाज जनता को प्रभावित करने के लिए जानबूझकर चमत्कार दिखाते हैं। उन सभी चमत्कारों के पीछे लक्ष्य कुछ स्वार्थी मकसद है और भगवान में कोई भक्ति या रुचि नहीं दर्शाता है।

बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।

अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥

   मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।

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