पहला साहस तो भीतर की यात्रा है। क्योंकि बाहर की यात्रा सुगम है। सारी इंद्रियां बाहर की ओर खुलती हैं। याद करो सुंदरदास को, कहा कि सारी इंद्रियां बाहर की तरफ खुलती हैं, सो बाहर की यात्रा सुगम है।
कोई कहे बाहर देखो तो कोई अड़चन नहीं आती; जब कोई कहता है भीतर देखो तो अड़चन शुरू होती है, भीतर कैसे देखें ???
आंख तो बाहर देखती है। और भीतर आंख देखती है, वह तो हमारी अभी खुली नहीं; वह तो हमारी बंद है। वहां तो हम अभी अंधे हैं।
कान बाहर का संगीत सुन लेते हैं। और जब कोई कहता है सुनो भीतर के अनहद-नाद को, तो हम भौंचक्के खड़े रह जाते हैं। कैसा अनहद नाद ???
भीतर का कान तो अभी सक्रिय नहीं हुआ।
बाहर की यात्रा सुगम है, क्योंकि और सारे लोग भी उसी यात्रा में संलग्न हैं। भीड़ जा रही, हम भी चल पड़ते हैं।
भीतर की यात्रा में अकेले चलना होगा। वहां न कोई संगी है न कोई साथी। भय पकड़ता है। एकांत में आदमी कितना डरता है!
अपने ही घर में जिस दिन तुम अकेले होते हो, डर खाने लगता है। लोग-बाग होते हैं, बात-चीत होती है, शोर-गुल होता, सब ठीक मालूम पड़ता है। सन्नाटा हो जाए कि भय पकड़ता है। और यह सन्नाटा कुछ भी नहीं है।
जब तुम भीतर की तरफ मुड़ोगे, तब तुम जानोगे पहली बार कि सन्नाटा क्या है! क्योंकि बाहर तो जो सन्नाटा है वह भी किसी-न-किसी तरह के शोरगुल से भरा होता है। गहरी से गहरी सन्नाटे से भरी रात में भी आवाजें होती हैं। सन्नाटा भी एक आवाज है, शांति नहीं है। शायद झींगुर ही बोल रहे हों, लेकिन पूरी रात हजारों तरह की आवाजों से भरी होती है।
जब तुम भीतर जाओगे तब तुम पहली दफा पाओगे, शून्य क्या है ???
मौन क्या है ???
गलने लगोगे, पिघलने लगोगे, भागने लगोगे। लौटने लगोगे बाहर कि लौट चलो, जल्दी करो, बाहर निकलो। दम घुटने लगेगा। और दम जिसका घुटता है वह तुम नहीं हो, तुम्हारा अहंकार है।
जो बाहर जी सकता है, भीतर मरता है। जो बाहर ही जी सकता है।
जैसे ही भीतर जाओगे, उतने अकेले होने लगोगे।
संसार छूटेगा, लोग छूटेंगे, विचार छूटेंगे, संस्कार छूटेंगे; अंततः तुम्हारे हाथ में रहेगा जो, वह होगा निपट कोरा आकाश. . .।
उसे हम समाधि कहते हैं। उसे हम सबसे बड़ी संपदा कहते हैं। लेकिन उसमें तुम नहीं रहोगे। तुम, जैसा तुमने अपने को जाना, वैसे नहीं रहोगे। वह अहंकार, तुम्हारी धारणा कि "मैं ऐसा, मैं वैसा' सब चली जाएगी, सब बह जाएगी . . .। आएगी बाढ़ समाधि की और सब कूड़ा-करकट ले जाएगी।
कुछ होगा जो बिल्कुल नया होगा, अपरिचित होगा, अनजाना होगा, जिसका तुमने कभी सपना भी नहीं देखा, जिसकी शास्त्रों में चर्चा भी नहीं हो सकी है। चर्चा हो ही नहीं सकती उसकी। ज्ञानियों ने कहना चाहा है, हार गए कह-कह कर, नहीं कह पाए हैं उसको ।
अनकहा रह गया है। जाना तो जाता है, लेकिन कहा नहीं जाता है--अनभिव्यक्त, अव्याख्य . . . ।
तो दम घुटने लगता है भीतर जाने में। जल्दी से लौटकर आदमी बाहर आ जाता है। फिर वही पुराने सरंजाम में लग जाता है।
धार्मिक व्यक्ति कौन है ???
जो इस महत् संघर्ष में उतरता है। जो अपने को बलिदान करता है, जो अपने को कुरबान करता है। जो कहता है, चाहे मिट जाऊं, मगर अब कूड़े-करकट से राजी न रहूंगा।
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