मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥ सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥

Sooraj Krishna Shastri
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भगवान कहते हैं कि यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। (इसमें) अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं, क्योंकि सभी मेरे उत्पन्न किए हुए हैं। (किंतु) मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे लगते हैं॥

लेकिन आज दुनिया में सबसे दुखी कोई प्राणी है तो वह है मनुष्य, जाति, धर्म आदि कुचक्रों में जकड़ा हुआ। आज की जरूरत है कि जाति पाति से उपर उठकर एक होने की। आज जाति पाति के चक्कर में हमारे सनातन धर्म पर खतरा मंडरा रहा है -

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।

तस्य कर्तारामपि मां विद्ध्यकर्तारामव्ययम्॥

भौतिक ऊर्जा तीन गुणों (विधाओं) से बनी है: सत्व गुण (सद्गुण), रजो गुण (जुनून का गुण), और तमो गुण (अज्ञान का गुण)। ब्राह्मण वे हैं जिनमें सद्गुण की प्रधानता है। वे शिक्षण और पूजा की ओर प्रवृत्त होते हैं। क्षत्रिय वे हैं जिनमें रजोगुण की प्रधानता है और साथ ही सद्गुण की थोड़ी मात्रा भी है। वे प्रशासन और प्रबंधन की ओर प्रवृत्त होते हैं। वैश्य वे हैं जिनमें रजोगुण के साथ-साथ कुछ अज्ञान का गुण भी होता है। तदनुसार, वे व्यापारी और कृषि वर्ग बनाते हैं। फिर शूद्र हैं, जिनमें अज्ञान का गुण प्रबल है। वे श्रमिक वर्ग बनाते हैं। यह वर्गीकरण न तो जन्म के अनुसार था, न ही यह अपरिवर्तनीय था। श्री कृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि वर्णाश्रम व्यवस्था का वर्गीकरण लोगों के गुणों और कार्यों के अनुसार था।

यद्यपि ईश्वर संसार की योजना का रचयिता है, फिर भी वह अकर्ता है। यह वर्षा के समान है। जिस प्रकार वर्षा का जल वन में समान रूप से गिरता है, फिर भी कुछ बीजों से विशाल बरगद के वृक्ष उगते हैं, अन्य बीजों से सुन्दर फूल खिलते हैं, तथा कुछ बीजों से काँटेदार झाड़ियाँ निकलती हैं। वर्षा, जो निष्पक्ष है, इस अंतर के लिए उत्तरदायी नहीं है। उसी प्रकार ईश्वर आत्माओं को कर्म करने की शक्ति प्रदान करता है, परन्तु वे यह तय करने के लिए स्वतंत्र हैं कि वे उससे क्या करना चाहते हैं; ईश्वर उनके कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं है।

सर्वभूतेषु चात्मा नं, सर्वभूतानि चात्मनि।

समं पश्यति आत्मयाजी, स्वाराज्यमधि गच्छति॥

जो सब प्राणियों में अनेकों और सब प्राणियों को अपने में देखता है वही मोक्ष को प्राप्त करता है।

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् ।

क्षत्रियाज् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च ॥

श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ कर्मों के अनुसार ही शुद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है अर्थात् गुणकर्मों के अनुकूल ब्राह्मण हो तो ब्राह्मण रहता है तथा जो ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के गुण वाला हो तो वह क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हो जाता है । वैसे शूद्र भी मूर्ख हो तो वह शूद्र रहता और जो उत्तम गुणयुक्त हो तो यथायोग्य ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है यही सिद्धांत क्षत्रिय और वैश्य पर भी लागू होता है -

जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते॥ 

यानि जन्म से सभी मनुष्य शूद्र हैं -

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती।

सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥

मनुष्यों की एक ही जाति है, मानव जाति. व्यक्ति के संस्कार और उसके कर्म ही उसे मानव अथवा पशु अथवा राक्षस बनाते हैं. राक्षस कोई विशेष जाति नहीं है. मनुष्य कर्मों को सोच-विचार करके करता है. पशु अपनी इच्छा के अनुसार मनुष्यता के बिना सोच-विचार किये कर्म किया करता है परन्तु शिक्षित, बुद्धिमान और ज्ञानी होते हुए भी, एक कर्महीन दुश्चरित्र की भाँती कार्य करता है. रावण के सम्पूर्ण वंश पर विचार करे तो ताड़का, मारीच, खर-दूषण, सुपर्णा आर्थत स्रूपनखा, मेघनाथ, अहिरावण, कुम्भकर्ण और रावण अपनी राक्षसिय प्रवृति के कारण राक्षस माने जाते है, जबकि उनका अपने घातक, कुबेर और विभीषण उनके वंश के होते हुए भी राक्षसीय पर्वृति को नहीं रखते थे और मानवीय कार्यों के कारण ही मानव माने जाते है।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

अर्थात, ‘जो मुझको (अपने-आपको) सर्वत्र देखता है तथा जो सबको मुझमें (अपने-आप ही में) अवस्थित देखता है, न तो उसके अस्तित्व मैं नष्ट होने देता हूँ और न ही वह मुझे (अपनी निज आत्मा/ परमात्मा को) नष्ट होने देता है।


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