मन्त्र 9 (ईशावास्य उपनिषद)

Sooraj Krishna Shastri
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मन्त्र 9 (ईशावास्य उपनिषद)
मन्त्र 9 (ईशावास्य उपनिषद)

मन्त्र 9 (ईशावास्य उपनिषद)


मूल पाठ

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः।


शब्दार्थ

  1. अन्धम् तमः: घोर अंधकार।
  2. प्रविशन्ति: प्रवेश करते हैं।
  3. ये: जो।
  4. अविद्याम्: अज्ञान (कर्मकांड या केवल भौतिक ज्ञान)।
  5. उपासते: उपासना करते हैं (पालन करते हैं)।
  6. ततः भूयः इव: उससे भी अधिक गहरा।
  7. ते तमः: वे अंधकार।
  8. यः: जो।
  9. विद्यायाम्: ज्ञान (आध्यात्मिक ज्ञान)।
  10. रताः: लीन रहते हैं।

अनुवाद

जो लोग अविद्या (अज्ञान) का पालन करते हैं, वे अंधकार में प्रवेश करते हैं। लेकिन जो केवल विद्या (आध्यात्मिक ज्ञान) में लीन रहते हैं, वे उससे भी अधिक गहरे अंधकार में चले जाते हैं।


व्याख्या

यह मन्त्र विद्या (ज्ञान) और अविद्या (अज्ञान) के महत्व और उनके असंतुलित अभ्यास से होने वाले परिणामों की चर्चा करता है।

  1. अविद्या का अर्थ:
    अविद्या से तात्पर्य कर्मकांड, भौतिक ज्ञान, या सांसारिक गतिविधियों तक सीमित रहना है। जो लोग केवल भौतिक सुख या कर्मकांड का पालन करते हैं, वे आत्मज्ञान से वंचित रह जाते हैं और अज्ञान के अंधकार में चले जाते हैं।

  2. विद्या का अर्थ:
    विद्या का अर्थ है आध्यात्मिक ज्ञान, ध्यान, और आत्मा के सत्य को जानने की प्रक्रिया। लेकिन जो लोग केवल आत्मज्ञान में लीन होकर संसारिक कर्तव्यों को छोड़ देते हैं, वे भी अंधकार (असंतुलित जीवन) का सामना करते हैं।

  3. असंतुलन का परिणाम:

    • केवल अविद्या (कर्मकांड) का अनुसरण करने से व्यक्ति आत्मा के सत्य को नहीं जान पाता।
    • केवल विद्या (ज्ञान) में लीन रहने से व्यक्ति संसार के कर्तव्यों और भौतिक जीवन की आवश्यकताओं को अनदेखा कर देता है।
    • दोनों का असंतुलन व्यक्ति को अंधकार में डालता है।
  4. संतुलन की आवश्यकता:
    इस मन्त्र में विद्या (ज्ञान) और अविद्या (कर्म) दोनों का संतुलन बनाए रखने पर जोर दिया गया है। केवल ज्ञान या केवल कर्म पर्याप्त नहीं हैं; दोनों का सामंजस्य ही जीवन को पूर्णता देता है।


आध्यात्मिक संदेश

  • कर्म और ज्ञान का सामंजस्य: जीवन में भौतिक कर्तव्यों (कर्म) और आत्मिक जागरूकता (ज्ञान) के बीच संतुलन आवश्यक है।
  • एकांगी दृष्टिकोण से बचाव: केवल भौतिक या आध्यात्मिक किसी एक मार्ग पर चलना जीवन को अधूरा बनाता है।
  • आध्यात्मिक संतुलन का महत्व: व्यक्ति को संसारिक जीवन में रहते हुए आत्मा की सच्चाई को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए।

आधुनिक संदर्भ में उपयोग

  • यह मन्त्र सिखाता है कि भौतिकता और आध्यात्मिकता में संतुलन बनाए रखना जीवन को समृद्ध और पूर्ण बनाता है।
  • केवल भौतिक सुखों की लालसा या केवल ध्यान और साधना में लीन होना, दोनों ही जीवन को अधूरा बना देते हैं।
  • अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, आत्मा के सत्य को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए।

विशेष बात

यह मन्त्र हमें आत्म-जागरूकता और संतुलित जीवन जीने की प्रेरणा देता है। कर्म और ज्ञान, दोनों का समन्वय ही सही मार्ग है।

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