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भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)।यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ हिन्दी अनुवाद क्रमशः है

 

भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
यह चित्र भगवान नारायण को दो हाथों के साथ दर्शाता है, जिसमें वह शंख और चक्र धारण किए हुए हैं। उनका रूप शांतिपूर्ण और दिव्य है, और वह एक स्वर्णिम सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके चारों ओर दिव्य प्रकाश और सौम्य आकाशीय ऊर्जा है।


भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ हिन्दी अनुवाद क्रमशः प्रस्तुत किया गया है।

॥ श्रीशुक उवाच ॥


श्लोक 1:

आत्ममायामृते राजन् परस्यानुभवात्मनः।
न घटेतार्थसम्बन्धः स्वप्नद्रष्टुरिवाञ्जसा॥

अनुवाद:
हे राजा! आत्मा की माया से मुक्त होकर, अन्य किसी के अनुभव से आत्मा का संबंध नहीं हो सकता, जैसे स्वप्न में देखने वाले का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता।


श्लोक 2:

बहुरूप इवाभाति मायया बहुरूपया।
रममाणो गुणेष्वस्या ममाहमिति मन्यते॥

अनुवाद:
भगवान की माया के प्रभाव से यह संसार बहुरूप जैसा प्रतीत होता है, और इसके गुणों में रमते हुए व्यक्ति यह सोचता है कि यह वही है, वह है, और "मैं हूं" यही उसका भ्रम है।


श्लोक 3:

यर्हि वाव महिम्नि स्वे परस्मिन् कालमाययोः।
रमेत गतसम्मोहः त्यक्त्वोदास्ते तदोभयम्॥

अनुवाद:
जो व्यक्ति अपनी माया में लीन होकर समय और काल के प्रभाव में व्यस्त रहता है, वह अपनी वास्तविकता को जानकर सभी भ्रमों को छोड़ देता है और केवल उस परम तत्व का ध्यान करता है।


श्लोक 4:

आत्मतत्त्वविशुद्ध्यर्थं यदाह भगवानृतम्।
ब्रह्मणे दर्शयन् रूपं अव्यलीकव्रतादृतः॥

अनुवाद:
भगवान ने आत्मतत्त्व की शुद्धता के लिए सत्य रूप में वचन दिया और ब्रह्म का दर्शन कराया, जो पूर्ण रूप से निराकार और अव्यय है।


श्लोक 5:

स आदिदेवो जगतां परो गुरुः।
स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत।
तां नाध्यगछ्रद्दृशमत्र सम्मतां।
प्रपञ्चनिर्माणविधिर्यया भवेत्॥

अनुवाद:
आदिदेव भगवान ने इस संसार के पालन के लिए गुरु के रूप में अवतार लिया और स्वधाम में निवास करते हुए संसार के निर्माण के लिए प्रेरित किया।


श्लोक 6:

स चिन्तयन् द्व्यक्षरमेकदाम्भसि।
उपाशृणोत् द्विर्गदितं वचो विभुः।
स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं।
निष्किञ्चनानां नृप यद्धनं विदुः॥

अनुवाद:
भगवान ने द्वाक्षर के मंत्र का चिंतन करते हुए, पहले शब्दों को सुना, फिर उनका गहरा अर्थ समझा और 16 और 21 के अनुसार धन के साधन और ज्ञान को स्वीकार किया।


श्लोक 7:

निशम्य तद्वक्तृदिदृक्षयादिशो।
विलोक्य तत्रान्यदपश्यमानः।
स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितं।
तपस्युपादिष्ट इवादधे मनः॥

अनुवाद:
भगवान ने उस वक्तव्य को सुनकर, जिसे दूसरे लोग सुन रहे थे, उन्होंने वहां ध्यान लगाकर उस वक्तव्य के उद्देश्य को समझा और उसी के अनुसार मन को स्थिर किया।


श्लोक 8:

दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो।
जितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रियः।
अतप्यतस्माखिललोकतापनं।
तपस्तपीयांस्तपतां समाहितः॥

अनुवाद:
भगवान ने अपने दिव्य रूप से हजारों वर्षों के पापों को नष्ट किया। उन्होंने अपने आत्मा से सभी इंद्रियों पर विजय प्राप्त की और समग्र लोकों को तपस्या द्वारा शांति प्रदान की।


श्लोक 9:

तस्मै स्वलोकं भगवान् सभाजितः।
सन्दर्शयामास परं न यत्परम्।
व्यपेतसङ्क्लेशविमोहसाध्वसं।
स्वदृष्टवद्भिः विबुधैरभिष्टुतम्॥

अनुवाद:
भगवान ने अपने धाम का दर्शन कराया, जहां कोई भ्रम और संक्लेश नहीं था। वह स्थान देवताओं द्वारा पूजित है, और वहां भगवान की महानता को समझने वाले संत व भक्तों ने उसकी प्रशंसा की।


श्लोक 10:

प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयोः।
सत्त्वं च मिश्रं न च कालविक्रमः।
न यत्र माया किमुतापरे हरेः।
अनुव्रता यत्र सुरा सुरार्चिताः॥

अनुवाद:
वह स्थान जहां माया का प्रभाव नहीं होता, जहां गुणों का मिश्रण और काल का प्रभाव नहीं होता, और जहां भगवान हरे के दर्शन से सुख प्राप्त करने वाले सुर और असुर सभी एक समान होते हैं।


श्लोक 11:

श्यामावदाताः शतपत्रलोचनाः।
पिशङ्गवस्त्राः सुरुचः सुपेशसः।
सर्वे चतुर्बाहव उन्मिषन्मणि।
प्रवेणिष्काभरणाः सुवर्चसः॥

अनुवाद:
भगवान के भक्त, जिनकी आंखों में सौंदर्य और कांति थी, पीले वस्त्रों में सुंदर दिखते थे, उनके चारों हाथों में मणियों के आभूषण और उनके अंगों में दिव्य चमक थी।


श्लोक 12:

भ्राजिष्णुभिर्यः परितो विराजते।
लसद्विमानावलिभिर्महात्मनाम्।
विद्योतमानः प्रमदोत्तमाद्यु भिः।
सविद्युदभ्रावलिभिर्यथानभः॥

अनुवाद:
भगवान का तेज उनके चारों ओर फैला हुआ था, जैसे विद्युत से घिरे आकाश में जो प्रकाश फैलता है। उनके साथ दिव्य व्रति, श्रेष्ठ योगी और महान ऋषि रहते थे।


श्लोक 13:

श्रीर्यत्र रूपिण्युरुगायपादयोः
करोति मानं बहुधा विभूतिभिः।
प्रेङ्खंश्रिता या कुसुमाकरानुगैः
विगीयमाना प्रियकर्म गायती॥

अनुवाद:
जहां भगवान श्री कृष्ण के चरणों में बहुतेरी विभूतियाँ निवास करती हैं, वहां वह महिमा के रूप में उन भक्तों के साथ गाई जाती है जो प्रेयसी कर्म करते हुए भगवान की भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं।


श्लोक 14:

ददर्श तत्राखिलसात्वतां पतिं
श्रियःपतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम्।
सुनंदनंदप्रबलार्हणादिभिः
स्वपार्षदाग्रैः परिसेवितं विभुम्॥

अनुवाद:
वहां भगवान ने अपनी सर्वशक्तिमानता और सर्वव्यापकता का परिचय दिया। उन्होंने स्वपार्षदों, जैसे सुनंदन और नंदन से युक्त होकर भगवान की पूजा की।


श्लोक 15:

भृत्यप्रसादाभिमुखं दृगासवं
प्रसन्नहासारुणलोचनाननम्।
किरीटिनं कुण्डलिनं चतुर्भुजं
पीतांशुकं वक्षसि लक्षितं श्रिया॥

अनुवाद:
भगवान श्री कृष्ण, जो अपने भक्तों के लिए सुख देने वाले होते हैं, उन्होंने प्रसन्न हंसी के साथ स्वर्ण आभूषण और पीत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके चार हाथ थे, और उनके शरीर पर लक्ष्मी का स्पर्श था।


श्लोक 16:

अध्यर्हणीयासनमास्थितं परं
वृतं चतुः षोडशपञ्चशक्तिभिः।
युक्तं भगैः स्वैरितरत्र चाध्रुवैः
स्व एव धामन् रममाणमीश्वरम्॥

अनुवाद:
भगवान ने अपनी विशिष्ट स्थिरता को धारण किया था, जहां उन्होंने चतुर्वर्गी, षोडश और पंचशक्तियों का आदान-प्रदान किया। वह अपनी सच्ची धाम में रमण कर रहे थे, और भगवान ने स्वाभाविक रूप से वहां आनंद लिया।


श्लोक 17:

तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुतान्तरो
हृष्यत्तनुः प्रेमभराश्रुलोचनः।
ननाम पादाम्बुजमस्य विश्वसृग्
यत्पारमहंस्येन पथाधिगम्यते॥

अनुवाद:
भगवान का दर्शन करके भक्तों के हृदय में अत्यधिक आनंद और प्रेम उत्पन्न हुआ। उनकी आँखों से आंसू बहने लगे, और वे भगवान के चरणों में सिर झुका रहे थे, क्योंकि उनके द्वारा परमात्मा का मार्ग और दर्शन प्राप्त हुआ।


श्लोक 18:

तं प्रीयमाणं समुपस्थितं कविं
प्रजाविसर्गे निजशासनार्हणम्।
बभाष ईषत्स्मितशोचिषागिरा
प्रियः प्रियं प्रीतमनाः करे स्पृशन्॥

अनुवाद:
भगवान ने मुस्कुराते हुए, थोड़ी सी चिंता के साथ, श्री नारद से कहा, "तुमने मेरी पूजा के लिए जो मार्ग चुना है, वह मेरे लिए अत्यंत प्रिय है। तुम मेरे प्रिय भक्त हो, और मेरे द्वारा दिए गए उपदेशों को तुम सही मार्ग पर अपनाओ।"


श्लोक 19:

त्वयाहं तोषितः सम्यग् वेदगर्भ सिसृक्षया।
चिरं भृतेन तपसा दुस्तोषः कूटयोगिनाम्॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "हे नारद! मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हूं, तुमने लंबे समय से कड़ी तपस्या की है, और तुमने सभी साधु और योगियों की कठिनाइयों को पार किया है।"


श्लोक 20:

वरं वरय भद्रं ते वरेशं माभिवाञ्छितम्।
ब्रह्मञ्छ्रेयः परिश्रामः पुंसां मद्दर्शनावधिः॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "तुमने मुझसे जो वर प्राप्त किया है, वह तुम्हारी भक्ति का प्रमाण है। तुम्हारे तप और मेहनत का फल यह है कि तुमने मुझसे दर्शन प्राप्त किया है, जो हर किसी के लिए दुर्लभ है।"


श्लोक 21:

मनीषितानुभावोऽयं मम लोकावलोकनम्।
यदुपश्रुत्य रहसि चकर्थ परमं तपः॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "जो व्यक्ति मेरी दिव्य लीलाओं का गहन ज्ञान प्राप्त करता है, उसे यह संसार नहीं हिला सकता। मेरी महिमा सुनकर, वे सत्य को समझने में समर्थ होते हैं।"


श्लोक 22:

प्रत्यादिष्टं मया तत्र त्वयि कर्मविमोहिते।
तपो मे हृदयं साक्षाद् आत्माऽहं तपसोऽनघ॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "तुमने मेरी उपासना का सच्चा मार्ग अपनाया है। तुम्हारी तपस्या ने मेरे हृदय को छू लिया है, और मैं स्वयं तुम्हारी तपस्या का प्रमाण हूं।"


श्लोक 23:

सृजामि तपसैवेदं ग्रसामि तपसा पुनः।
बिभर्मि तपसा विश्वं वीर्यं मे दुश्चरं तपः॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "मैं तपस्या से इस संसार का निर्माण करता हूं और तपस्या द्वारा इसे समाप्त भी करता हूं। मेरे तप की शक्ति से ही संसार की रचनाएँ साकार होती हैं।"


श्लोक 24:

भगवन् सर्वभूतानां अध्यक्षोऽवस्थितो गुहाम्।
वेद ह्यप्रतिरुद्धेन प्रज्ञानेन चिकीर्षितम्॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "मैं सर्वभूतों का नियंत्रक हूं और सभी के हृदय में निवास करता हूं। वेदों द्वारा मैं अपनी उच्चतम स्थिति को सिद्ध करता हूं और ज्ञान द्वारा सभी जीवों का मार्गदर्शन करता हूं।"


श्लोक 25:

तथापि नाथमानस्य नाथ नाथय नाथितम्।
परावरे यथारूपे जानीयां ते त्वरूपिणः॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "मैं अपनी सत्ता का उद्घाटन करके सभी के हृदय में निवास करता हूं, लेकिन वही लोग मेरी कृपा से और भी गहरे अर्थ को समझते हैं।"


श्लोक 26:

यथात्ममाया योगेन नाना शक्त्युपबृंहितम्।
विलुम्पन् विसृजन् गृह्णन् बिभ्रदात्मानमात्मना॥

अनुवाद:
भगवान अपनी माया और शक्तियों के माध्यम से विभिन्न रूपों में कार्य करते हैं। वे अपनी माया के द्वारा सृष्टि का निर्माण, संहार और पालन करते हैं।


श्लोक 27:

क्रीडस्यमोघसङ्कल्प ऊर्णनाभिर्यथोर्णुते।
तथा तद्विषयां धेहि मनीषां मयि माधव॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "जैसे शुद्ध आत्मा के संकल्प से आकाश में विश्व की गति होती है, वैसे ही मेरे उद्देश्य से सभी कार्य पूर्ण होते हैं। तुम मेरे उद्देश्यों को समझो।"


श्लोक 28:

भगवाञ्च्छिक्षितमहं करवाणि ह्यतन्द्रितः।
नेहमानः प्रजा सर्गं बध्येयं यदनुग्रहात्॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "मैं निरंतर सक्रिय हूं, और सभी प्राणियों का सृजन और पालन मेरे द्वारा ही होता है। मेरी कृपा से ही संसार का पालन होता है।"


श्लोक 29:

यावत्सखा सख्युरिवेश ते कृतः
प्रजा विसर्गे विभजामि भोजनम्।
अविक्लवस्ते परिकर्मणिस्थितो
मा मे समुन्नद्धमदोऽजमानिनः॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "मुझे साक्षी मानते हुए, तुम अपनी गतिविधियों में स्थिर रहो। मैं तुम्हारी सहायता करूंगा और तुम्हारे कार्यों में कोई विघ्न नहीं आने दूंगा।"


श्लोक 30:

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्।
सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "मेरा ज्ञान परम और गुप्त है। जो व्यक्ति इसे सत्य और ज्ञान से सुनता है, वह मेरे दिव्य मार्ग को समझ सकता है।"


श्लोक 31:

यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः।
तथैव तत्त्वविज्ञानं अस्तु ते मदनुग्रहात्॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "जो मैं हूं, वह जैसा हूं, वैसे ही तुम्हें मेरी रूप, गुण और कार्य का ज्ञान प्राप्त होगा, केवल मेरी कृपा से।"


श्लोक 32:

अहमेवासमेवाऽग्रे नान्यत् यत्सदसत्परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: "मैं पहले भी था, और अब भी हूं। मुझे छोड़कर कोई और अस्तित्व नहीं है, सब कुछ मेरे कारण है।"


श्लोक 33:

ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथा भासो यथा तमः॥

अनुवाद:
जो कुछ भी साकार रूप में दिखता है, वह मेरी माया का प्रभाव है। वास्तविकता को जानने के लिए आत्मा की माया को समझना आवश्यक है।


श्लोक 34:

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥

अनुवाद:
जैसे आकाश के भीतर जितने भी जीव हैं, वे आकाश में समाहित होते हुए भी अपने-अपने रूप में स्थित रहते हैं, वैसे ही भगवान अपनी माया से सर्वव्यापी होते हुए भी विशेष रूप से निष्ठित रहते हैं।


श्लोक 35:

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥

अनुवाद:
आत्म के बारे में ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि आप तत्त्व को समझें और जीवन के प्रत्येक पहलू में इसका अनुसरण करें।


श्लोक 36:

एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना।
भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्॥

अनुवाद:
जो व्यक्ति इस तत्त्वज्ञान को ध्यानपूर्वक समझता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। इस ज्ञान से वह हर रूप में स्थित रहता है और कभी भी भ्रमित नहीं होता।


श्लोक 37:

सम्प्रदिश्यैवमजनो जनानां परमेष्ठिनम्।
पश्यतः तस्य तद्रूपं आत्मनो न्यरुणद्धरिः॥

अनुवाद:
भगवान के दर्शन से सभी जीवों के हृदय में वास्तविकता का ज्ञान जागृत होता है। वे भगवान के स्वरूप को देख पाते हैं।


श्लोक 38:

अन्तर्हितेन्द्रियार्थाय हरये विहिताञ्जलिः।
सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत्॥

अनुवाद:
भगवान हरि ने अपनी माया से सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न किया, और उनके द्वारा हर जीव की भावना और इच्छाएं नियंत्रित होती हैं।

श्लोक 39:

प्रजापतिर्धर्मपतिः एकदा नियमान् यमान्।
भद्रं प्रजानामन्विच्छन् नातिष्ठत्स्वार्थकाम्यया॥

अनुवाद:
प्रजापति, धर्म के पालनकर्ता, एक बार अपने नियमों का पालन करते हुए प्रजाओं के भले के लिए कार्य कर रहे थे, लेकिन स्वार्थी इच्छाओं के कारण वे उनसे हट नहीं पाते थे।


श्लोक 40:

तं नारदः प्रियतमो रिक्थादानामनुव्रतः।
शुश्रूषमाणः शीलेन प्रश्रयेण दमेन च॥

अनुवाद:
नारद जी ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए, जो सबसे प्रिय थे, उनका शरण लिया और उन्होंने विनम्रता, धैर्य, और तपस्या के साथ सेवा की।


श्लोक 41:

मायां विविदिषन् विष्णोः मायेशस्य महामुनिः।
महाभागवतो राजन् पितरं पर्यतोषयत्॥

अनुवाद:
भगवान विष्णु की माया को समझने और उनके दिव्य कार्यों को जानने के लिए नारद जी ने पितरों को प्रसन्न किया। उन्होंने भगवान के महात्म्य का अनुभव किया।


श्लोक 42:

तुष्टं निशाम्य पितरं लोकानां प्रपितामहम्।
देवर्षिः परिपप्रच्छ भवान् यन्मानुपृच्छति॥

अनुवाद:
पितरों को संतुष्ट देखकर, देवर्षि नारद ने भगवान से पूछा, "भगवान, आपने पितरों को कैसे प्रसन्न किया, कृपया यह बताएं?"


श्लोक 43:

तस्मा इदं भागवतं पुराणं दशलक्षणम्।
प्रोक्तं भगवता प्राह प्रीतः पुत्राय भूतकृत्॥

अनुवाद:
भगवान ने नारद से कहा: "यह भागवत पुराण दस लक्षणों से परिपूर्ण है, जो मैंने अपने पुत्रों के कल्याण के लिए बताया है।"


श्लोक 44:

नारदः प्राह मुनये सरस्वत्यास्तटे नृप।
ध्यायते ब्रह्म परमं व्यासायामिततेजसे॥

अनुवाद:
नारद जी ने राजा परीक्षित से कहा: "मैंने सरस्वती के तट पर, ब्रह्म के परम स्वरूप को ध्यान करते हुए व्यास जी को यह सारी कथा सुनाई।"


श्लोक 45:

यदुताहं त्वया पृष्टो वैराजात्पुरुषादिदम्।
यथासीत्तदुपाख्यास्ते प्रश्नानन्यांश्च कृत्स्नशः॥

अनुवाद:
राजा परीक्षित, आपने मुझसे जो प्रश्न पूछा है, वह सब मैंने भगवान से प्राप्त किया है। मैं पूरी कथा को विस्तार से बताऊंगा।


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे नवमोऽध्यायः॥

इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध का नौवां अध्याय पूर्ण हुआ।


इस प्रकार यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ हिन्दी अनुवाद क्रमशः प्रस्तुत किया गया।

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भागवत दर्शन: भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद)।यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, नवम अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों के साथ हिन्दी अनुवाद क्रमशः है
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भागवत दर्शन
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