अध्यात्म: अतृप्त इच्छाएँ (भूख)

Sooraj Krishna Shastri
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अध्यात्म: अतृप्त इच्छाएँ (भूख)
अध्यात्म: अतृप्त इच्छाएँ (भूख)


अध्यात्म: अतृप्त इच्छाएँ (भूख)


मनुष्य की इच्छाएँ : जन्म-मरण का कारण

मनुष्य की इच्छाएँ ही उसके बार-बार जन्म लेने का बंधन बनती हैं। यह ऐसी भूख है, जो कभी तृप्त नहीं होती। शरीर की भूख, मन की भूख, बुद्धि और अहंकार की भूख—यदि जीवन ईश्वरमय न हो, तो यह चक्र निरंतर चलता रहता है। कर्म और फल की यह श्रृंखला तब तक नहीं रुकती जब तक आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान लेती।

भूख : संसार का आधार

भूख ही इस संसार का नियम है। भूख के कारण ही पाप और अधर्म पनपते हैं। कोई किसी को नष्ट कर रहा है, तो कोई किसी को छल रहा है—जबकि यह भूख केवल इस असत्य माया में है। आत्मा को कोई भूख नहीं लगती; भूख शरीर, मन और बुद्धि को ही लगती है।

अब प्रश्न यह है कि हम शरीर, मन और बुद्धि हैं, या हम आत्मा हैं? ध्यान, साधना, और तपस्या के द्वारा हम मन को नियंत्रित कर सकते हैं। यदि समाधि लग गई, तो इंद्रियाँ शांत हो जाएँगी और जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाएगा। परंतु यदि भूख बनी रही, तो जन्म लेना ही पड़ेगा।

माया का भ्रम और चेतना का नियम

माया में उठने वाले सभी प्रश्न और उनके उत्तर असत्य हैं, क्योंकि प्रश्नों का जन्म ही असत्य मन से होता है। जब प्रश्न समाप्त हो जाते हैं, तब आगे की यात्रा स्वतः स्वतंत्र हो जाती है।

लोग पूछते हैं कि धर्मयुद्ध कब और कैसे होगा? कौन बचेगा और कितने बचेंगे? लेकिन यह मूल प्रश्न नहीं है। शरीर तो स्वयं भगवान का भी अमर नहीं होता, फिर मानव शरीर का क्या कहना!

मूल प्रश्न यह होना चाहिए कि इस यात्रा का अंतिम लक्ष्य क्या है?

इस धरती पर युद्ध कभी समाप्त नहीं हो सकते। जब तक भूख है, तब तक युद्ध है। युद्ध और शांति परस्पर विरोधी हैं। इस माया से भूख कभी समाप्त नहीं की जा सकती, परंतु उस पर नियंत्रण अवश्य पाया जा सकता है। वही नियंत्रण हमें परमानंद की ओर ले जाता है, जहाँ न भूख रहती है और न ही युद्ध—केवल सत्-चित्-आनंद की अवस्था होती है।


भगवद गीता : मुक्ति का मार्ग

भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद गीता के माध्यम से जीव को मुक्ति के सरल मार्ग दिखाए हैं। गीता की अठारह शिक्षाओं को जो अपने जीवन में उतारता है, वह वासना, क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, मोह और लालच के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

भगवद गीता की 18 शिक्षाएँ

  1. आनंद मनुष्य के भीतर ही निवास करता है, लेकिन वह इसे बाहरी सुखों में खोजता रहता है।
  2. भगवान की उपासना केवल शरीर से नहीं, बल्कि मन से करनी चाहिए।
  3. मनुष्य की वासना ही उसके पुनर्जन्म का कारण बनती है।
  4. इंद्रियों के अधीन होने से जीवन में विकार और परेशानियाँ आती हैं।
  5. संयम (धैर्य, सदाचार, स्नेह, सेवा) सत्संग के बिना प्राप्त नहीं होता।
  6. वस्त्र बदलने की नहीं, हृदय परिवर्तन की आवश्यकता है।
  7. जिसने जवानी में पाप किए हैं, उसे बुढ़ापे में नींद नहीं आती।
  8. जिसे भगवान ने संपत्ति दी है, उसे गौ-पालन अवश्य करना चाहिए।
  9. जुआ, मदिरापान, अनैतिक संबंध, हिंसा, असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता—इनमें कलियुग का वास है।
  10. अधिकारि शिष्य को सद्गुरु अवश्य मिलता है।
  11. मनुष्य को बार-बार मन को समझाना चाहिए कि ईश्वर ही उसका सच्चा आश्रय है।
  12. भोग में क्षणिक सुख है, लेकिन त्याग में स्थायी आनंद है।
  13. सत्संग ईश्वर की कृपा से मिलता है, लेकिन कुसंगति में पड़ना अपने हाथ में है।
  14. लोभ और ममता पाप के जनक हैं।
  15. स्त्रियों को प्रतिदिन तुलसी और पार्वती का पूजन करना चाहिए।
  16. मन और बुद्धि पर पूर्ण विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये धोखा दे सकते हैं।
  17. यदि पति-पत्नी पवित्र जीवन व्यतीत करें, तो भगवान स्वयं पुत्र रूप में उनके घर आने की इच्छा रखते हैं।
  18. भगवान मनुष्य की परीक्षा लेते हैं और कसौटी पर खरा उतरने वाले को ही अपनाते हैं।

ईश्वरमय जीवन : मुक्ति का मार्ग

अपने इष्टदेव में पूर्ण रूप से ओत-प्रोत होकर उनके ही स्वरूप में लीन हो जाना ही जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति का मार्ग है।

भगवान श्रीकृष्ण की कृपा सभी धर्मप्रेमी भक्तों पर बनी रहे।

॥ हरि ॐ तत्सत् ॥


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