भागवत कथा: उद्धव प्रसंग

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत कथा: उद्धव प्रसंग
भागवत कथा: उद्धव प्रसंग


 भागवत कथा: उद्धव प्रसंग

 उद्धव-गोपी संवाद श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध (अध्याय 47) में वर्णित है। यह प्रसंग भगवान श्रीकृष्ण और ब्रज की गोपियों के शुद्ध प्रेम (परम भक्ति) को दर्शाने वाला है। जब भगवान श्रीकृष्ण मथुरा चले गए और गोपियों ने उनके विरह में अत्यंत कष्ट सहा, तब भगवान ने अपने प्रिय मित्र उद्धव को ब्रज भेजा। उद्धव, जो ज्ञान और योग के मार्ग का अनुसरण करते थे, भगवान का संदेश लेकर गोपियों को सांत्वना देने के लिए आए।

उद्धवजी का व्रजगमन और गोपियों का विरहभाव

प्रस्तावना:
भगवान श्रीकृष्ण जब मथुरा पधार गए और वहां कंस का वध कर राज्य को पुनः धर्मसम्मत बनाया, तब उन्होंने अपने परम सखा और परम भक्त उद्धवजी को एक विशेष कार्य के लिए व्रज भेजा। श्रीकृष्ण जानते थे कि व्रजवासी, विशेषकर गोपियां, उनके विरह में अत्यंत व्याकुल हैं। उद्धवजी को यह संदेश देकर भेजा गया कि वे गोपियों को सांत्वना दें और उन्हें आत्मतत्त्व का ज्ञान कराएं।

उद्धवजी का व्रज आगमन

श्री उद्धव जब व्रज पहुंचे, तब वहां का वातावरण प्रेम और विरह से भरा हुआ था। वे सीधे नंद बाबा के घर पहुंचे। नंद बाबा और यशोदा माता ने उन्हें देखकर अत्यधिक प्रेमभाव से उनका स्वागत किया और कृष्ण के बारे में पूछने लगे। वे श्रीकृष्ण के बिना अत्यंत दुःखी थे।

इसके बाद उद्धवजी ने गोपियों से भेंट की। जब गोपियों ने उन्हें देखा, तो वे अत्यंत चकित हो गईं क्योंकि उद्धव का स्वरूप श्रीकृष्ण से बहुत मिलता-जुलता था। वे पीतांबरधारी, कमलनेत्र और नवयुवक थे।

श्रीमद्भागवत (१०.४७.१-२) में कहा गया है:

तं वीक्ष्य कृषानुचरं व्रजस्त्रियः
प्रलम्बबाहुं नवकञ्जलोचनम्।
पीताम्बरं पुष्करमालिनं लसन्
मुखारविन्दं परिमृष्टकुण्डलम् ॥१॥

अर्थात, जब गोपियों ने कृष्ण के दूत उद्धवजी को देखा, जो लंबे हाथों वाले, कमल के समान नेत्रों वाले, पीले वस्त्र धारण किए और कमल की माला पहने थे, तब वे विस्मित हो गईं।

उन्होंने सोचा, "यह कौन हैं? यह किसके घर से आए हैं? यह श्रीकृष्ण जैसे वस्त्र और आभूषण धारण किए हुए हैं। क्या ये स्वयं अच्युत (कृष्ण) हैं, या उनके दूत?"

सुविस्मिताः कोऽयमपीव्यदर्शनः
कुतश्च कस्याच्युतवेषभूषणः।
इति स्म सर्वाः परिवव्रुरुत्सुकास्
तमुत्तमःश्लोकपदाम्बुजाश्रयम् ॥२॥

गोपियों का विरहभाव

गोपियों ने उद्धवजी का स्वागत किया और उनसे कृष्ण का कुशलक्षेम पूछा। फिर वे उनके पास बैठ गईं और कृष्ण के प्रेम में डूबी हुईं, उनके विरह में अपने भाव प्रकट करने लगीं।

गोपियों ने कहा:

"हे उद्धव! श्रीकृष्ण ने हमें केवल एक बार अपने अधरों की सुधा का पान कराया और फिर हमें छोड़कर चले गए। अब हम उनके बिना कैसे रह सकते हैं?"

सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं पाययित्वा
सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान्भवादृक्।
परिचरति कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा
ह्यपि बत हृतचेता ह्युत्तमःश्लोकजल्पैः ॥१३॥

उन्होंने कृष्ण के प्रेम में इतना तल्लीन हो जाने का वर्णन किया कि वे स्वयं को, संसार को, अपने शरीर को, यहां तक कि अपने अस्तित्व को भी भूल गई थीं।

गोपियां कहने लगीं:

"हे उद्धव! जब श्रीकृष्ण हमारे साथ वृंदावन में थे, तब चंद्रमा, कुंज, यमुना का जल और समस्त वृक्ष भी आनंदित रहते थे। क्या वे दिन फिर लौट सकते हैं?"

"क्या श्रीकृष्ण हमें कभी याद करते हैं? क्या वे कभी हमारी चर्चा करते हैं? क्या वे हमें देखने के लिए आएंगे?"

गोपियों की विरह-वेदना और आत्मज्ञान

गोपियों के इस गहन प्रेम और विरह को देखकर उद्धव अत्यंत चकित हुए। उन्होंने सोचा कि यह प्रेम केवल सांसारिक प्रेम नहीं है, बल्कि यह तो भगवान के प्रति सर्वोच्च भक्ति है, जिसे योगी-मुनि भी प्राप्त नहीं कर सकते।

उद्धवजी ने गोपियों को आत्मतत्त्व का उपदेश दिया, यह समझाने का प्रयास किया कि श्रीकृष्ण सर्वव्यापक हैं और वे कभी उनसे दूर नहीं हुए।

भगवती उत्तमःश्लोके भवतीभिरनुत्तमा।
भक्तिः प्रवर्तिता दिष्ट्या मुनीनामपि दुर्लभा ॥२५॥

अर्थात, "हे गोपियों! तुमने जो कृष्ण की भक्ति की है, वह इतनी दुर्लभ है कि बड़े-बड़े योगी भी उसे प्राप्त नहीं कर सकते।"

फिर उन्होंने श्रीकृष्ण का संदेश सुनाया कि जैसे आकाश सबके भीतर और बाहर है, वैसे ही श्रीकृष्ण भी सबके भीतर और बाहर हैं।

"हे गोपियों! श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं तुम सबसे दूर नहीं हूं। मैं आत्मस्वरूप से सर्वत्र स्थित हूं, जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) सब जगह व्याप्त हैं।"

यत्त्वहं भवतीनां वै दूरे वर्ते प्रियो दृशाम्।
मनसः सन्निकर्षार्थं मदनुध्यानकाम्यया ॥३४॥

अर्थात, "मैं केवल इसलिए दूर प्रतीत होता हूं ताकि तुम मुझे अपने मन में अधिक स्मरण करो। जब प्रियतम दूर होता है, तो प्रेम बढ़ता है।"

उद्धवजी का व्रज से विदाई और निष्कर्ष

उद्धवजी कुछ महीनों तक व्रज में रहे और गोपियों को श्रीकृष्ण के प्रेम और भक्ति में तल्लीन किया। वे स्वयं भी गोपियों की प्रेम-भक्ति से अभिभूत हो गए।

"हे नंदगोप की पत्नियों! तुम्हारी भक्ति इतनी महान है कि तीनों लोकों में इसकी कोई तुलना नहीं। मैं बार-बार तुम्हारे चरणों की वंदना करता हूं।"

वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ॥६३॥

जब उद्धव मथुरा लौटे, तो उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा, "हे प्रभु! गोपियों का प्रेम तो अद्भुत है। आपकी भक्ति के ऐसे उदाहरण तो वेदों में भी नहीं मिलते।"

निष्कर्ष:

यह कथा हमें यह सिखाती है कि सच्चा प्रेम और भक्ति सांसारिक वस्तुओं या शारीरिक उपस्थिति पर निर्भर नहीं करता। गोपियों का प्रेम इस बात का प्रतीक है कि जब भक्त पूर्ण रूप से भगवान में समर्पित हो जाता है, तो उसके लिए संसार की अन्य सभी इच्छाएं तुच्छ हो जाती हैं।

श्रीकृष्ण ने स्वयं गोपियों के प्रेम को सर्वोच्च बताया और उद्धवजी को भी उनकी भक्ति को आदर्श मानने के लिए प्रेरित किया।

इस प्रकार उद्धवजी का व्रजगमन केवल गोपियों को आत्मज्ञान देने के लिए नहीं था, बल्कि स्वयं उद्धवजी के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण शिक्षा थी कि भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप निष्काम और अनन्य प्रेम है।


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