कथा: मोर की भक्ति और श्रीकृष्ण का वरदान

Sooraj Krishna Shastri
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कथा: मोर की भक्ति और श्रीकृष्ण का वरदान
कथा: मोर की भक्ति और श्रीकृष्ण का वरदान


मोर की भक्ति और श्रीकृष्ण का वरदान

गोकुल में एक मोर रहता था, जो प्रतिदिन भगवान श्रीकृष्ण के द्वार पर बैठकर भावपूर्ण भजन गाया करता था—

"मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया मेरे, माँ-बाप सांवरिया मेरे।"

श्रीकृष्ण प्रतिदिन उसके भजन को सुनते, उसे देखते, मुस्कुराते, और आगे बढ़ जाते। परंतु उन्होंने कभी मोर को विशेष ध्यान नहीं दिया। मोर को यह आशा थी कि एक दिन प्रभु उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपने स्नेह से भर देंगे।

एक वर्ष की प्रतीक्षा

दिन, सप्ताह और फिर महीनों का सिलसिला चलता रहा। मोर बिना रुके भजन गाता रहा, परंतु भगवान की ओर से कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं आई। धीरे-धीरे एक वर्ष बीत गया। अब मोर की आशा टूटने लगी। उसने सोचा, "क्या मेरी भक्ति व्यर्थ है? क्या मेरे प्रेम का कोई मूल्य नहीं?"

दुःख से व्याकुल होकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। उसी समय, एक मैना वहाँ से उड़ती हुई गुजरी। उसने आश्चर्य से देखा कि भगवान श्रीकृष्ण के द्वार पर भी कोई रो रहा है!

मैना का परामर्श

मैना ने मोर से पूछा, "तुम क्यों रो रहे हो?"

मोर ने अपनी व्यथा सुनाई, "एक वर्ष से मैं बांसुरी वाले छलिये को रिझा रहा हूँ, उनकी स्तुति कर रहा हूँ, लेकिन उन्होंने आज तक मुझे पानी तक नहीं पिलाया।"

मैना हँसी और बोली, "तुम कितने अज्ञानी हो! मैं बरसाने से आई हूँ। वहाँ राधारानी हैं, जो करुणा की मूर्ति हैं। चलो, मेरे साथ बरसाने चलो!"

मोर को यह बात अच्छी लगी और दोनों उड़कर बरसाने पहुँचे।

बरसाने में राधारानी का प्रेम

बरसाने में पहुँचकर, मैना ने श्रद्धा से भजन गाना शुरू किया—

"श्री राधे-राधे-राधे, बरसाने वाली राधे!"

मैना ने मोर से भी यह भजन गाने को कहा, परंतु उसे तो श्रीकृष्ण की स्तुति करने की आदत थी। वह फिर वही पुराना भजन गाने लगा—

"मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया मेरे, माँ-बाप सांवरिया मेरे।"

यह सुनते ही राधारानी दौड़ती हुई आईं, मोर को प्रेम से गले लगा लिया और स्नेहपूर्वक दुलारने लगीं, जैसे कोई खोया हुआ अपना मिल गया हो। उन्होंने स्नेह से पूछा, "तुम कहाँ से आए हो?"

मोर भाव-विभोर हो गया और बोला, "आज तक सुना था कि आप करुणा की सागर हैं, लेकिन आज यह अनुभव कर लिया।"

राधारानी ने मोर के मन की व्यथा को समझ लिया और मुस्कुराकर कहा, "तुम गोकुल वापस जाओ, लेकिन इस बार 'जय राधे-राधे' गाना।"

श्रीकृष्ण का प्रेम और वरदान

मोर का मन तो नहीं था करुणामयी राधारानी को छोड़ने का, परंतु उनके आदेश को मानकर वह फिर गोकुल लौट आया। इस बार उसने नए भजन का उच्चारण किया—

"जय राधे-राधे-राधे, बरसाने वाली राधे!"

श्रीकृष्ण के कानों में यह भजन पड़ा, तो वे तुरंत दौड़ते हुए आए, मोर को गले से लगा लिया और स्नेहपूर्वक उसका हाल-चाल पूछने लगे।

श्रीकृष्ण ने पूछा, "मोर! तुम कहाँ से आए हो?"

यह सुनकर मोर को पीड़ा हुई। उसने कहा, "वाह छलिये! जब मैं एक वर्ष तक आपके द्वार पर आपके ही नाम का भजन गा रहा था, तब तो आपने पानी तक नहीं पिलाया। लेकिन आज जब मैंने 'राधे-राधे' गाना शुरू किया, तो आप भागते चले आए?"

श्रीकृष्ण मुस्कुराए। वे मोर के मनोभाव को समझ गए।

मोर ने भावुक होकर कहा, "मैं वही मोर हूँ जो एक वर्ष तक आपके द्वार पर आपकी स्तुति करता रहा। सर्दी-गर्मी सब सहन की, पर आपने मुझे कोई तवज्जो नहीं दी। फिर जब मैं बरसाने गया, तो राधाजी ने मुझे अपने पुत्र की भाँति स्नेह दिया।"

श्रीकृष्ण इस भक्ति से मुग्ध हो गए। उन्होंने मोर को प्रेमपूर्वक देखा और वरदान दिया—

"मोर! तुमने राधा का नाम लिया, यह तुम्हारे लिए वरदान सिद्ध होगा। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि जब तक यह सृष्टि रहेगी, तुम्हारा पंख मेरे शीश पर विराजमान होगा!"

तभी से श्रीकृष्ण के मुकुट पर मोरपंख शोभायमान है, जो प्रेम और भक्ति का प्रतीक बना हुआ है।


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