कहानी: "भिखारी, जौहरी और वह छुपा खजाना"

Sooraj Krishna Shastri
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प्रस्तुत कहानी: "भिखारी, जौहरी और वह छुपा खजाना" को मैं  रोचक, प्रभावशाली, तथा व्यवस्थित ढंग से आपके लिए विस्तारपूर्वक प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिसमें कथा की मूल आत्मा को अक्षुण्ण रखते हुए उसके प्रत्येक भाव को उभारने का प्रयास किया गया है —


रोचक कहानियाँ,शिक्षाप्रद कहानियाँ,, कहानी: "भिखारी, जौहरी और वह छुपा खजाना" भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री
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कहानी: "भिखारी, जौहरी और वह छुपा खजाना"

(जीवन की वास्तविकता पर आधारित एक रूपक कथा)
लेखक – सूरज कृष्ण शास्त्री

भूमिका

शहर के एक व्यस्त रेलवे स्टेशन के बाहर, रोज़ एक भिखारी बैठा रहता था। उसका हुलिया, फटे कपड़े, मटमैली दाढ़ी और आँखों में वर्षों की थकान... परन्तु उसके कटोरे से निकलने वाली आवाज़ और उसके गाए गीत में एक विचित्र आकर्षण था।

वह लगातार गाता रहता—

"गरीबों की सुनो, वो तुम्हारी सुनेगा...
तुम एक पैसा दोगे, वो दस लाख देगा!"

हर बार जब वह यह गीत गाता, वह अपने कटोरे को हिलाकर उसमें पड़ी चिल्लर की आवाज़ से लोगों का ध्यान खींचता। आते-जाते मुसाफ़िर उसकी ओर मुड़ते, मुस्कराते, और कभी-कभी कुछ सिक्के उसके कटोरे में डाल भी देते।

एक अनजान मुसाफ़िर का आगमन

एक दिन, जब सब कुछ पहले जैसा ही चल रहा था, एक भिन्न तरह का व्यक्ति स्टेशन पर आया। उसके कपड़े साधारण थे, पर उसकी आँखों में विशेष प्रकार की चमक थी—शायद अनुभव और समझ की।

वह भिखारी के पास रुका। उसकी नजरें सीधे कटोरे पर टिक गईं। उसने जेब से कुछ नोट निकाले—सौ-सौ के कई नोट!

भिखारी की आँखों में उम्मीद जागी—क्या आज कोई बड़ी भिक्षा मिलेगी?

तभी उस व्यक्ति ने कुछ ऐसा कहा, जो बिल्कुल अप्रत्याशित था—

"अगर मैं तुम्हें हज़ार रुपए दूँ, तो क्या तुम अपना कटोरा मुझे दे सकते हो?"

भिखारी चौंका!
अभी वह कुछ सोच ही रहा था कि वह व्यक्ति बोला—

"अच्छा चलो, दो हज़ार देता हूँ!"

इस बार भिखारी के हाथ खुद-ब-खुद कटोरे की ओर बढ़ गए।
व्यक्ति ने दो हज़ार रुपये के नोट उसे थमाए और वह पुराना, धातु का कटोरा लेकर तेजी से स्टेशन की ओर बढ़ गया।

भिखारी वहीं कुछ पल खड़ा रहा, फिर दो हज़ार रुपये को कसकर पकड़ लिया और सोचने लगा—

"अरे! ये तो सचमुच आज किस्मत खुल गई! हर रोज़ सिक्के मिलते थे, आज तो कटोरे के बदले दो हज़ार मिल गए! अब यहां नहीं रुकूंगा — कहीं वो लौटकर कटोरा वापस न माँग ले!"

यह सोचकर वह भिखारी स्टेशन छोड़कर चला गया।

परदे के पीछे की सच्चाई

उधर वह व्यक्ति अब रेलगाड़ी में बैठ चुका था। उसकी चाल, उसका आत्मविश्वास और उसका उद्देश्य अब और स्पष्ट था।

उसने धीरे से बैग की ज़िप खोली और उस धातु के कटोरे को फिर से देखा। उसके चेहरे पर हल्की मुस्कराहट थी।

"कम से कम आधा किलो का तो है...!"
उसने मन में अनुमान लगाया।

उसने अपना जीवन धातुओं के बीच बिताया था—वह एक जौहरी था। वह पहचान सकता था कि यह कटोरा साधारण धातु का नहीं, बल्कि बहुमूल्य धातु से निर्मित था

जिस कटोरे को भिखारी चिल्लर इकट्ठा करने के लिए हिलाता रहा,
उसी कटोरे को समझने वाला कोई उसे दो हज़ार में खरीदकर
लाखों की कीमत पा गया।

गूढ़ प्रतीकात्मकता

यही कहानी हम सबकी भी है।

हम में से अधिकांश लोग अपने ही जीवन रूपी कटोरे को उसकी असली कीमत नहीं पहचानते। हम उसे खटका-खटका कर दुनिया से प्रशंसा, स्वीकृति, सुख, धन और प्रतिष्ठा जैसे "सिक्के" मांगते रहते हैं — यह भूलकर कि यह कटोरा (हमारा मानव-जन्म) स्वयं में अमूल्य है।

मानव जीवन ८४ लाख योनियों के पश्चात प्राप्त होता है।
यह कोई चिल्लर इकट्ठा करने के लिए नहीं,
वरन् आत्म-साक्षात्कार और परमात्मा से मिलन का माध्यम है।

निष्कर्ष

यदि एक जौहरी भिखारी के कटोरे में छिपे मूल्य को पहचान सकता है,
तो क्या हम अपने जीवन के मूल्य को नहीं पहचान सकते?

हमें चाहिए कि हम अपने भीतर झांकें,
और उस परम मूल्य को समझें,
जिसे पाकर देवता भी तरसते हैं

इस मानव जीवन को साधारण न समझें।

हर क्षण, हर श्वास — परमात्मा का स्मरण करें,
यही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।


🔔 संदेश :

अपने भीतर छिपे हुए अमूल्य रत्न को पहचानो,
और उसे संसार की चिल्लर से मत तौलो।

"मनुष्य-जन्म" स्वयं एक अनमोल रत्न है,
इसे व्यर्थ मत गंवाओ।

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