भागवत दशम स्कंध अध्याय 32 ( रासपंचाध्यायी 3 ) हिन्दी अनुवाद सहित

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत दशम स्कंध अध्याय 32 ( रासपंचाध्यायी 3 ) हिन्दी अनुवाद सहित 

धन्यवाद 🙏
 प्रस्तुत है श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कंध, द्वात्रिंश अध्याय (३२) के श्लोक ११ से २२ तक का क्रमबद्ध, भावपूर्ण हिन्दी अनुवाद:

🌸 श्रीमद्भागवतम् — दशम स्कंध — द्वात्रिंशोऽध्यायः

“गोपीसान्त्वनं” – श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों को सान्त्वना

भागवत दशम स्कंध अध्याय 32 ( रासपंचाध्यायी 3 ) हिन्दी अनुवाद सहित
भागवत दशम स्कंध अध्याय 32 ( रासपंचाध्यायी 3 ) हिन्दी अनुवाद सहित 



श्लोक 1

श्रीशुक उवाच
इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा ।
रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः ॥

अनुवाद:
श्रीशुकदेव जी बोले –
हे राजन्! इस प्रकार गोपियाँ विविध भावों और लीलाओं का गान करती हुईं, कभी विलाप करतीं, कभी कृष्ण की कथा में लीन होकर विचित्र प्रकार से बोलतीं — वे सब मधुर स्वर में विलाप करतीं और श्रीकृष्ण के दर्शन की तीव्र लालसा में संतप्त हो रहीं थीं।


श्लोक 2

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः ॥

अनुवाद:
उसी क्षण भगवान शौरि (श्रीकृष्ण) उनके समक्ष प्रकट हो गए। उनके मुख पर मनोहर मुस्कान थी, वे पीताम्बर धारण किए थे, फूलों की माला से अलंकृत थे, और उनका सौन्दर्य स्वयं कामदेव को भी आकर्षित करने वाला था।


श्लोक 3

तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोऽबलाः ।
उत्तस्थुर्युगपत् सर्वाः तन्वः प्राणमिवागतम् ॥

अनुवाद:
अपने प्राणप्रिय श्रीकृष्ण को अपने सम्मुख उपस्थित देखकर सब गोपियाँ आनन्द से खिल गईं। उनकी दृष्टियाँ प्रसन्नता से चमक उठीं और वे सभी एक साथ उठ खड़ी हुईं, मानो उन्हें खोया हुआ प्राण पुनः प्राप्त हो गया हो।


श्लोक 4

काचित् कराम्बुजं शौरेः जगृहेऽञ्जलिना मुदा ।
काचिद् दधार तद्बाहुं अंसे चन्दनरूषितम् ॥

अनुवाद:
किसी गोपी ने श्रीकृष्ण के कमल जैसे हाथ को आनन्दपूर्वक अपने हाथों से थाम लिया, तो किसी ने उनके चन्दन-लेपित भुज को प्रेम से अपने कंधे पर रख लिया।


श्लोक 5

काचिदञ्जलिनागृह्णात् तन्वी ताम्बूलचर्वितम् ।
एका तदङ्घ्रिकमलं सन्तप्ता स्तनयोरधात् ॥

अनुवाद:
कोई कोमलांगी गोपी श्रीकृष्ण के ताम्बूल (पान) को साक्षात् प्रेम-पूजन की तरह हाथों में ग्रहण कर रही थी, तो कोई विरह से संतप्त गोपी उनके चरणकमल को उठाकर अपने उरःस्थल (स्तनों) पर रख रही थी।


श्लोक 6

एका भ्रुकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्वला ।
घ्नन्तीवैक्षत् कटाक्षेपैः सन्दष्टदशनच्छदा ॥

अनुवाद:
कोई गोपी, अत्यन्त प्रेम के आवेग में विह्वल होकर, भ्रूकुटि बनाकर मानो तिरछी दृष्टि से उन्हें ताड़ना दे रही थी। वह अपने दाँतों से ओठों को दबा रही थी, मानो वह श्रीकृष्ण से रुष्ट हो।


श्लोक 7

अपरानिमिषद्दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम् ।
आपीतमपि नातृप्यत् सन्तस्तच्चरणं यथा ॥

अनुवाद:
कुछ गोपियाँ बिना पलक झपकाए श्रीकृष्ण के कमलमुख को देख रही थीं। वे उसे बार-बार देखकर भी तृप्त नहीं हो रही थीं, जैसे संतजन भगवान् के चरणों का चिन्तन कर कभी भी तृप्त नहीं होते।


श्लोक 8

तं काचिन्नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च ।
पुलकाङ्ग्युपगुह्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता ॥

अनुवाद:
किसी गोपी ने श्रीकृष्ण को अपनी आँखों के माध्यम से हृदय में स्थापित कर लिया और नेत्र मूँद कर उन्हें आलिंगनबद्ध किया। वह प्रेम और पुलक से भरकर वैसा ही आनन्द अनुभव करने लगी जैसे कोई योगी परम समाधि में होता है।


श्लोक 9

सर्वास्ताः केशवालोक परमोत्सवनिर्वृताः ।
जहुर्विरहजं तापं प्राज्ञं प्राप्य यथा जनाः ॥

अनुवाद:
सभी गोपियाँ श्रीकृष्ण के दर्शनरूपी परम उत्सव से पूर्ण रूप से तृप्त हो गईं। उन्होंने अपने विरहजन्य दुःख को वैसे ही त्याग दिया, जैसे कोई ज्ञानी पुरुष अपने वांछित लक्ष्य को प्राप्त कर लेने पर अपने समस्त क्लेश भूल जाता है।


श्लोक 10

ताभिर्विधूतशोकाभिः भगवानच्युतो वृतः ।
व्यरोचताधिकं तात पुरुषः शक्तिभिर्यथा ॥

अनुवाद:
विरह शोक से रहित हो चुकीं उन गोपियों के मध्य भगवान अच्युत अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे, जैसे समस्त शक्तियों से युक्त परमपुरुष अपनी विभूतियों से सम्पन्न होकर प्रकाशित होता है।


श्लोक 11

ताः समादाय कालिन्द्या निर्विश्य पुलिनं विभुः ।
विकसत्कुन्दमन्दार सुरभ्यनिलषट्पदम् ॥

अनुवाद:
उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उन गोपियों को साथ लिया और यमुना जी में प्रवेश करके एक ऐसे मनोहर तट पर पहुँचे, जहाँ कुन्द और मन्दार के फूल खिले हुए थे, सुगन्धित वायु बह रही थी और भौंरे गूँज रहे थे।


श्लोक 12

शरच्चन्द्रांशुसन्दोह ध्वस्तदोषातमः शिवम् ।
कृष्णाया हस्ततरला चितकोमलवालुकम् ॥

अनुवाद:
वह स्थान शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों से आलोकित था, जिससे रात्रि का समस्त अन्धकार नष्ट हो चुका था। वहाँ की बालुकाएं चित्त को शीतल करने वाली और कोमल थीं, जैसे स्वयं लक्ष्मीजी ने अपने हाथों से उन्हें सजाया हो।


श्लोक 13

तद्दर्शनाह्लादविधूतहृद्रुजो
मनोरथान्तं श्रुतयो यथा ययुः ।
स्वैरुत्तरीयैः कुचकुङ्कुमाङ्कितैः
अचीक्लृपन्नासनमात्मबन्धवे ॥

अनुवाद:
गोपियों के हृदय की समस्त व्यथाएँ श्रीकृष्ण के दर्शन से दूर हो गईं, जैसे वेद भगवान को पाने पर अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं। उन्होंने अपने उत्तरीय वस्त्रों से, जो उनके वक्षस्थल के कुमकुम से रंजित थे, अपने प्रिय श्रीकृष्ण के लिए आसन बिछाया।


श्लोक 14

तत्रोपविष्टो भगवान् स ईश्वरो
योगेश्वरान्तर्हृदि कल्पितासनः ।
चकास गोपीपरिषद्‍गतोऽर्चितः
त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत् ॥

अनुवाद:
तब भगवान श्रीकृष्ण वहाँ उस आसन पर विराजमान हुए, जो योगियों के हृदय में कल्पित होता है। गोपियों की सभा में वे ऐसे शोभायमान थे जैसे सम्पूर्ण त्रैलोक्य की लक्ष्मी का एकमात्र आश्रयस्वरूप उनका दिव्य रूप हो।


श्लोक 15

सभाजयित्वा तमनङ्गदीपनं
सहासलीलेक्षणविभ्रमभ्रुवा ।
संस्पर्शनेनाङ्ककृताङ्‌घ्रिहस्तयोः
संस्तुत्य ईषत्कुपिता बभाषिरे ॥

अनुवाद:
गोपियों ने श्रीकृष्ण का सम्मान किया, जो उनके प्रेम और अनुराग को जागृत करने वाले थे। वे उन्हें हास्य और चंचल दृष्टि से निहारती रहीं। कुछ गोपियाँ उनकी जाँघों पर अपने हाथ और चरण रखकर उन्हें स्पर्श कर रही थीं। फिर वे थोड़ी सी रूठने जैसी मुद्रा में उनकी स्तुति करते हुए बोल उठीं।


अब गोपियाँ श्रीकृष्ण से प्रश्न करती हैं –

श्लोक 16

श्रीगोप्य ऊचुः
भजतोऽनुभजन्त्येक एक एतद्विपर्ययम् ।
नोभयांश्च भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः ॥

अनुवाद:
गोपियाँ बोलीं —
हे प्रियतम! कुछ लोग अपने भक्तों को प्रेमपूर्वक भजते हैं, कुछ केवल उनको भजते हैं जो उन्हें नहीं भजते, और कुछ न भजने वालों को भी नहीं भजते। इन तीनों में कौन श्रेष्ठ है, कृपया हमें उचित उत्तर देकर संतुष्ट कीजिए।


अब भगवान श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं –

श्लोक 17

श्रीभगवानुवाच
मिथो भजन्ति ये सख्यः स्वार्थैकान्तोद्यमा हि ते ।
न तत्र सौहृदं धर्मः स्वार्थार्थं तद्धि नान्यथा ॥

अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण बोले —
जो लोग केवल एक-दूसरे को इसलिए भजते हैं कि उन्हें कुछ स्वार्थ सिद्ध करना है, वह सच्चा प्रेम नहीं है। उसमें न धर्म है, न सच्ची मैत्री; वह तो केवल स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया गया व्यवहार है।


श्लोक 18

भजन्त्यभजतो ये वै करुणाः पितरो यथा ।
धर्मो निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः ॥

अनुवाद:
जो लोग उन व्यक्तियों को भी प्रेमपूर्वक भजते हैं जो उन्हें नहीं भजते, वे अत्यन्त करुणामय हैं – जैसे माता-पिता अपने पुत्रों से करते हैं। इसमें निष्कलंक धर्म और सच्चा सौहार्द है।


श्लोक 19

भजतोऽपि न वै केचिद् भजन्त्यभजतः कुतः ।
आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः ॥

अनुवाद:
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो उन्हें भजने वालों को भी नहीं भजते, तो जो उन्हें नहीं भजते उन्हें तो बिल्कुल नहीं भजते। ये आत्माराम (स्वस्थ में स्थित), आत्मसन्तुष्ट, अकृतज्ञ और कभी-कभी गुरुद्रोही भी होते हैं।


श्लोक 20

नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून्
भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये ।
यथाधनो लब्धधने विनष्टे
तच्चिन्तयान्यन्निभृतो न वेद ॥

अनुवाद:
मैं, हे सखियों! अपने भक्तों को भी कभी-कभी नहीं भजता, केवल इसलिए कि मैं उनकी भक्ति की गहराई को परख सकूँ। जैसे कोई निर्धन व्यक्ति अचानक धन पाकर उसे खो देने के बाद केवल उसी धन की चिन्ता करता है और अन्य किसी बात की सुध नहीं रखता।


श्लोक 21

एवं मदर्थोज्झितलोकवेद
स्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेऽबलाः ।
मयापरोक्षं भजता तिरोहितं
मासूयितुं मार्हथ तत् प्रियं प्रियाः ॥

अनुवाद:
हे प्रियतमाओ! तुमने मेरे लिए लोकाचार और वेदाचरण तक छोड़ दिया। अपने परिजनों को भी त्याग दिया। मेरी सेवा के लिए जब मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने हेतु कुछ समय के लिए तुम्हारी आँखों से ओझल हुआ, तो तुम मुझसे रुष्ट न होओ।


श्लोक 22

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः ।
या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खलाः
संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना ॥

अनुवाद:
हे निष्कलंक प्रेयसियों! मैं तुम्हारे पुण्य कार्यों का प्रतिकार करने में असमर्थ हूँ, भले ही मैं देवताओं के जीवनकाल जितना समय क्यों न लगा दूँ। तुमने जिन कठिन पारिवारिक बन्धनों को तोड़कर मेरी सेवा की है, उसका उत्तर केवल यही हो सकता है कि तुम्हारे प्रेम को तुम्हारे प्रेम से ही लौटाया जाए।


🌸 समाप्त 🌸
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध के द्वात्रिंश (32वें) अध्याय का समापन होता है, जिसका नाम है — "गोपी-सान्त्वनम्"।

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