संस्कृत श्लोक: "न व्याप्तिरेषा गुणिनो गुणवान् जायते ध्रुवम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "न व्याप्तिरेषा गुणिनो गुणवान् जायते ध्रुवम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

🌞 🙏 जय श्रीराम 🌷 सुप्रभातम् 🙏
 यह श्लोक अत्यंत सूक्ष्म नैतिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है — वंशानुगत गुणों की धारणा पर एक यथार्थवादी दृष्टि।
संस्कृत श्लोक: "न व्याप्तिरेषा गुणिनो गुणवान् जायते ध्रुवम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "न व्याप्तिरेषा गुणिनो गुणवान् जायते ध्रुवम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद



श्लोक

न व्याप्तिरेषा गुणिनो गुणवान् जायते ध्रुवम्।
चन्दनोऽनलसन्दग्धो न भस्म सुरभिः क्वचित्॥

na vyāptir eṣā guṇino guṇavān jāyate dhruvam।
candano’nalasandagdho na bhasma surabhiḥ kvacit॥


🔍 व्याकरण एवं पदविश्लेषण:

पद अर्थ व्याकरणिक विश्लेषण
नहीं निषेधवाचक अव्यय
व्याप्तिः व्यापकता, अनिवार्यता स्त्रीलिंग, प्रथमा एकवचन
एषा यह स्त्रीलिंग, प्रथमा
गुणिनः गुणी व्यक्ति के पुल्लिंग, षष्ठी एकवचन
गुणवान् गुणों से युक्त (सन्तान) पुल्लिंग, प्रथमा एकवचन
जायते उत्पन्न होता है आत्मनेपदी, लट् लकार, प्रथमा पुरुष
ध्रुवम् निश्चित रूप से नपुंसकलिंग, अव्यय स्वरूप
चन्दनः चन्दन पुल्लिंग, प्रथमा एकवचन
अनलसन्दग्धः अग्नि से जला हुआ बहुव्रीहि समास, विशेषण रूप
नहीं निषेध
भस्म राख नपुंसकलिंग, प्रथमा एकवचन
सुरभिः सुगंधित स्त्रीलिंग, प्रथमा
क्वचित् कहीं भी अव्यय

🪷 भावार्थ:

"यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है कि गुणी व्यक्ति से सदैव गुणवान् ही उत्पन्न हो। उदाहरण के लिए, चंदन अग्नि में जलकर राख बन जाता है, पर उसकी राख में कहीं भी सुगंध नहीं रहती।"


🌿 प्रेरणादायक कथा: “भस्म का सत्य” 🌿

प्राचीनकाल में महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में एक अत्यंत गुणवान ब्राह्मण रहता था—सत्यव्रत। वे विद्या, सेवा, तप और विनय के प्रतीक थे।

उनका पुत्र विकट नामक एक युवक था, जो विपरीत स्वभाव का था—
अहंकारी, आलसी, मदांध और क्रूर।
लोग चकित होते कि इतना पुण्यात्मा पिता, और ऐसा कुपुत्र?

एक दिन एक शिष्य ने महर्षि वसिष्ठ से पूछा —

“गुरुदेव, क्या यह न्याय है कि एक महापुरुष से ऐसा दुराचारी जन्म ले?”

वसिष्ठ मुस्कराए, और पास रखी चन्दन लकड़ी को अग्नि में डाल दिया।
कुछ देर बाद उन्होंने राख को उठाकर शिष्य से कहा —

“सूंघो तो, क्या चंदन की सुगंध है इसमें?”

शिष्य ने कहा —

“नहीं गुरुदेव! अब इसमें कोई सुगंध नहीं।”

वसिष्ठ बोले —

बस, यही उत्तर है
गुण का अनुवर्तन जन्म से नहीं होता,
जब आत्मा तप के बिना, साधना के बिना, भस्मवत् हो जाती है,
तो जन्म कितना भी पवित्र कुल में हो — सुगंध नहीं आती।


🌟 शिक्षा / प्रेरणा:

  • वंश, कुल, या पितृगुण पर गर्व करने से कोई श्रेष्ठ नहीं होता।
  • गुणों की रक्षा और वृद्धि स्वयं के आचरण से होती है।
  • चन्दन से उत्पन्न भस्म यदि सुगंधहीन हो सकती है, तो मनुष्य भी गुणहीन हो सकता है, यदि वह साधना को त्याग दे।
  • हर व्यक्ति को अपने गुण स्वयं अर्जित करने पड़ते हैं — यह उत्तरदायित्व जन्म से नहीं मिलता।

📿 आधुनिक संदर्भ में:

आज के समाज में यह श्लोक हमें बताता है कि किसी के कुल, पद, वंश, या प्रतिष्ठा से उसकी योग्यता या चरित्र का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
गुणी बनना एक व्यक्तिगत साधना है, न कि वंशानुगत संपत्ति।

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