न्याय और वैशेषिक दर्शन के पारिभाषिक पदों का लक्षण और हिन्दी अर्थ
यहां पर न्याय-वैशेषिक के पारिभाषिक पदों को एक स्पष्ट तालिका (Table) के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ :-
क्रम | पारिभाषिक पद | परिभाषा (संस्कृत) | हिन्दी अर्थ / उदाहरण |
---|---|---|---|
1 | वस्तुसिद्धि | लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः, न तु प्रतिज्ञामात्रेण। | लक्षण और प्रमाण से वस्तु की सिद्धि होती है, केवल कथन से नहीं। |
2 | विशेषगुणत्वम् | जातिमत्वे सति बाह्यैकेन्द्रियमात्रग्राह्यत्वं विशेषगुणत्वम्। | जाति से युक्त होकर केवल एक बाह्य इन्द्रिय से ग्राह्य होना। |
3 | लक्षणम् | असाधारणधर्मो लक्षणम् (गोः सास्नादिमत्वम्) – समानासमानजातीयव्यवच्छेदकत्वम्। | किसी वस्तु का ऐसा धर्म जो केवल उसी में हो। |
4 | अव्याप्तिः | लक्ष्यैकदेशवृत्तित्वम्। | लक्ष्य का केवल एक अंश ही पकड़ना। |
5 | अतिव्याप्तिः | लक्ष्यवृत्तित्वे सति अलक्ष्यवृत्तित्वम्। | लक्षित के साथ अलक्षित में भी लागू होना। |
6 | असम्भवः | लक्ष्यमात्रावृत्तित्वम्। | केवल लक्ष्यमात्र में ही वर्तना, जो असम्भव हो। |
7 | द्रव्य-क्षणभाव | उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं निष्क्रियं च तिष्ठति। | नया द्रव्य क्षणभर बिना गुण और क्रिया के रहता है। |
8 | भ्रान्तिः | अतस्मिन् तद्बुद्धिः। | जहाँ वह न हो, वहाँ उसकी बुद्धि। |
9 | तुल्यत्वम् | अन्यूनानतिरिक्तव्यक्तिकत्वम्। | न कम, न अधिक – समानता। |
10 | सङ्करः | परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणयोः धर्मयोः एकत्र समावेशः। | विरोधी धर्मों का एकत्र होना। |
11 | सामान्यत्वम् | नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्वम्। | नित्य होकर अनेक में विद्यमान होना। |
12 | विशेषत्वम् | स्वपरव्यावर्तकस्वभावत्वम्। | अपने और पर के बीच भेद करने वाला स्वभाव। |
13 | समवायत्वम् | नित्यसम्बन्धत्वम्। | नित्य और अविनाशी सम्बन्ध। |
14 | कारणत्वम् | नियतपूर्ववृत्तित्वम्। | कार्य से पूर्व निश्चित रूप से होना। |
15 | संशयः | प्रतिपत्तुः सामान्याश्रयत्वेनावधारिते धर्मिणि विशेषावधारणात्मको यः प्रत्ययः। | किसी विशेष के बारे में अनिश्चितता। |
16 | अभिव्यंग्यत्व-नियमः | समानेन्द्रियग्राह्याणां समनियतानाम् एकव्यंजकाभिव्यंग्यत्वनियमः। | समान इन्द्रिय से ग्राह्य वस्तुओं का एक-सा अभिव्यक्त होना। |
17 | सार्वत्रिक नियमः | वस्तुस्वभावात् यो हि येन प्रतिबद्धः… स एव तस्य हेतु:। | जो सदैव साथ होता है, वही हेतु। |
18 | एकार्थ-समवायित्वम् | एकस्मिन् अर्थे समवायेन वृत्तिमत्वम्। | एक ही अर्थ में समवाय से होना। |
19 | व्याप्तिः | हेतुसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिसाध्यसामानाधिकरण्यम्। | हेतु-साध्य के बीच आवश्यक सम्बन्ध। |
20 | इन्द्रियम् | यद्धि शरीराश्रयं… तदिन्द्रियम्। | शरीर से जुड़ा ज्ञानदायक साधन। |
21 | लक्षणाबीजम् | अन्वयानुपपत्तिर्वा तात्पर्यानुपपत्तिर्वा। | लक्षणा का कारण। |
22 | जातिग्रहण-नियमः | येनेन्द्रियेण या व्यक्तिः… तेनैव जातिः। | जिस इन्द्रिय से व्यक्ति का ज्ञान हो, उसी से जाति का भी। |
23 | शरीरम् | भोक्तुर्भोगायतनम्… शरीरम्। | जीव का भोगस्थान। |
24 | विषयः | शरीरेन्द्रियव्यतिरिक्तत्वे… विषयः। | इन्द्रियग्रह्य बाह्य वस्तु। |
25 | परिमाणम् | मानव्यवहारासाधारणकारणम्। | मापन का विशेष कारण। |
26 | बुद्धिः | सर्वव्यवहारहेतुः ज्ञानम्। | व्यवहार का मूल – ज्ञान। |
27 | विद्या | तद्वति तत्प्रकारिकानुभूतिः। | यथार्थ ज्ञान। |
28 | अविद्या | तदभाववति तत्प्रकारिकानुभूतिः। | मिथ्या ज्ञान। |
29 | संशयः (२) | एकस्मिन् धर्मिणि नानाधर्मप्रकारकं ज्ञानम्। | एक वस्तु में विभिन्न धर्मों का संदेह। |
30 | विपर्ययः | अतस्मिन् तद्बुद्धिः। | विपरीत ज्ञान। |
31 | इच्छा | स्वार्थं वा परार्थं वा अप्राप्तार्थप्रार्थनम्। | पाने की इच्छा। |
32 | शक्ति | पदपदार्थयोः साक्षात् सम्बन्धः। | शब्द का प्रत्यक्ष अर्थ सम्बन्ध। |
33 | लक्षणा | पदपदार्थयोः परंपरासम्बन्धः। | अप्रत्यक्ष अर्थ सम्बन्ध। |
34 | आप्तिः | अर्थाव्यभिचारित्वम्। | नित्य संगति। |
35 | आकाङ्क्षा | येन पदेन विना… तस्याकांक्षा। | वाक्य-पूर्णता की अपेक्षा। |
36 | समवायिकारणम् | यत्समवेतमुत्पद्यते। | कार्य का आधारभूत कारण। |
37 | असमवायिकारणम् | समवायिकारणे प्रत्यासन्नं कारणम्। | अप्रत्यक्ष कारण। |
38 | निमित्तकारणम् | तदुभयभिन्नं कारणम्। | सहायक कारण। |
39 | कार्यतावच्छेदकः | यद्धर्मविशिष्टं कार्यं… | कार्य को विशेष करने वाला धर्म। |
40 | कारणतावच्छेदकः | यद्धर्मविशिष्टं कारणं… | कारण को विशेष करने वाला धर्म। |
41 | प्रतियोगिता | येन सम्बन्धेन यन्नास्ति… | अभाव का सम्बन्ध। |
42 | विषयता | विशेष्यता, प्रकारता, संसर्गता। | विषयता के तीन प्रकार। |
43 | शाब्दबोधः | खण्ड व अखण्ड रूपेण। | शब्दार्थ ज्ञान के दो प्रकार। |
न्यायवैशेषिके पारिभाषिकपदानि निर्वचनानि च –
१ लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्दि: न तु प्रतिज्ञामात्रेण ।
२ जातिमत्वे सति बाह्यैकेन्द्रियमात्रग्राह्यत्वं विशेषगुणत्वम्।
३ असाधारणधर्मो लक्षणम्(गो: सास्नादिमत्वं लक्षणम्)।
(समानासमानजातीयव्यवच्छेदकत्वम्)
४ लक्ष्यैकदेशवृत्तित्वम् अव्याप्तिः (गो: कपिलत्वम्)।
५ लक्ष्यवृतित्वे सति अलक्ष्यवृत्तित्वम् अतिव्याति:। (गोः शृङ्गित्वम्)।
६ लक्ष्यमात्रावृतित्वमसम्भव: (गोः एकशफवत्त्वम्)।
७ उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं निष्क्रियं च तिष्ठति।
८ अतस्मिन् तद्बुद्धिः भ्रान्तिः।
९ अन्यूनानतिरिक्तव्यक्तिकत्वं तुल्यत्वम्।
१० परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणयो: धर्मयो: एकत्र समावेश: सङ्कर: ।
११ नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्वं सामान्यत्वम् ।
१२ स्वपरव्यावर्तकस्वभावत्वं विशेषत्वम्।
१३ नित्यसंबन्धत्वं समवायत्वम्।
१४ नियतपूर्वंवृत्तित्वं कारणत्वम्।
१५ प्रतिपत्तु: सामान्याश्रयत्वेनावधारिते धर्मिणि विशेषावधारणात्मको य: प्रत्ययो जायते स एव संशय: ।
१६ समानेन्द्रियग्राह्याणां समनियतानाम् एकव्यंजकाभिव्यंग्यत्वनियम:।
१७ वस्तुस्वभावात् यो हि येन प्रतिबद्धस्सन् तद्भावे भवति तदभावे च न भवति स एव तस्य हेतुरिति सार्वत्रिको नियम:।
१८ एकार्थसमवायित्वं चैकस्मिन् अर्थे समवायेन वृत्तिमत्वम्।
१९ हेतुसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिसाध्यसामानाधिकरण्यं व्याप्ति: ।
२० यद्धि शरीराश्रयं सत् स्वसंयुक्तेऽर्थे ज्ञातुरपरोक्षप्रतीतिसाधनं द्रव्यं तदिन्द्रियमित्युच्यते।
२१ अन्वयानुपपत्तिर्वा तात्पर्यानुपपत्तिर्वा लक्षणाबीजम्।
२२ येनेन्द्रियेण या व्यक्तिर्गृह्यते तेनैव तद्गता जातिरिति।
२३ भोक्तुर्भोगायतनं चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयो वा शरीरम्।
२४ शरीरेन्द्रियव्यतिरिक्तत्वे सति आत्मोपयोगसाधनं द्रव्यं विषय: ।
२५ मानव्यवहारासाधारणकारणं परिमाणम्।
२६ सर्वव्यवहारहेतु: ज्ञानं बुद्धिः।
२७ तद्वति तत्प्रकारिकानुभूति: विद्या।
२८तदभाववति तत्प्रकारिकानुभूति: अविद्या ।
२९ एकस्मिन् धर्मिणि नानाधर्मप्रकारकं ज्ञानं संशय:।
३० अतस्मिन् तद्बुध्दि: विपर्यय:।
३१ स्वार्थम् वा परार्थम् वा अप्राप्तार्थप्रार्थनम् इच्छा।
३२ पदपदार्थयो: साक्षात् सम्बन्ध: शक्ति:।
३३ पदपदार्थयो: परंपरासम्बन्ध: लक्षणा।
३४ अर्थाव्यभिचारित्वम् आप्ति:। तया वर्तते इति आप्त:।
३५ येन पदेन विना यस्य पदस्याननुभावकत्वम् तेन पदेन सह तस्याकांक्षा।
३६ यत्समवेतमुत्पद्यते तत्समवायिकारणम्।
३७ समवायिकारणे प्रत्यासन्नं यत्कारणं तदसमवायिकारणम्।
३८ तदुभयभिन्नं कारणं निमित्तकारणम्।
३९ यध्दर्मविशिष्टं कार्यं भवति स धर्म: कार्यतावच्धेदक: घटत्वविशिष्टं कार्यं , घटत्वं कार्यतावच्छेदकं, घटत्वावच्छिन्ना कार्यता
४० यध्दर्मविशिष्टं कारणं भवति स धर्म: कारणतावच्छेदक:। दण्डत्वविशिष्टं कारणं, दण्डत्वं कारणतावच्छेदकं, दण्डत्वावच्छिन्ना कारणता।
४१ येन सम्बन्धेन यन्नास्तीत्यु्च्यते तन्निष्ठा प्रतियोगिता तत्सम्बन्धावच्छिन्ना।
उदाहरणम् --
संयोगसम्बन्धेन घटो नास्ति।
संयोगसम्बन्ध: प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्ध: ।
संयोगसम्बन्धावच्छिन्ना प्रतियोगिता
४२ विषयता त्रिधा – विशेष्यता, प्रकारता, संसर्गताचेति । प्रकारतैव विशेषणता इत्युच्यते।
४३ शाब्दबोधो द्विविध: 🡪 खण्डशाब्दबोध:, अखण्डशाब्दबोधश्चेति
आद्य: - घटमानय इत्यत्र घट पदस्य घटो’र्थ:, द्वितीयाया: कर्मत्वमर्थ:,आङ्पूर्वकनीञ्धातो: आनयनम्, आख्यातस्य कृतिश्चार्थः,एवंरूप: खण्डशाब्दबोध:। द्वितीय: - घटकर्मकानयनानुकूलकृतिमान् चैत्र: इत्याकार:। आद्यस्य शाब्दबोधत्वव्यवहार: गौण: ।
यमते प्रथमान्तार्थमुख्यविशेव्यकशाब्दबोधोऽङ्गीक्रियते। यथा घटमानयेत्यत्र घटकर्मकानयनानुकूलकृतिमान् चैत्र इति। वैयाकरणमते, भावो नाम धात्वर्थ:प्रधानं विशेष्यम्,यथा तत्रैव चैत्रकर्तृकं घटकर्मकमानयनमिति।
मीमांसकमते चाख्यातार्थमुख्यविशेष्यकबोधो’ङ्गीक्रियते, यथा तत्रैव घटकर्मकानयनानुकूला चैत्रसमवेता कृतिरिति।
एतन्मते शक्तिर्लक्षणाचेति वृत्तिर्द्विविधैव न व्यंजनावृत्तिरपि तृतीया अभ्युपेयते, यत: शब्दशक्तिमूलव्यंजनावृत्तिश्शक्त्या, अर्थशक्तिमूलव्यंजनावृत्तिरनुमानेन च चरितार्या भवति , यथा दूरस्था भूधरा रम्या इत्यत्र भूधरपदस्य पर्वतनृपयोस्समाना शक्तिरेवाङ्गीक्रियते, गच्छ गच्छसि चेत्कान्त तत्रैव स्याज्जनिर्ममेत्यादौ इयं कान्ता भर्तृगमनोत्तरकालिकमरणव्यापारवती, एतादृशविलक्षणशब्दप्रयोगकर्तृत्वात् इत्यनुमानेनैवार्थशक्तिमूलव्यंजनया बोध्यस्य मरणरूपार्थस्य बोधनात् वृत्तिर्द्विविधैवेति सिध्दम्।
नानार्थकस्थले सैंधवमानयेत्यादावेव तात्पर्यज्ञानस्यावश्यकता, न सर्वत्र शब्दबोधे तस्यावश्यकतेति केषांचिदाशय:।शाब्दबोधमात्रं प्रति तात्पर्यज्ञानं कारणमिति अन्येषामाशय:।