श्रीमद्भागवत (८.१०.४०) में ‘आधावन्तः’ बनाम ‘राधावन्तः’ का व्याकरणिक एवं अर्थगत विश्लेषण
प्रस्तावना
श्रीमद्भागवत महापुराण, जो वैष्णव परंपरा का एक प्रधान आधारग्रंथ है, अपनी काव्यात्मक, दार्शनिक, और भाषिक विविधता के लिए प्रसिद्ध है। इसके प्रत्येक श्लोक में न केवल अध्यात्म, बल्कि व्याकरण और छंद की अद्भुत संगति देखने को मिलती है।
अष्टम स्कंध, दशम अध्याय, श्लोक संख्या ४० में हमें एक रोचक भाषिक विवाद मिलता है। श्लोक का विवादित भाग —
"उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तो भटान् मृधे"
में “आधावन्तः” (दौड़ने वाले) और “राधावन्तः” (राधा से युक्त) — इन दो संभावित पाठों पर चर्चा चलती रही है।
मुख्य विवाद :
- अनिरुद्धाचार्य जी का दावा — यहाँ ‘राधावन्तः’ भी सम्भाव्य है, जिससे ‘राधा’ शब्द का सन्दर्भ जुड़ता है।
- रामकृपाल त्रिपाठी जी का खंडन — ‘राधावन्तः’ लेने पर विसर्ग का लोप व्याकरण-विरुद्ध है, अतः ‘आधावन्तः’ ही सही।
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श्रीमद्भागवत (८.१०.४०) में ‘आधावन्तः’ बनाम ‘राधावन्तः’ का व्याकरणिक एवं अर्थगत विश्लेषण |
यह शोध पाणिनीय सूत्रों, सन्धि-विचार, अर्थान्वय, और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि — सभी को ध्यान में रखकर इस विवाद का विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
1. श्लोक का संदर्भ एवं अर्थ
मूल श्लोक (८.१०.४०):
उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तो भटान् मृधे।
2. सन्धि का व्याकरणिक विश्लेषण
2.1. संभावित पाठ १ — ‘आधावन्तः’
-
रूपनिर्माण:
उद्यतायुधदोर्दण्डैः + आधावन्तः
-
सन्धि-विधि:
- ‘ससजुषो रुः’ (८.२.६६) — स् का विसर्ग में रूपांतरण।
- ‘खरवसानयोर्विसर्जनीयः’ (८.३.१५) — स्वर से पूर्व विसर्ग सामान्यतः बना रहता है।
- अतः — उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तः।
-
अर्थ:√धाव् (गत्यर्थक धातु) + शत्र् प्रत्यय = दौड़ने वाले।युद्ध प्रसंग में यह सर्वथा संगत है।
2.2. संभावित पाठ २ — ‘राधावन्तः’
-
रूपनिर्माण:
उद्यतायुधदोर्दण्डैः + राधावन्तः
-
सन्धि-विधि:
- विसर्ग के बाद ‘र’ होने पर ‘रो रि’ (८.३.१४) — विसर्ग का लोप।
- फलस्वरूप — उद्यतायुधदोर्दण्डै राधावन्तः।
- पांडुलिपि लेखन परंपरा में रिक्त स्थान के अभाव से — उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तः पढ़ा जा सकता है।
-
उदाहरण:रामायण — “प्रसादैः रत्नविकृतैः” → “प्रसादैरत्नविकृतैः” (विसर्ग लोप ‘रो रि’ से)।
2.3. त्रिपाठी जी की आपत्ति का परीक्षण
- आपत्ति: “राधावन्तः” लेने पर विसर्ग का लोप असंगत।
- परीक्षण:
- ‘रो रि’ (८.३.१४) के अनुसार विसर्ग का लोप न केवल संभव, बल्कि अनिवार्य है।
- अतः यह आपत्ति व्याकरण की दृष्टि से असिद्ध।
3. अर्थ एवं अन्वय का विश्लेषण
3.1. ‘आधावन्तः’ का अर्थ और अन्वय
- शत्रन्त शब्द — “दौड़ते हुए”।
- अन्वय:
उद्यतायुधदोर्दण्डैः आधावन्तः भटान् मृधे।
- युद्धभूमि के सजीव वर्णन में उपयुक्त।
3.2. ‘राधावन्तः’ का अर्थ और अन्वय
- मतुबन्त शब्द — “राधा से युक्त”।
- ‘राधा’ — अमरकोष (१.४.१६):
“राधो वैशाखमासे स्यात् राधा विद्युद्विशाखयोः।”
- संभव अर्थ: राधा नामक नक्षत्र/मास/नायिका से युक्त।
- अन्वय की समस्या:
- “राधावन्तः भटान्” = राधा से युक्त योद्धा — युद्ध सन्दर्भ में अप्रासंगिक।
- प्रसंग-भंग का खतरा।
4. वैष्णव परंपरा में ‘राधा’ का महत्व
- श्रीमद्भागवत में प्रत्यक्ष ‘राधा’ नाम का उल्लेख नहीं, किंतु गोपी-वर्णनों में परोक्ष उपस्थिति।
- वैष्णव कवियों द्वारा बाद के काल में ‘राधा’ को श्रीकृष्ण की ह्लादिनी शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करना।
- ‘राधावन्तः’ को भक्ति-प्रधान व्याख्या में “राधा से प्रेरित” या “राधा के स्वामी” के अर्थ में लेना संभव।
- परंतु यहाँ युद्ध का प्रसंग — भक्ति का नहीं — प्रमुख है।
5. तुलनात्मक मूल्यांकन
मानदंड | ‘आधावन्तः’ | ‘राधावन्तः’ |
---|---|---|
सन्धि-संगति | ✔ (८.३.१५ से) | ✔ (८.३.१४ से) |
व्याकरणिक शुद्धता | ✔ | ✔ |
अर्थान्वय | ✔ (सहज) | ✘ (अप्रासंगिक) |
सांस्कृतिक अनुकूलता | साधारण | वैष्णव भक्ति संदर्भ में |
प्रसंगानुकूलता | ✔ | ✘ |
6. निष्कर्ष
-
सन्धि की दृष्टि से:दोनों रूप व्याकरण-सम्मत हैं; त्रिपाठी जी की आपत्ति पाणिनीय सूत्रों के विरुद्ध है।
-
अर्थ एवं अन्वय की दृष्टि से:‘आधावन्तः’ ही युद्ध प्रसंग के अनुरूप और सहज अन्वित है।
-
सांस्कृतिक दृष्टि से:‘राधावन्तः’ का प्रयोग वैष्णव भक्ति-भावना से प्रेरित हो सकता है, परंतु यहाँ संदर्भ-भंग होता है।
अतः अंतिम निर्णय:
“आधावन्तः” ही श्लोक का प्रामाणिक और प्रसंगानुकूल पाठ है; ‘राधावन्तः’ मात्र भावानुकूल विकल्प है, व्याकरणिक रूप से संभव, पर अर्थगत दृष्टि से असंगत।
संदर्भ ग्रंथ सूची
- श्रीमद्भागवत महापुराण (८.१०.४०) — व्यासदेव।
- पाणिनि — अष्टाध्यायी (८.२.६६, ८.३.१४, ८.३.१५)।
- अमरकोष (१.४.१६)।
- वाल्मीकि रामायण — बालकाण्ड, ३६.२५।
- भट्टोजिदीक्षित — सिद्धान्तकौमुदी।
- वाक्यपदीय — भरतृहरि।