मगध सम्राट बिन्दुसार और सस्ता भोजन
जीवन के मूल्य पर एक ऐतिहासिक नीतिकथा
मगध की विशाल राजसभा सजी थी। सम्राट बिन्दुसार ने अपने मंत्रियों और सभासदों के समक्ष एक विचित्र प्रश्न रखा:
यह सुनकर पूरी सभा सोच में पड़ गई। चावल, गेहूँ, ज्वार, बाजरा—सभी को उपजाने में कड़ी मेहनत लगती है और वे भी प्रकृति की कृपा पर निर्भर हैं। अतः अन्न को सस्ता कहना कठिन था।
तभी शिकार के शौकीन एक सामंत ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया:
सभा के अधिकांश लोगों ने सिर हिलाकर इसका समर्थन किया। लेकिन महामंत्री चाणक्य शांत और मौन रहे।
रात्रि के घने अँधेरे में आचार्य चाणक्य उसी सामंत के महल पहुँचे। इतनी रात को प्रधानमंत्री को अपने द्वार पर देख सामंत घबरा गया।
यह सुनते ही सामंत के चेहरे का रंग उड़ गया। वह चाणक्य के चरणों में गिर पड़ा।
चाणक्य एक-एक करके अन्य सामंतों और सेनाधिकारियों के पास गए। उन्होंने सबसे हृदय का दो तोला मांस माँगा। परिणाम? कोई भी तैयार नहीं हुआ। उल्टे अपने प्राण बचाने के लिए किसी ने एक लाख, किसी ने दो लाख, तो किसी ने पाँच लाख स्वर्ण मुद्राएँ चाणक्य को दे दीं।
सुबह होने से पहले चाणक्य महल लौट आए। अगली सुबह राजसभा में उन्होंने सम्राट के सामने स्वर्ण मुद्राओं का ढेर लगा दिया।
जिस प्रकार हमें अपनी जान प्रिय है, उसी प्रकार प्रत्येक जीव को अपनी जान उतनी ही प्रिय है।
अंतर केवल इतना है कि मनुष्य बोल सकता है, समझा सकता है, और धन देकर अपने प्राण बचा सकता है।
परन्तु, मूक पशु न बोल सकते हैं, न अपनी व्यथा व्यक्त कर सकते हैं। तो क्या केवल इसी कारण उनसे जीने का अधिकार छीन लिया जाए?
