मन की आवाज

Sooraj Krishna Shastri
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     एक बुढ़िया बड़ी सी गठरी लिए चली जा रही थी। चलते-चलते वह थक गई थी। तभी उसने देखा कि एक घुड़सवार चला आ रहा है। उसे देख बुढ़िया ने आवाज दी–‘अरे बेटा, एक बात तो सुन।’ 

          घुड़सवार रुक गया। उसने पूछा–‘क्या बात है माई ?’ 

          बुढ़िया ने कहा–‘बेटा, मुझे उस सामने वाले गाँव में जाना है। बहुत थक गई हूँ। यह गठरी उठाई नहीं जाती। तू भी शायद उधर ही जा रहा है। यह गठरी घोड़े पर रख ले। मुझे चलने में आसानी हो जाएगी।’

          उस व्यक्ति ने कहा–‘माई तू पैदल है। मैं घोड़े पर हूँ। गांव अभी बहुत दूर है। पता नहीं तू कब तक वहाँ पहुँचेगी। मैं तो थोड़ी ही देर में पहुँच जाऊँगा। वहाँ पहुँचकर क्या तेरी प्रतीक्षा करता रहूँगा ?’ 

          यह कहकर वह चल पड़ा। कुछ ही दूर जाने के बाद उसने अपने आप से कहा–‘तू भी कितना मूर्ख है। वह वृद्धा है, ठीक से चल भी नहीं सकती। क्या पता उसे ठीक से दिखाई भी देता हो या नहीं। तुझे गठरी दे रही थी। सम्भव है उस गठरी में कोई कीमती सामान हो। तू उसे लेकर भाग जाता तो कौन पूछता। चल वापस, गठरी ले ले।’

         वह घूमकर वापस आ गया और बुढ़िया से बोला–‘माई, ला अपनी गठरी। मैं ले चलता हूँ। गाँव में रुककर तेरी राह देखूँगा।’

          बुढ़िया ने कहा–‘न बेटा, अब तू जा, मुझे गठरी नहीं देनी।’

          घुड़सवार ने कहा–‘अभी तो तू कह रही थी कि ले चल। अब ले चलने को तैयार हुआ तो गठरी दे नहीं रही। ऐसा क्यों ? यह उलटी बात तुझे किसने समझाई है ?’ 

          बुढ़िया मुस्कराकर बोली–‘उसी ने समझाई है जिसने तुझे यह समझाया कि माई की गठरी ले ले। जो तेरे भीतर बैठा है वही मेरे भीतर भी बैठा है। तुझे उसने कहा कि गठरी ले और भाग जा। मुझे उसने समझाया कि गठरी न दे, नहीं तो वह भाग जाएगा। तूने भी अपने मन की आवाज सुनी और मैंने भी सुनी।’

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