सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥ धन्य घरीसोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥

Sooraj Krishna Shastri
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  वह धन धन्य है, जिसकी पहली गति होती है (जो दान देने में व्यय होता है) वही बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मण (यानि विद्वानों के प्रति ) अखण्ड भक्ति हो |

दानं  भोगो नाशस्तिस्रो  गतयः  भवन्ति वित्तस्य ।

यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥

   यहां धन की तीन गति बताईं गईं हैं । इस संसार में उपलब्ध सभी वस्तु किसी न किसी गति को प्राप्त होती ऐसे ही धन की भी गति होती है उसके उपयोग के अनुसार आज एक संछिप्त चर्चा करेंगे इस विषय पर ...।

  धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है। जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है।

   उसमें व्यक्ति को कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। अब हमें यह तय करना है कि हम धन की कौन सी गति चाहते हैं? दान, भोग या नाश! यदि हमने इस महत्वपूर्ण व ज्वलन्त विषय पर चिन्तन, मनन कर धन की गति का चयन न किया तो धन का नाश स्वतः हो जायेगा। इतना ही नहीं! धन अपने नाश के साथ-साथ हमारा भी सर्वनाश कर देगा। अतः धन की यह गति होना हमारे हित में नहीं है। धन की यह गति हमारे लिए श्राप के बराबर है अतः प्रभु के इस श्राप से बचिये, प्रभु के क्रोध से बचिये, धन की तीसरी गति नाश से बचिये, तभी हम आपने आप को बचा सकते हैं अन्यथा नहीं!

यस्य चार्थार्थमेवार्थः स च नार्थस्य कोविदः।

रक्षेत भृतकोरण्ये यथा गास्यादृगेव सः।।

  जिसका धन केवल धन के लिए ही है, दान आदि के लिए नहीं, वह धन के तत्व को नहीं जानता। जैसे सेवक (ग्वाला) वन में केवल गौओं की रक्षा ही करता है, वैसे ही वह भी दूसरों के लिए धन का केवल रक्षक मात्र है। 

हमारे धर्म शास्त्र कहते हैं कि धन की तीन गतियां होती हैं, पहली दान, दूसरी भोग और तीसरी नाश।

जो लोग धन कमाते हैं लेकिन दान नहीं करते और ना ही उसका उपभोग करते हैं, केवल कमाने में ही लगे रहते हैं, उनके धन का नाश हो जाता है या फिर दूसरे ही उस धन का सुख भोगते हैं।

 अतः धन कमाने के साथ आवश्यक है कि उससे दान किया जाए, साथ ही अपने सुख के लिए उसका व्यय भी हो।

 तभी धन कमाने ठीक है, अन्यथा सिर्फ संचय के लिए धन कमाने से कोई लाभ नहीं क्योंकि उसका उपभोग हमेशा दूसरे ही करते हैं।

अधन ही जीव का धन है, धन आधा धन है, धान्य महद् धन है तथा विद्या तप और कीर्ति अतिधन हैं।

ज्यों जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।

दोनों हाथ उलीचिये, यही सज्जन का काम।।

  अर्थात् जब नाव में जल बढ़ने लगे और घर में दाम अर्थात धन बढ़ने लगे तो दोनों हाथ से उलीचना चाहिए अर्थात ‘धन’ को दान करना चाहिए, यही सज्जन का काम है। यदि हम धन को दान करते हैं तो हम सज्जन और यदि हम धन को दान नहीं करते हैं तो हम दुर्जन। अब हमारे ऊपर है कि हम सज्जन बनना चाहते हैं या दुर्जन? या इससे भी चार कदम आगे जाकर जानवर बनना चाहते हैं क्योंकि संस्कृति का यह श्लोक तो हमें यही सन्देश दे रहा है।

येषां न विद्या, तपो, न दानं

ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।

ते मृत्युलोके भुविभारभूताः

मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।

  अर्थात जिन व्यक्तियों के पास न तप है, न दान हैं और न ही उके पास ज्ञान, शील व धर्म है तो ऐसे व्यक्ति मनुष्य रूप में जानवर स्वरूप आचरण कर इस पृथ्वी पर भार बने हुए हैं। अतः हमें आज यह तय करना ही चाहिए कि हम सज्जन, दुर्जन या जानवर क्या बनना चाहते हैं? इन तीनों में से हम अपनी कौन सी गति चाहते हैं? क्योंकि हमारी गति का सीधा ‘तार’ (सीधा सम्बन्ध) धन की गति से जुड़ा हैं जैसी धन की गति होगी वैसी ही हमारी गति होगी अर्थात् जैसी करनी वैसी भरनी’।

   यदि हम ‘धन’ को दान करते हैं तो धन की गति भी उत्तम और हमारी गति भी उत्तम अर्थात दोनों का कल्याण क्योंकि धन की गति भी सर्वोत्तम भी हुई और हमारा भी जन्म सुधर गया वह इसलिए कि हमारा लोक व परलोक दोनों ही सुधर गये क्योंकि एक तो हमने धन को दान कर सर्वश्रेष्ठ ‘गति’ प्रदान की। इससे हमारा यह जन्म सुधर गया, दूसरे दान किया हुआ यह धन परलोक में हमारे बहीखाते में लिख गया। जब ईश्वर के यहाँ लेखा-जोखा होगा तब यह दान किया हुआ पुण्य ही हमारे काम आयेगा। तो फिर आप क्या सोच रहे हैं ? किस दुविधा में हैं आप? चिन्ता व दुविधा छोड़िये! तय करिये! कि आज से और अभी से हम धन को दान करेंगे और यह पुण्य कार्य कर धन को सर्वश्रेष्ठ गति देंगे, साथ ही यह लोक व परलोक दोनों ही लोक सुधार लेंगें।

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