इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।
संसार में सब सुख के लिए ही प्रत्येक क्षण कर्म करते है लेकिन मनुष्य भुल गया की सुख तो भगवान से मन लगाने पर मिलेगा।
जैसे लहरो का संबंध समुद्र से होता है उसी प्रकार सबका वास्तविक संबंध तो केवल भगवान से है इसलिए आनंद ओर सुख भी भगवान की तरफ जाने में मिलेगा- जैसे सुर्य की गर्मी का अनुभव सुर्य की तरफ जाने से होता है उसी प्रकार भगवान आनंदस्वरुप है इसलिए जब भगवान की तरफ मन को लगाओगे तो आनंद मिलेगा।
इसलिए नर तन पाकर संसार में मन लगाकर इस मनुष्य देह को बर्बाद नही करना है क्योकि मानस कहता है कि -
नर तन पाई विषय मन देही ।
पलटि सुधा ते सठ विष लेहि ॥
अर्थात् जो मनुष्य देह पाकर भी भजन नही करता और संसार में मन लगा लेता है उसका जीवन विषैला हो जाता है आनंद रुपि अमृत तो सिर्फ भगवान में मन लगाने पर मिलेगा।
क्योकि हम सब भगवान के ही अंश है। इसलिए पहली बात हमेशा याद रखो की ये मनुष्य शरीर बहुत ही कृपा करके भगवान ने दिया है ओर ये शरीर देवताओ को भी आसानी से नही मिल पाता ओर देवता भी इस मानव देह को चाहते है ओर ये भी हमेशा याद रखो की ये मानव जीवन सिर्फ भगवान को पाने के लिए मिला है।
मानव शरीर कर्मभूमिका है। यहीं कल्याण-सुधार की साधना की जा सकती है । परन्तु जीव अपनी असावधानी से इस मानव- शरीर के सुनहले अवसर को पशुवत खाने भोगने में बिता देता है। और यहां से बिना आत्मकल्याण किये चला जाता है।
इसके लिए एक सुन्दर एवं प्रचलित उदाहरण दिया जाता है। एक शहर था। उसके चरों ओर एक परकोटा खिंचा था। उस परकोटे में केवल एक दरवाजा था। उस शहर में एक अंधा रहता था। एक बार उसका मन हुआ कि इस परकोटे से मैं बाहर चला जाऊं । उसने लोगों से उससे निकलने का रास्ता पूछा। लोगों ने कहा कि तुम इस परकोटे की दीवार को पकड़े-पकड़े चले जाओ, तो तुम्हें एक जगह दरवाजा मिल जायेगा। फिर तुम वहीं से बाहर निकल जाना। उसने वैसा ही किया । परन्तु उसके शरीर में खाज का रोग था। वह बीच बीच में दीवार को छोड़कर खुजलाने का काम करने लगता था और चलता भी रहता था और पुनः दीवार पकड़ लेता था। ऐसा संयोग कि जब वह दरवाजे के निकट आता था, उसे खुजली लग जाती थी और वह दीवार छोड़कर चलते-चलते खुजलाने लगता था। फलत: दरवाजा छूट जाता था और उसके हाथ में पुनः दीवार आ जाती थी । वह जब-जब दरवाजे के पास आता था, तब-तब यही दशा होती थी ।
इसका तात्पर्य यह है कि असंख्य योनियों एवं खानियों का एक विशाल परकोटा है। उससे निकलने का एक ही दरवाजा है। - मानव शरीर । परन्तु जब जीव मानव-शरीर में आता है तब उसे विषय-वासनाओं एवं संसार के राग-द्वेष की खुजली लग जाती है। इसलिए वह इससे निकलने की अपेक्षा खुजली खुजलाने लगता है। और इसी में यह मानव-शरीररूपी दरवाजा छूट जाता है और जीव पुनः नाना योनियों का चक्कर काटने लगता है। मान्यता चौरासी लाख योनियों की है । परन्तु पारखी सन्त इस संख्या पर विश्वास नहीं करते हैं। वे कहते हैं कि शायद आज तक कोई देहधारियों की योनियों एवं खानियों की सम्पूर्ण गणना नहीं कर सका है। कहा जाता है कि आजकल के जीवविज्ञानियों ने दस लाख योनियों तक की गणना कर ली है। उसके आगे अभी प्रयास जारी है। संख्या जो हो, यह निश्चित है कि देहधारियों की योनियाँ बहुत है और असंख्य कहना ही ठीक है।
कल्याण- साधना करने की भूमिका है और साथ-साथ क्षणिक भी है तथा छूटकर शीघ्र मिलने वाला भी नहीं है। इसलिए इस मानव- जीवन के सुनहले अवसर को असावधानी में, विषय-वासनाओं में एवं राग-द्वेष के झगड़े में न बिताओ। बल्कि इस जीवन में एक-एक क्षण का सद्साधना में दोहन करो। ऐसा अवसर मिलना सहज नहीं है। ऐसे अवसर को जो व्यर्थ खोता है वह कितना भोला है ।
मानव शरीर की दुर्लभता में सद्गुरु डाली से टूटे हुए फल का उदाहरण देते हैं। जब पके फल डाली से टूटकर गिर पड़ते हैं तब वे पुनः उसमे नहीं लगते। इसी प्रकार जब जीव शरीर को छोड़ देता है। तब पुनः वह उसी शरीर में प्रवेश नहीं करता, और दूसरा मानव- शरीर मिलना भी सहज नहीं रहता । वह तो पुनः जब उसके अच्छे कर्म फलोन्मुख होंगे तभी मानव शरीर पायेगा ।
पक्का फल जो गिर पड़ा, बहुरि न लागै डार ।
इस पंक्ति का यह अर्थ लगाना इसका दुरूपयोग है कि जैसे फल डाली से टूटकर पुनः उसमें नहीं लगते, वैसे आदमी मरकर पुनः दूसरी देह नहीं धरता । कबीर साहेब की अपनी मान्यता है कि जीव चेतन हैं, अविनाशी हैं। और कर्म संस्कारों के अधीन नाना योनियों में भटकते हैं । वे वासनावश बंधे हैं और मानव शरीर में सत्संग, विवेक एवं स्वस्वरूप का ज्ञान पाकर भव-बंधनों एवं जन्म-मरण के प्रवाह से मुक्त हो सकते हैं।
यहां पके फल के डाली से टूटकर उसमें न लगने की बात का उदाहरण केवल मानव शरीर की दुर्लभता पर दिया गया है जिसमें उदाहरण का केवल एक अंश लिया गया है, कि जीव शरीर छोड़कर फिर उस शरीर में नहीं आता। इस साखी का सार कथन यह है कि हम इस दुर्लभ मानव जीवन को विषय-प्रपंच में न खोयें। इससे हम अपने जीवन का कल्याण करें।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई।
जिमि खगपति जल कै चिकनाई ॥
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