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Ramcharitmanas |
गाधितनय मन चिंता ब्यापी।
हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी ॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा।
प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥
गाधि के पुत्र विश्वामित्र के मन में चिंता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के (मारे) बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए अवतार लिया है।
भगवान विश्वामित्र जी यज्ञ करना चाहते थे।
नामजप में "तीन" बाधा उत्पन्न करते हैं, ये बुरे काम में बाधा नहीं डालते, अच्छे में ही डालते हैं। ये हैं, ताड़का, सुबाहु और मारीच।
तर्क ही ताड़का है, यह सुकेतु की पुत्री है। सुकेतु माने जो सुंदर को काट दे, भगवान की बात चले तो काट दे। तर्क बड़ा शत्रु है, यह संत, सत्संग और साधन पर श्रद्धा नहीं होने देता।
भगवान गुरुजी के पीछे चलने लगे तो सबसे पहले ताड़का को ही मारा। तर्क न मरे तो संत का अनुसरण कैसे हो? संत की बात में तर्क किया तो संत को संत ही नहीं माना, संत की बात कैसे मानें?
जन्मजन्मान्तर से चला आ रहा स्वभाव ही सुबाहु है, यही पाप कराता है, यही माला नहीं पकड़ने देता। इस सुबाहु को भगवान ने अग्नि बाण से मारा। ज्ञान ही अग्नि है, ज्ञान करो, विचार करो, तब सुबाहु मरता है, स्वभाव बदलता है।
मारीच माने, मरीचिका। है कुछ, दिखे कुछ, माने भ्रम। मारीच दुख रूप जगत में सुख, कुरूप को सुंदर दिखाकर वासना पैदा करता है। भ्रम मरता तो साधन पूर्ति पर है, अभी मरेगा नहीं, हाँ दूर भगाया जाएगा।
आज विश्वामित्र जी इन तीनों से हार गए।
हार तो बुरी है, पर जो हार हरि की ओर ले जाए, वो हार भी अच्छी है। वो जीत बुरी है जो अभिमान पैदा करके जगदीश से दूर कर दे।
तुम दीन बनो तो दीनानाथ के दर पहुँचो। चिंता आई तो चिंतन किया।
हरि बिनु मरहिं ना निशिचर पापी॥
विचार किया कि भगवान को बुला लाऊँगा, हरि ही मेरा कष्ट हरेंगे। आप भी ऐसा ही करें।
रामजी तो धनुष उठाए तैयार खड़े हैं, तुरंत दौड़ पड़ेंगे। वे तो आपका संताप हरने ही आए हैं, आपके पुकारने भर की देरी है।
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥
श्री रामजी ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूँगा। फिर समस्त मुनियों के आश्रमों में जा-जाकर उनको (दर्शन एवं सम्भाषण का) सुख दिया॥
आप पुकारते तो अब भी हो, पर संसार के लिए पुकारते हो, भगवान को भगवान के लिए नहीं पुकारते।
गीता में भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि —
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज ।
अहम् त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामी मा शुचः॥
समस्त प्रकार के धर्मो का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ | मैं समस्त पापो से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा डरो मत ।
श्री भगवान् ने अनेक प्रकार के ज्ञान तथा धर्म की विधियाँ बताई है
परब्रह्म का ज्ञान, परमात्मा का ज्ञान, अनेक प्रकार के आश्रमों तथा वर्णों का ज्ञान, संन्यास का ज्ञान, अनासक्ति, इन्द्रिय तथा मन का संयम, ध्यान आदि का ज्ञान उन्होंने अनेक प्रकार से नाना प्रकार के धर्मो का वर्णन किया है
अब भगवद्गीता का सार प्रस्तुत करते हुए भगवान् कहते है की हे अर्जुन ! अभी तक बताई गयी सारी विधियों का परित्याग करके, अब केवल मेरी शरण में आओ ।
इस शरणागत से वह समस्त पापो से बच जाएगा, क्योंकि भगवान् स्वयं उसकी रक्षा का वचन दे रहे है।
हो सकता है, जो सारे पापो से मुक्त हो गया हो , इस प्रकार कोई यह सोच सकता है की समस्त पापो से मुक्त हुए बिना कोई शरणागत ि नहीं पा सकता है ।
ऐसे संदेह के लिए यहाँ यह कहा गया है की कोई समस्त पापो से मुक्त न भी हो तो केवल श्रीकृष्ण के शरणागत होने पर स्वतः मुक्त कर दिया जाता है।
पापो से मुक्त होने के लिए कठोर प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
मनुष्य को बिना झिझक के कृष्ण को समस्त जीवो के रक्षक के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए । उसे चाहिए की श्रद्धा तथा प्रेम से उनकी शरण ग्रहण करे।
आनुकूल्यस्य संकल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् ।
रक्षिश्यतीति विश्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा ।
आत्मनिक्षेप कार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः।।
भक्तियोग के अनुसार मनुष्य को वही धर्म स्वीकार करना चाहिए , जिससे अंततः भगवदभक्ति हो सके ।
मनुष्य को विश्वास होना चाहिए की भगवान समस्त परिस्थितियों में उसकी सभी कठिनाइयों से रक्षा करेंगे। इसके विषय में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं की जीवन-निर्वाह कैसे होगा ? कृष्ण इसको संभालेंगे ।
मनुष्य को चाहिए की वह अपने आप को निस्सहाय माने और अपने जीवन की प्रगति के लिए कृष्ण को ही अवलम्ब समझे ।
पूर्ण कृष्णभावनाभावित होकर भगवदभक्ति में प्रवृत होते ही वह प्रकृति के सभी कल्मष से मुक्त हो जाता है ।
धर्म की विविध विधियाँ है और ज्ञान, ध्यानयोग आदि जैसे शुद्ध करने वाले अनुष्ठान हैं, लेकिन जो कृष्ण के शरणागत हो जाता है, उसे इतने सारे अनुष्ठानो के पालन की आवश्यकता नहीं रह जाती ।