याज्ञवल्क्य और भुज्यु लाट्यायनि संवाद (शत. १४ /३/३/१)

Sooraj Krishna Shastri
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याज्ञवल्क्य और भुज्यु लाट्यायनि संवाद
याज्ञवल्क्य और भुज्यु लाट्यायनि संवाद

 

 मोक्ष का आरम्भ नहीं होता, वह किसी का कार्य भी नहीं है। वह तो बंधन का ध्वंसमात्र है । बन्धन अविद्या है। अविद्या का कर्म से नाश असंभव है, अतएव ज्ञान युक्त कर्म भी मोक्ष का कारण नहीं बन सकता। कर्मों का फल तो संसारत्व मात्र है।

याज्ञवल्क्य से भुज्युलाट्यायनि ने पूछा, याज्ञवल्क्य -  हम व्रत का आचरण करते हुए भद्रदेश में घूम रहे थे कि पतंजलि काप्य के घर पहुंचे। उसकी पुत्री गन्धर्व से गृहीत थी। उसने उससे पूछा, तू कौन है ? वह बोला अंगिरस सुधन्वा हूं।

  याज्ञवल्क्य ने कहा, उस गन्धर्व ने निश्चय ही यह कहा था कि वे वहां चले गये जहां अश्वमेध यज्ञ करने वाले जाते हैं। भुज्यु अश्वमेध याजी कहां जाते हैं? 

याज्ञवल्क्य - यह लोक ३२ देवरथाहूय है, उसे चारों ओर से दूनी पृथिवी घेरे हुए हैं। उस पृथिवी को सब ओर से दूना समुद्र घेरे हुए है। जितनी पतली छुरे की धार जितना सूक्ष्म मक्खी का पंख होता है, उतना उन अण्ड कपोलो के मध्य में आकाश है। इन्द्र (चित्याग्नि) ने पक्षी होकर पारिक्षितों को वायु को दिया। वायु उन्हें अपने स्वरूप में स्थापित कर रखा है वहां ले गया, जहां अश्वमेधयाजी रहते हैं इस प्रकार उस गन्धर्व ने वायु की ही प्रशसा की थी। अतः वायु ही व्यष्टि है और वायु ही समष्टि है जो ऐसा जानता है वह पुनर्मृत्यु को जीत लेता है तब भुज्यु लाट्यायनि चुप हो गया।

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