याज्ञवल्क्य और जरत्कारव आर्त्तभाग संवाद (शत.१४/३/३/१)

Sooraj Krishna Shastri
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याज्ञवल्क्य और जरत्कारव आर्त्तभाग संवाद
याज्ञवल्क्य और जरत्कारव आर्त्तभाग संवाद


  इन्द्रिय और उसके विषय ग्रह और अतिग्रह रूप हैं। ये बन्धन हैं अतएव मृत्युरूप हैं। इस सप्रयोजक बन्धन से मुक्त हुआ पुरुष मुक्त हो जाता है और इससे बंधा होने पर वह संसार को प्राप्त होता है, वही मृत्यु हैं इस मृत्यु का भी मृत्यु है। जो मुक्त है उसका कही गमन नहीं होता, क्योंकि वह तो प्रदीप निर्वाण के समान सब का उच्छेद हो जाने पर आकृति से संबद्ध होने से केवल नाम मात्र अवशिष्ट रह जाता है। वह पुरूष अच्छे कार्य किये रहने पर पुण्य यानि और बुरे कर्म किये रहने पर पाप योनि में उत्पन्न होता है। जरत्कारव आर्तभाग ने कहा, याज्ञवल्क्य ग्रह कितने हैं और अतिग्रह कितने हैं । याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया, आठ ग्रह हैं आठ अतिग्रह हैं। आर्तभाग, जो आठ ग्रह और आठ अतिग्रह हैं, वे कौन हैं?

  याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट किया कि प्राण ही ग्रह हैं वह अपान रूप अतिग्रह से गृहीत है, क्योंकि प्राण अपान से ही गन्धो को सूंघता है। बाक् ही ग्रह है, वा नाम रूप अतिग्रह से गृहीत है, क्योंकि प्राणी वाक् से ही नामों का उच्चारण करता है। जिहवा ही ग्रह है। वह रस रूप अतिग्रह से गृहीत है क्योकि प्राणी जिह्वा से रसों को विशेष रूप से जान पाता है। चक्षु ही ग्रह है, वह रूप अतिग्रह से गृहीत है क्योकि प्राणी चक्षु से ही रूपो को देखता हैं श्रोत्र ही ग्रह है। वह शब्द रूप अतिग्रह से गृहीत है क्योंकि प्राणी श्रोत्र से ही शब्दों को सुनता है। मन ही ग्रह है, वह काम रूप अतिग्रह से गृहीत है, क्योंकि प्राणी मन से ही कामो की कामना करता है। हस्त ही ग्रह हैं। वे कर्मरूप अतिग्रह से गृहीत हैं, प्राणी हाथ से ही कर्म करता है। त्वक् ही ग्रह है, यह स्पर्श अतिग्रह से गृहीत है क्योकि त्वक् द्वारा ही स्पर्श का ज्ञान कर पाता है। इस प्रकार से आठ ग्रह और आठ अतिग्रह हैं।

आर्तभाग ने कहा - याज्ञवल्क्य, यह जो कुछ भी है, वह सब मृत्यु का रवाध है, वह देवता कौन है, जिसका रवाध मृत्यु है? 

याज्ञवल्क्य - अग्नि ही मृत्यु है, वह जल का रबाध है। 

आर्तभाग ने पूछा - जिस समय यह मनुष्य मरता है उस समय उसके प्राणों का उत्क्रमण होता है या नहीं । याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया - नहीं नहीं, वे यहां ही लीन हो जाते हैं। वह फूल जाता है और वायु से पूर्ण हुआ ही मृत होकर पडा रहता है।

आर्त्तभाग ने कहा - याज्ञवल्क्य जिस समय यह पुरूष मरता है उसे उस समय क्या नहीं छोड़ता ? 

याज्ञवल्क्य - नाम नहीं छोड़ता, नाम अनन्त ही है, विश्वेदेव भी अनन्त ही है। इस आनन्त्यदर्शन के द्वारा वह अनन्त लोक को ही जीत लेता है।

आर्त्तभाग ने कहा, याज्ञवल्क्य - जिस समय यह मृत पुरूष वाक् अग्नि मे लीन हो जाता है तथा प्राण वायु में, चक्षु, आदित्य में, मन चन्द्रमा में, श्रोत्र दिशा में, शरीर पृथिवी मे, हृदयाकाश, भूताकाश में लोग औषधियों में और केश वनस्पतियों में लीन हो जाता है तथा लोहित एवं वीर्य जल में स्थापित हो जाते हे, उस समय पुरुष कहां रहता है?

याज्ञवल्क्य ने कहा - हे प्रिय दर्शन आर्तभाग - तू मुझे अपना हाथ पकड़ा, हम दोनों ही इस प्रश्न का उत्तर दें। यह प्रश्न जन समुदाय में किये जाने योग्य नहीं, तब उन दोनों ने उठकर विचार किया। उन्होने जो कुछ कहा तथा जिसकी प्रशंसा की वह कर्म ही था। पुरुष पुण्य कर्म से पुण्यवान् और पाप कर्म से पापवान् होता है। अब जरत्कारव आर्तभाग चुप हो गया।

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