अग्निहोत्र : प्राचीनयोग्य और उद्दालक संवाद |
अग्निहोत्रकर्म देवताविशेष से ही सम्बद्ध न होकर अनेक देवताओं से सम्बद्ध होना चाहिये। इस याग के विविध अग और प्रत्यंग विभिन्न देवताओं के लिए सम्पन्न किये जाते हैं। इसीलिए अग्निहोत्र कर्म मे सभी देवताओं को भाग प्राप्त होता है। सभी समान रूप से तुष्ट होते हैं। प्रस्तुत आख्यायिका इसी तथ्य की ओर संकेत करती है। शाय प्राचीन योग्य एक बार आरूणि उद्दालक के पास गये और कहा कि मैं आप से
अग्निहोत्र के विषय मे ब्रह्ममोघ के लिए आया हूं, और उद्दालक से प्रश्न भी किया-
१- गौतम तुम्हारी अग्निहोत्री कौन हैं?
२- वत्स कौन हैं?
३- वत्स सयाजिता धेनु कौन है?
४- संयोजनदाय क्या हैं?
५ दुह्यमान क्या है?
६ - दुग्ध क्या है?
७-आहुति क्या है?
८-दधिश्रित द्रव्य क्या है?
६-अनज्योत्ययान क्या है?
१० - जन से प्रत्यानीत क्या है ?
११ - उदास्यमान क्या है ?
१२ – उदासित क्या है?
१३ - उन्नीयमान क्या है ?
१४ – उन्नीत क्या है?
१५ - उद्यत क्या है?
१६- हियमाण क्या है?
१७- बिगृहीत क्या है ?
१८ - किस समिध को अग्नि पर रखते हो?
१९ - पूर्वाहुति किसके लिये है?
२० - आहुति के बाद सुव्यवस्थापन किसके लिए हैं ।
२१ - गार्हपत्येक्षण किसके लिए है ।
२२ – उत्तराहुति किसके लिए है?
२३ - उत्तराहुति के सुक को क्यों कंपाते हो?
२४ - सुडमुख लेप का परिमार्जन कर कर्च मे क्यो लगाते हो?
२५- द्वितीय बार परिमार्जन कर दक्षिण ओर हाथ क्यों रखते हो?
२६ - प्रथम प्राशन क्यो करते हो?
२७- द्वितीय बार प्राशन क्यों किया?
२८ - वेदि समीप जाकर क्यों पान किया?
२६ - सुक में जल लाकर उक्षण क्यों किया?
३०- द्वितीय बार इस दिशा में ऊपर की ओर उक्षण क्यों किया?
३१ - तृतीयबार इस दिशा में ऊपर की ओर उक्षण कयों किया?
३२- आहानीय के पीछे जल का निनयन क्यों किया ?
३३- क्या संस्थापित किया?
यदि तुम्हें इन बातों का ज्ञान है तभी तुम्हारा यजन सच्चे अर्थों में हुत है, अन्यथा यह हुत भी अहुत ही है। यह सब सुनकर उद्दालक ने प्रश्नों का उत्तर देना आरम्भ किया।
१ – मानवी इडा मेरी अग्निहोत्री है।
२ - वत्स वायव्य है ।
३- वायु रूपवत्स से संयुक्त द्युलोक उपस्रष्टा है ।
४- विराट् छन्द संयोजन है ।
५ आश्विन दुह्यमान है।
६- दुग्ध वैश्वदेव है ।
७- आह्यिमाण वायव्य है ।
८ - अधिश्रित आग्नेय है।
९- अवज्योत्यमान ऐन्द्राग्नि है।
१० - जल से प्रत्यानीत आश्विन है ।
११ – उदास्यमान वायव्य है ।
१२ – उद्वासित द्यावापृथवी है ।
१३ – उन्नीयमान आश्विन है ।
१४ – उन्नीत वैश्वदेव है ।
१५ – उद्यत महादेव के लिये हैं ।
१६- ह्रियमाण वायव्य है ।
१७ – बिगृहीत वैष्णव है।
१८ - जो समिध रखता हूं वह आहुतियों की प्रतिष्ठा है ।
१६ – पूर्वाहुति से मैंने देवों को तृप्त किया ।
२०- स्रुक स्थापनबहिस्पत्य है ।
२१- जो ऊपर देखा, उससे पृथ्वीलोक को द्युलोक से सम्बद्ध कर दिया ।
२२ – उत्तराहुति से अपने को स्वर्ग में प्रतिष्ठित कर लिया ।
२३ हवन करते समय सुक प्रकम्पन वायव्य है ।
२४ - सुक परिमार्जन कर जो कूर्च में पोंछा, उससे औषधियों व वनस्पतियों को तृप्त कर दिया।
२५- द्वितीय बार परिमार्जन करके जो दाहिनी ओर हाथ रखा उसने पितरों को तृप्त किया ।
२६ - पूर्वप्राशन से अपने को तृप्त किया ।
२७ - द्वितीय प्राशन से प्रजाओ को तृप्त किया ।
२८- जो वेदि समीप जाकर दान किया उससे पशुओ को तृप्त किया ।
२६- जो सुक में जाकर जल लाया और उक्षण किया उसने सर्पदेव जनों को तृप्त कर दिया ।
३० द्वितीय बार उक्षण से गन्धवों और अप्सराओं को तृप्त कर दिया ।
३१- आानीय के पीछे जल लाकर पृथिवी लोक को वृष्टि प्रदान की ।
३२ - सस्थापन करके जो कुछ पृथिवी में कमी थी, उस कमी को समाप्त कर दिया ।
३३ - शौचेय ने पुनः निवेदन किया, भगवन् मैं आपसे पुनः प्रश्न करना चाहता हूं। उद्दालक ने कहा, जो कुछ भी चाहो, पूंछ लो प्राचीन योग्य प्राचीन योग्य ने पूंछा, गार्हपत्य से आहानीय आदि अग्नियों का उद्धरण हुआ हो, पात्र निश्चित स्थान पर रख दिये गये हों तुम हवन कर रहे हो, ऐसे समय जब आहानीयाग्नि बुझ जाये तो क्या तुम जानते हो इसमें कौन सा भय है? उद्दालक ने बताया, इससे ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु हो जाती है। इससे बचने के लिए 'प्राणउदानमप्यगात्' इत्यादि मंत्र से हवन करेंगे। यह हवन गार्हपत्यागिन में करना चाहिए ।
३४- शौचेय ने पुनः प्रश्न किया, भगवन् मैं आपसे पुनः पूछना चाहता हूं। उद्दालक ने कहा, जो भी चाहो पूँछ लो, प्राचीन योग्य शौचेय ने कहा, यदि इसी समय गार्हपत्याग्नि भी बुझ जाय तो हवन करने वाले के पास बचने का क्या उपाय है? उद्दालक ने बताया किया हवनकर्ता का यजमान ऐसी दशा में तुरन्त मर जाता है। यदि इस अनिष्ट से बचना हो तो उदानः प्राणपम्यगात् मंत्र से हवन करना चाहिए। यह हवन आहवनीय में करना चाहिए। यह हवन आनीय में करना चाहिए।
३५ - प्राचीन योग्य ने पुनः निवेदन किया, यदि इसी समय अन्वादार्य — अन्वाहार्यपचनाग्नि भी बुझ जाय तो इससे हवन करने वाले को कौन सा भय होता है। उसका प्रायाश्चित क्या है? उद्दालक- ऐसा होने से हवनकर्ता के सभी पशु मर जाते हैं। नैनं इस भय को विधाओ के द्वारा पार कर लिया है। व्यान उदानमप्यगात् से मैं गार्हपत्य में हवन करुगाँ।
३६- प्राचीन योग्य- यदि इसी समय अग्नियां बुझ जायं तो कौन साभय उत्पन्न होगा? उसकी प्रायश्चित क्या है? उधालक होता का कुल अदायाद ही जायेगा। इस भय से बचने के लिए तुरन्त ही अग्निमन्थन करके, जिस दिशा में वायु बहे उसी ओर वाहवनीय ले जाकर वायव्य आहुति करे, क्योंकि मरने पर प्राणी वायु में ही मिलते हैं, वहीं से उत्पन्न भी होते हैं।
३७- प्राचीन योग्य सभी अग्नियों के बुझ जाने पर हवन करने वाले को कौन सा भय ग्रसित करता है? इस भय से बचने का उपाय क्या है?
उद्दालक दोनों लोकों में उसे अप्रिय ही प्राप्त होगा। प्रायश्चित के लिए शीघ्र ही अग्नि मथकर पूर्व की ओर आहवनीय का उद्धरण कर आहवनीय के पीछे बैठकर मैं इसे पीऊं । मेरा अग्निहोत्र सभी देवताओं को तृप्त करें ऐसा कहूंगा। यह उत्तर सुनकर प्राचीनयोग्य हाथ में समित लेकर उद्दालक से कहा, भगवन् मैं
आपका शिष्य बनने आया हूँ। उद्दालक ने उत्तर दिया, अच्छा हुआ जो तुमने इस प्रकार विनय प्रदर्शित कर दिया नहीं तो मूर्द्धा गिर पड़ती। ऐसा कहकर उद्दालक ने प्राची योग्य को दीक्षित कर लिया।
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