सर्वत्र व्याप्त भगवान प्रेम से प्रकट होते हैं , प्रभु से प्रेम उनके नाम की महिमा और वंदना से होता है ! प्रभु के नाम और महिमा अपने चित में लाने के लिए उनके अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ता है ! उनके अस्तित्व को दृढ विश्वाश में बदलने के लिए अपने अस्तित्व को भूलना पड़ता है ! जो जीव अपने अस्तित्व को भूलकर प्रभु के अस्तित्व के स्थापना में लग जाता है वही जीव प्रभु के प्रेम को पा लेता है !
करम बचन मन छाड़ि छलु, जब लगि जनु न तुम्हार ।
तब लगि सुख सपनेहुँ नहीं, किएँ कोटि उपचार।।
जब तक कर्म,वचन और मनसे छल छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं हो जाता,तब तक करोड़ों उपाय करने से भी,स्वप्न में भी वह सुख नहीं पाता ।
बिना परम प्रेम यानि बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते। अन्य सभी साधन भी तभी सफल होते हैं जब हृदय में भक्ति होती है। जीवन की हर कमी, विफलता, अभाव, दुख और पीड़ा एक रिक्त स्थान है जिसकी भरपाई सिर्फ प्रभु प्रेम से ही हो सकती है। अपने समस्त अभाव, दुख और पीड़ाएँ प्रभु को समर्पित कर दो। अपने प्रारब्ध और संचित कर्म भी उन्हें ही सौंप दो। हमारा स्वभाव प्रेम है जिसकी परिणिति आनंद है, कर्ता रामजी हैं, हम नहीं सारे कर्म भी उन्हीं के हैं और कर्मफल भी उन्हीं के है। (सूत्र) संसार में सुख की खोज ही सब दुखों का कारण है। मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है। यह निराशा सदा दुखदायी है।
सभी मनुष्य कठिन परिस्थितियों से जूझते हैं जो हमारे जीवन में पीड़ा उत्पन्न करती हैं। ऐसे में हमसे यह सवाल पूछा जा सकता है कि हमारे दर्द के बीच भगवान कहां हैं। जैसे ही हम अपनी टूटी हुई दुनिया की समस्याओं से जूझते हैं, यह कुछ कदम पीछे हटने और ईश्वर कौन है, इसकी हमारी समझ को भरने में मदद करता है। जैसे-जैसे हम दुनिया में ईश्वर की भूमिका की स्पष्ट तस्वीर देखना शुरू करते हैं, हमारे दर्द के बीच उस पर भरोसा करना आसान हो जाता है।
जैसे ही हम शुरुआत करते हैं, हमें खुद को ईश्वर की "अबोधगम्यता" के बारे में याद दिलाना होगा। हालाँकि उसने सृष्टि या पवित्रशास्त्र के माध्यम से हमारे सामने कुछ बातें प्रकट की हैं, अंततः वह पूरी तरह से समझने की हमारी क्षमता से परे है। ईश्वर अनंत है, और उसने अपने लिए कुछ सत्य सुरक्षित रखे हैं। इसलिए हमें पवित्र आत्मा की मदद से यह जानने में संतुष्ट रहना चाहिए कि उसने क्या प्रकट किया है, जब हम अपने अंतिम प्रश्नों के उत्तर खोजते हैं।
ईश्वर ने जो प्रकट किया है उसके आधार पर हम उसकी कौन-सी विशेषताओं को समझ सकते हैं?
अपने हृदय को खोल कर कीजिए। चाहे जिस रूप मे कीजिए , चाहे जहाँ एकांत मे कीजिए, अपनी टूटी-फूटी लड़खड़ाती भाषा मे कीजिये भगवान सर्वज्ञ है। वे तुरंत ही आपकी तोतली बोली को समझ लेंगे। प्रातःकाल प्रार्थना कीजिए ,मध्यान्ह मे कीजिए, संध्या को कीजिए ,सर्वत्र कीजिए और सभी अवस्थाओ में कीजिए। उचित तो यही है कि आप की प्रार्थना निरंतर होती रहे। यही नहीं आपका संपूर्ण जीवन प्रार्थना मय बन जाए। प्रभु से माँगिए कुछ नहीं। वे तो सबके माँ बाप है। सबकी आवश्यकताओं को वे खूब जानते हैं। आप तो दृढ़ता से उनके मंगल विधान को सर्वथा स्वीकार कर लीजिए । उनकी इच्छा के साथ अपनी इच्छा को जोड़ कर एक रूप कर दीजिए।
लेकिन हमारी भावनाएं कुछ अलग है जैसे-
यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नहीं है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ॥
अल्पज्ञ मनुष्य वेदों के आलंकारिक शब्दों पर अत्यधिक आसक्त रहते हैं जो स्वर्गलोक का सुख भोगने के प्रयोजनार्थ दिखावटी कर्मकाण्ड करने की अनुशंसा करते हैं और जो यह मानते हैं कि इन वेदों में कोई उच्च सिद्धान्तों का वर्णन नहीं किया गया है। वे वेदों के केवल उन्हीं खण्डों की महिमामण्डित करते हैं जो उनकी इन्द्रियों को तृप्त करते हैं और वे उत्तम जन्म, ऐश्वर्य, इन्द्रिय तृप्ति और स्वर्गलोक की प्राप्ति के लिए आडम्बरयुक्त कर्मकाण्डों के पालन में लगे रहते हैं।
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः
स्वयंधीराः पण्डितं मन्यमानाः।
जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।।
"जो स्वर्ग जैसे उच्च लोकों का सुख पाने के प्रयोजन से वेदों में वर्णित आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों में व्यस्त रहते है और स्वयं को धार्मिक ग्रंथों का विद्वान समझते हैं किन्तु वास्तव में वे मूर्ख हैं। वे एक अंधे व्यक्ति द्वारा दूसरे अंधे को रास्ता दिखाने वाले के समान हैं।
अंत में-
सो सुख जानइ मन अरु काना।
नहिं रसना पहिं जाइ बखाना॥
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना।
कहि किम सकहिं तिन्हहि नहिं बयना।।
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