संस्कृत पर संसद में संग्राम: भाषा का विरोध या राजनीति का मोहरा?

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत पर संसद में संग्राम: भाषा का विरोध या राजनीति का मोहरा?
संस्कृत पर संसद में संग्राम: भाषा का विरोध या राजनीति का मोहरा?


 संस्कृत पर संसद में संग्राम: भाषा का विरोध या राजनीति का मोहरा?

 "मृत" घोषित भाषा संस्कृत से क्यों घबराए सांसद दयानिधि मारन?

पिछले मंगलवार को लोकसभा में डीएमके सांसद दयानिधि मारन ने संसदीय कार्यवाही के संस्कृत अनुवाद पर सवाल उठाते हुए इसे करदाताओं के धन की बर्बादी बताया। उन्होंने दावा किया कि संस्कृत एक "अल्पसंख्यक भाषा" है, जिसे केवल 73,000 लोग ही बोलते हैं और इसे अनुवादित करना व्यर्थ है। उनका यह तर्क संसद में एक नई बहस को जन्म दे गया।

संस्कृत: अल्पसंख्यक या पुनर्जीवित भाषा?

श्री मारन के दावे को आंकड़ों के आईने में देखने पर कुछ और ही कहानी उभरती है। 2011 की जनगणना के अनुसार, संस्कृत बोलने वालों की संख्या केवल 73,000 नहीं, बल्कि 32 लाख (3.2 मिलियन) से अधिक थी, यदि पहली, दूसरी और तीसरी भाषा के रूप में बोलने वालों को मिलाकर देखा जाए। इसके अलावा, संस्कृत को उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है, जिनके कुल 9 लोकसभा सांसद हैं। यह संख्या उन भाषाओं—बोडो, डोगरी और मणिपुरी—से अधिक है, जिनका अनुवाद संसद में किया जाता है, और जिनके कुल 6 सांसद हैं।

क्या संस्कृत पर व्यय अनुचित है?

संस्कृत अनुवाद पर सरकार द्वारा किए गए न्यूनतम खर्च को लेकर श्री मारन की आपत्ति अजीब लगती है, क्योंकि अन्य अल्पसंख्यक भाषाओं के अनुवाद को लेकर ऐसी कोई चिंता प्रकट नहीं की गई। दिलचस्प बात यह है कि अगर संसदीय कार्यवाही का संस्कृत में अनुवाद किया जाता है, तो यह भाषा के प्रचार-प्रसार में सहायक हो सकता है। अनुवाद प्रक्रिया से उत्पन्न विशाल डेटा भविष्य में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और बड़े भाषा मॉडलों (LLM) के लिए उपयोगी हो सकता है, जिससे संस्कृत अधिक व्यापक रूप से समझी और प्रयोग में लाई जा सकेगी।

संस्कृत “संप्रेषणीय” नहीं?

श्री मारन ने यह भी दावा किया कि संस्कृत "संप्रेषणीय" नहीं है, जो एक अस्पष्ट और विवादास्पद तर्क है। संस्कृत एक समृद्ध व्याकरण, विशाल शब्दावली और अभिव्यक्तिपूर्ण भाषा है। वास्तव में, अधिकांश भारतीय भाषाओं के व्याकरण और शब्दावली पर संस्कृत का प्रभाव देखा जा सकता है। तमिल का प्राचीन व्याकरण ग्रंथ तोलकाप्पियम भी संस्कृत के ऐंद्र व्याकरण से प्रेरित है। मलयालम (लीलातिलकम्) और तेलुगु (आंध्र शब्द चिंतामणि) के सबसे पुराने व्याकरण ग्रंथ संस्कृत में ही लिखे गए हैं।

यदि "संप्रेषणीय" से आशय "समझने योग्य" है, तो यह तर्क संस्कृत के साथ तमिल और अन्य भाषाओं पर भी लागू होगा। भारत की 99% जनता उन्नत संस्कृत नहीं समझती, लेकिन तमिल भी 93% भारतीयों के लिए अपरिचित है। ऐसे में केवल लोकप्रियता के आधार पर भाषाओं को खारिज करने का दृष्टिकोण तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता।

संस्कृत अनुवाद: बहुभाषावाद की दिशा में एक कदम

भारत में एक से अधिक भाषाएँ समझने और बोलने की परंपरा रही है। संस्कृत का अनुवाद न केवल इस भाषा को पुनर्जीवित करने में सहायक होगा, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की समझ को भी बढ़ाएगा। श्री मारन खुद हिंदी में चल रही बहसों को अनुवाद के माध्यम से सुनते हैं, जिससे उनकी भाषाई समझ समृद्ध होती है। यदि वे कभी संस्कृत अनुवाद सुनने का प्रयास करें, तो संभव है कि इससे उनकी तमिल और हिंदी की समझ भी और बेहतर हो जाए।

संस्कृत को एक "मृत" भाषा कहकर इसका विरोध करना न केवल ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी है, बल्कि यह भी दिखाता है कि इस भाषा के पुनर्जीवन को लेकर कुछ लोग आशंकित हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि संस्कृत, जिसे अतीत में विलुप्त मान लिया गया था, एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ रही है—शायद इसलिए कि यह वास्तव में समाप्त नहीं हुई है, बल्कि नए युग में अपनी जगह बनाने के लिए तैयार हो रही है।


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