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कहानी:"रेवड़ी और मेहनत का न्याय" |
कहानी:"रेवड़ी और मेहनत का न्याय"
सुप्रीम कोर्ट के भव्य भवन के समक्ष एक भीड़ इकट्ठी थी। कुछ लोग सरकार द्वारा दी जा रही मुफ्त सुविधाओं के पक्ष में नारे लगा रहे थे, तो कुछ इसके विरोध में थे। गंगा की तरह प्रवाहित होती इस बहस के बीच, एक किसान रामलाल और एक युवा बेरोजगार रोहित भी खड़े थे।
रामलाल: मेहनत की थाली या मुफ्त की थाली?
रामलाल, एक 50 वर्षीय किसान, हाथ में हल की मूठ थामे हुए था। उसने पिछले साल फसल उगाने के लिए बैंक से कर्ज लिया था, लेकिन बढ़ते टैक्स और सरकारी नियमों की जटिलताओं ने उसकी कमर तोड़ दी थी। उसने सरकार को टैक्स भी दिया था, और उम्मीद की थी कि उसकी मेहनत का सही मूल्य मिलेगा।
"हम जैसे लोग रात-दिन मेहनत करके फसल उगाते हैं, टैक्स देते हैं, लेकिन उसी पैसे से सरकार मुफ्त बिजली, राशन और सुविधाएं बांट रही है! ये कैसा न्याय है?" रामलाल ने गुस्से में कहा।
रोहित: बेरोजगारी और सरकारी सहारा
वहीं पास में खड़ा रोहित, जो लंबे समय से नौकरी की तलाश में था, रामलाल की बातों को सुनकर असहज महसूस करने लगा। उसने पढ़ाई की थी, लेकिन नौकरी नहीं मिल रही थी। सरकारी मुफ्त राशन और स्कॉलरशिप जैसी योजनाओं ने उसके जीवन में थोड़ी राहत दी थी।
"रामलाल चाचा, लेकिन अगर सरकार ये सुविधाएं न दे, तो हम जैसे गरीब लोग जिएंगे कैसे? मेरे पिता की उम्र हो गई है, वे अब काम नहीं कर सकते। अगर सरकार हमें थोड़ा सहारा न दे, तो हमारा गुजारा कैसे होगा?" रोहित ने तर्क दिया।
सुप्रीम कोर्ट की आवाज़
न्याय और संतुलन की ओर
रामलाल और रोहित दोनों यह सुनकर सोच में पड़ गए। क्या मुफ्त सुविधाएं पूरी तरह गलत हैं? क्या इन्हें जरूरतमंदों तक सीमित रखना चाहिए? क्या सरकार को ऐसी योजनाओं पर ध्यान देना चाहिए, जो युवाओं को आत्मनिर्भर बना सकें?
उस दिन, न केवल कोर्ट में बल्कि पूरे देश में यह बहस छिड़ गई कि सरकार का असली कर्तव्य क्या होना चाहिए—लोगों को राहत देना या उन्हें आत्मनिर्भर बनाना? जवाब शायद दोनों के बीच संतुलन में छिपा था।