विजयदशमी का सन्देश: अंतःकरण में स्थित रावण का दहन

Sooraj Krishna Shastri
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विजयदशमी का सन्देश: अंतःकरण में स्थित रावण का दहन
विजयदशमी का सन्देश: अंतःकरण में स्थित रावण का दहन


विजयदशमी का सन्देश: अंतःकरण में स्थित रावण का दहन

रावण का पराक्रम और उसका पतन

रावण के गर्जन से देवताओं के लोक तक हिल जाते थे। उसकी भयंकर गर्जना सुनकर देवताओं की स्त्रियों के गर्भ तक गिर जाते थे। जब वह अत्यंत क्रोधित होकर देवलोक की ओर बढ़ा, तो देवता मेरु पर्वत की गुफाओं में छिप गए। दसों दिशाओं के दिग्पाल तक भयभीत होकर अपने स्थानों को छोड़कर चले गए, जिससे रावण को कोई भी नहीं मिला। यह उसके विश्वविजय अभियान के बाद की स्थिति थी—एक ऐसा कालखंड जब उसने अपने बल और अहंकार के कारण समस्त लोकों को अपने वश में कर लिया था।

किन्तु, इस अपार शक्ति और सामर्थ्य के बावजूद, अंततः उसका भी पतन हुआ। प्रश्न उठता है—क्यों?

रावण को समझाने के प्रयास

रावण को समझाने का कार्य कई बार हुआ। विभीषण ने बार-बार समझाया कि अहंकार का अंत विनाश में होता है, परंतु रावण ने इसे अनसुना कर दिया। भगवान शंकर, जो रावण के आराध्य और गुरु समान थे, उन्होंने भी हनुमानजी के रूप में उसे चेताने का प्रयास किया। किंतु जब व्यक्ति पर काम, क्रोध, मद और लोभ का प्रभाव गहरा होता है, तब वह सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता।

गोस्वामी तुलसीदासजी ने स्पष्ट कहा है:

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥

हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ—ये सभी नरक के मार्ग हैं। इनका परित्याग कर श्रीराम का भजन कीजिए, जिन्हें संतगण भजते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश

भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है:

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत॥

अर्थात, नरक के तीन द्वार हैं—काम, क्रोध, और लोभ। ये आत्मा के पतन का कारण बनते हैं, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए।

अहंकार को लेकर श्रीकृष्ण आगे कहते हैं:

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥

इस संसार में समस्त कार्य प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रज, तम) द्वारा संचालित होते हैं, किंतु अहंकार से भ्रमित जीवात्मा यह मानने लगता है कि वह स्वयं इन कार्यों का कर्ता है। यही अज्ञान ही व्यक्ति के पतन का कारण बनता है।

रावण—हमारे भीतर भी स्थित है

हमारी पाँच ज्ञानेंद्रियाँ—आंख, कान, नाक, जीभ, और त्वचा,
पाँच कर्मेंद्रियाँ—हाथ, पैर, मुंह, गुदा, और लिंग,

यदि इन पर कोई वश नहीं रखता, तो वही व्यक्ति रावण के समान हो जाता है।

इसके विपरीत, जिसने अपने चार अंतःकरण—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार—पर विजय प्राप्त कर ली, वही सच्चे अर्थों में राम बन जाता है।

हनुमानजी के गुणों को दर्शाने वाला यह श्लोक इसी सत्य की ओर संकेत करता है:

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्

अर्थात, जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को अपने वश में कर लेता है, वही 'जितेन्द्रिय' कहलाता है। ऐसा व्यक्ति कभी भी पराजित नहीं होता।

आधुनिक समाज में रावण का अस्तित्व

आज समाज में बढ़ रही दुराचार, व्यभिचार, लोभ और अहंकार की प्रवृत्ति ही असली रावण है। केवल बाह्य रूप से रावण का पुतला जलाना ही विजयदशमी नहीं है, बल्कि अपने भीतर बसे काम, क्रोध, मद, लोभ और अहंकार रूपी रावण का दहन करना ही सच्ची विजयदशमी है।

हम अपने बच्चों को रावण दहन दिखाने अवश्य ले जाएं, किंतु उन्हें यह भी बताएं कि रावण जलाया क्यों जाता है? यदि संभव हो, तो अपने भीतर के रावण का भी दहन कर आइए। यही सच्ची विजय है!

विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएं!

🚩 जय श्री राम 🚩


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