भारतीय वैज्ञानिक: महर्षि विश्वामित्र

Sooraj Krishna Shastri
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भारतीय वैज्ञानिक:  महर्षि विश्वामित्र
भारतीय वैज्ञानिक:  महर्षि विश्वामित्र 


भारतीय वैज्ञानिक:  महर्षि विश्वामित्र 

वैदिक कवियों में विश्वामित्र का नाम इतना ऊँचा है कि बाद में यह नाम एक पद बन गया। आदिम ऋषियों में जो शीर्ष पर हैं, उनमें वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र का उल्लेख बहुत सम्मानपूर्वक होता है। ये जानकारियाँ तो मिलती हैं कि वसिष्ठ की तरह विश्वामित्र भी राजा सुदास के कुलपुरोहित थे। दोनों के बीच राजनीतिक संघर्ष भी रहा होगा। हमें यह मानना होगा कि राजनीतिक प्रभाव तत्कालीन होते हैं। काव्य-प्रतिभा का उन्नयन देखना हो या ऋषित्व का आकलन करना हो, तो वसिष्ठ और विश्वामित्र, दोनों ही समान रूप से महिमावान् होकर भारत की साहित्य परम्परा के शिरोमणि हैं।

विश्वामित्र गाधि के पुत्र हैं। वे अपना परिचय विश्वामित्र गाथिन् ही देते हैं। विश्वामित्र के पितामह कुशिक और प्रपितामह इषोरथ भी प्राचीनतम ऋषियों में देखे जाते हैं। गाथी कुशिक की मूल्यवान ऋचाओं के सूक्त ऋग्वेद में मिलते हैं। विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छंदा का प्रभाव तो इतना ज्यादा है कि वेदों के संकलनकर्ता ने ऋग्वेद के शुरुआती पूरे के पूरे नौ सूक्त मधुच्छंदा ऋषि के लिये हैं। इन सबसे यह तो पता चलता है कि विश्वामित्र के कुल का प्रभाव उस दौर के ज्ञान-विज्ञान की परम्परा में असाधारण था।

विश्वामित्र और उनके वंशधर सप्तसिन्धु की उपत्यकाओं में रहते थे। आश्रम की वैदिक संरचना विश्वामित्र के कुल की देन है। विश्वामित्र पर सर्वाधिक प्रभाव सप्तसिन्धु का ही पड़ा। उनकी पावन ऋचाओं को पढ़ते हुए बार-बार ऐसा लगता है, जैसे वे ऋचाएँ सप्तसिन्धु में नहाई हुई हैं। विश्वामित्र नदियों के साथ रहने वाले ऋषि के रूप में जाने जाते हैं। विपाशा और शुतुद्री नदी की स्तुति गाते हुए विश्वामित्र ने उन भरतों की सहायता की है, जो नदी पार करते हुए बाढ़ में फँस गये थे। विश्वामित्र ने नदियों के सम्मुख निवेदित होकर भक्तों को नदी पार करवाई। ऋग्वेद की ऋचाएँ इस कथन की पुष्टि करती हैं। 

ऋग्वेद का तीसरा मंडल विश्वामित्र का कहा जाता है, क्योंकि इस मंडल में सर्वाधिक ४७ सूक्त विश्वामित्र के ही हैं। शेष सभी सूक्त और उनके ऋषियों पर विश्वामित्र की छाया है। ऋग्वेद के नवम और दशम मंडल में भी उनके कई सूक्त मिलते हैं। जमदग्नि के साथ मिलकर भी उन्होंने मंत्र रचे, और एक जगह सप्त-ऋषियों की समवेत कविता में भी वे साथ-साथ हैं।

विश्वामित्र के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण नेतृत्व कविता करती है। वे अपने हृदय में कविता का आह्वान करते हुए भाव-विह्वल हो जाते हैं। विश्वामित्र इस विश्वास में जीते हैं कि एक दिन कविता अज्ञान के गहन तिमिर को हमेशा के लिये भेद डालेगी, और सत्य का साम्राज्य स्थापित होगा। वे मनुष्य को आनंद की खोज के लिये प्रेरित करते हैं। वे कहते हैं कि एक मथानी हम सबको जन्म के साथ दी गई है मंथन के लिये। हमने उससे अब तक मथ कर निकाले हैं जीवन के रहस्य। अभी और निकलेंगी पवित्र ज्वालाएँ, अभी और उगलेगा समुद्र।

 'अस्तीदमधिमन्थनमस्ति प्रजननं कृतम्। 

एतां विश्पत्नीमा भराग्निं मन्मथाम पूर्वथा।।'

विश्वामित्र से हमारा घनिष्ठ परिचय उस प्रसिद्ध सावित्री मंत्र के कारण है, जो गायत्री छंद में होने के कारण गायत्री मंत्र भी कहा जाता है। वैदिककाल से लेकर अब तक इस मंत्र की प्रभुता में कोई कमी नहीं आई। यह मंत्र ऋचा के स्वरूप में ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के ६२ वें सूक्त में है। इस सूक्त में  कुल १८ ऋचाएँ हैं, जिनमें इन्द्रावरुण, बृहस्पति, पूषा,सोम व मित्रावरुण के साथ सविता के लिये तीन ऋचाओं का एक समूह मिलता है। इनमें शुरू की दो ऋचाएँ निचृद्गायत्री और अंतिम ऋचा गायत्री छंद में है। स्पष्ट है कि प्रचलित मंत्र निचृद्गायत्री है। इन तीनों ऋचाओं को एक साथ देखने और समझने का आनंद कुछ तो भिन्न है। यह मंत्रत्रयी इस प्रकार है-

तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। 

धियो यो न: प्रचोदयात्।।

देवस्य  सवितुर्वयं  वाजयन्त: पुरन्ध्या।  

भगस्य  रातिमीमहे।।

देवं नर:सवितारं विप्रा यज्ञै:सुवृक्तिभि:। 

नमस्यन्ति धियेषिता।।

ऋग्वेद ३.६२.१०,११,१२

 इन ऋचाओं में विश्वामित्र सविता से प्रार्थना करते हुए कहते हैं-'हे सत्य के प्रकाश की वर्षा करने वाले हे सवितादेव! तुम्हारा वरेण्य तेज नित्य हमारे ध्यान में हो।तुम्हारे दिव्यज्ञान की ओर हमारे विचार प्रेरित होते रहें ।। हे ज्योतिर्मय प्रेरणाओं के अधिपति! हम तेजोमय और ओजपूर्ण जीवन की अभीप्सा करते हैं। तुम हमारी बुद्धि को वहाँ ले चलो, जहाँ भगवान् का प्रकाश और आत्मा का ऐश्वर्य हो।। हे अन्त:प्रेरणाओं के स्वामी! यज्ञ करते हुए हम तुम्हारे आलोक में आना चाहते हैं। निष्पाप होने के लिये हम तुम्हारे आगे झुके हुए हैं। हमारी बुद्धि को शुभकर्म की दिशा में प्रेरित करो।

 ऋग्वेद में आया विश्वामित्र-नदी संवाद तो अद्भुत है। यह विश्व के आदिम संवादों में से एक है। विश्वामित्र और नदियों के बीच का यह संवाद काव्य की दृष्टि से अनूठा है। विश्वामित्र के सामने जो नदियाँ हैं, वे हैं व्यास और सतलुज। इस प्रसिद्ध संवाद में ऋषि नदियों को ठहर कर प्रार्थना सुनने का निवेदन करता है। नदियाँ ठहरी तो नहीं, किन्तु झुक गईं कवि के मधुर वचन सुन कर। इस सुंदर  कथोपकथन में विश्वामित्र की काव्य-प्रतिभा के दर्शन होते हैं। विश्व साहित्य में नदी को सम्बोधित यह पहली कविता है, और इसका कोई जोड़ नहीं। उस पूरी कविता के मूल का भाव यहाँ प्रस्तुत है-

पहाड़ों के घर से निकल कर आई हो

दो घोड़ियों की तरह दौड़ती हुई स्पर्धा में,

या दो शुभ्र धेनुओं सी

भागी चली आ रही चाटती हुई

प्यार से बछड़े को,

हे नदियो! बहती हुई तुम

कितनी उद्दाम, कितनी वेगवती हो।।१॥


तुमको कोई पुरुषार्थी

भेज रहा आगे की ओर,

दोनों हाथ फैला कर तुम जा रही

रथ पर बैठी हुई समुद्र के पास,

लहरें आपस में चूमती हुईं

मिल जातीं तीव्र उत्कंठा में।।२।।


नदियो! तुम मातृवत्सला हो,


मैं आया हूँ तुम्हारे पास।

मेरी मलिनताएँ धो कर

तुम भर दोगी मुझमें अपनी शुचिताएँ,

शिशुओं को दुलारती हुई

तुम जा रही उस घर जहाँ तुम

बस जाओगी सदा के लिये।।३।।


ऋषिवर! हम बहती हुई जा रहीं उस धाम

जिसे देवों ने बनाया हमारे लिये।

हम रुक नहीं सकती पल भर,

कोई पुकारता हमें अनजान क्षितिज पर।।४।।


मैं कुशिक का पुत्र

निवेदित हूँ नदियो! तुम्हारे लिये।

मुहूर्त भर ठहरो, सुन लो मेरे वचन।

तुम ऋत से सम्पन्न हो

ले चलो मुझे अपने साथ वहाँ

जो तुम्हारा गन्तव्य है।।५।।


ऋषिवर! वज्रबाहु ने परिधियाँ तोड़ी,

उत्प्रेरक सुंदर हाथों ने हम नदियों को

मुक्त किया आगे के लिये।

हम उसी की आज्ञानुवर्तिनी

दौड़ रहीं अनवरत लक्ष्य की ओर।।६।।


सौ-सौ बार तुम बोलती हुई जाती हो

उसी की पराक्रम-कथाएँ,

बताती जाती हो कि किस तरह उसने

अहि को परास्त किया

और किस तरह भेद डाले असुरों के दुर्ग,

तुम कितनी भली लगती हो

इच्छा करती हुई लोकमंगल की ।।७।।


हे ऋषिवर! तुम भूल न जाना इन वचनों को,

युगों-युगों तक वीरता का जयघोष हो।

हे कवि! तुम्हारी इन स्तुतियों में

उसी का निवास हो,

हे पुरुष! तुम्हें नमस्कार।।८।।


नदियो! मेरी प्यारी बहनो!

मेरे वचन सुनो,

बड़ी दूर से आया मैं तुम्हारे लिये।

झुक जाओ मेरे लिये तनिक,

अपार सिन्धु से पार लगाने में

मेरी सहायता करो।।९॥


कवि! हम तुम्हारे वचन सुन रही हैं,

तुम दूर से चले आये हमारे समीप।

लो, मैं झुकती हूँ

जैसे शिशु को दूध पिलाती हुई माँ

या कोई तरुणी प्रिय के आलिंगन के लिये।।१०।।


मेरी प्रिय नदियो ! वर दो कि

ज्योति यजन करती हुईं

भारत की सन्तानें पार लग जाएँ,

मैं तुम्हारी स्तुति गाऊँगा

क्योंकि तुम आज्ञा का पालन करती

चली आ रही आदिकाल से।।११।।


प्रकाश की खोज में निकला हुआ भारत

अंतत: पार हुआ,

विप्र ने किया नदियों का मधुर स्तवन।

नदियो! प्रसन्न होओ,

तुम ही हमारा जीवन -हमारा आश्रय।

हमें अपने रस से सींचती हुई बहती रहो।।११।।


हे नदियो! तुम्हारी लहरों में जो उमंग है

वह शान्ति की उपज के लिये हो।

तुम मुक्त हो तो हमें भी मुक्ति दो,

तुम निष्पाप हो तो हमें भी निष्पाप करो

हमें बंधनमुक्त कर समृद्धि दो।।१३।।

(ऋग्वेद:३.३३.१ से १३ तक)

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