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अनुच्छेद 142 का दुरुपयोग लोकतांत्रिक शक्तियों के विरुद्ध 'परमाणु मिसाइल' |
अनुच्छेद 142 का दुरुपयोग लोकतांत्रिक शक्तियों के विरुद्ध 'परमाणु मिसाइल'
महामहिम उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा कि अनुच्छेद 142 का दुरुपयोग लोकतांत्रिक शक्तियों के विरुद्ध 'परमाणु मिसाइल' के समान है। उन्होंने यह भी कहा कि न्यायपालिका को 'सुपर संसद' के रूप में कार्य नहीं करना चाहिए और अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश नहीं दे सकतीं।
धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के उस हालिया फैसले पर आपत्ति जताई है, जिसमें राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति को समयसीमा निर्धारित की गई थी। उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति नहीं होनी चाहिए जहां अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश दें, क्योंकि यह संविधानिक संतुलन के खिलाफ है ।
भारत की संवैधानिक संस्थाएँ, न्यायपालिका और लोकतंत्र का टकराव
प्रस्तावना :
भारतीय लोकतंत्र की नींव उसके संविधान में निहित है, जो शासन, न्याय और जनसत्ता के बीच संतुलन बनाए रखने की परिपक्व प्रणाली प्रस्तुत करता है। हाल ही में राज्यसभा के इंटर्न सत्र में दिए गए एक उद्बोधन ने इन मूल स्तंभों—न्यायपालिका, विधायिका, और कार्यपालिका—पर गंभीर विमर्श को जन्म दिया है। यह भाषण मात्र संवैधानिक प्रक्रियाओं की समीक्षा नहीं है, बल्कि यह वर्तमान भारतीय शासन की नब्ज को छूने का साहसिक प्रयास है।
1. संविधान की आत्मा और लोकतांत्रिक चेतना :
संविधान केवल विधिक दस्तावेज नहीं, बल्कि एक जीवंत भावना है जो हर नागरिक की गरिमा की रक्षा करता है। भाषण में वक्ता ने संविधान के उस उदात्त स्वरूप की ओर ध्यान आकर्षित किया, जो न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की नींव पर समाज का निर्माण करता है।
2. न्यायपालिका की सर्वोच्चता या अपराजेयता?
वक्ता ने सुप्रीम कोर्ट की शक्ति को लोकतांत्रिक संतुलन के संदर्भ में रेखांकित किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय, संविधान की व्याख्या करने वाला सर्वोच्च निकाय है, लेकिन वह विधायिका से ऊपर नहीं है।
यह कथन भारत में ‘सामानांतर सत्ता केंद्र’ बनते जा रहे न्यायपालिका के व्यवहार पर एक प्रश्नचिह्न है। न्यायपालिका को जवाबदेही के साथ स्वतंत्रता मिले, यह लोकतंत्र की वास्तविक मांग है।
3. चुनाव आयोग और निष्पक्ष लोकतंत्र की आशा :
चुनाव आयोग जैसी संस्था को 'अस्वाभाविक न्यायिक निरीक्षण' से मुक्त रखना आवश्यक है। चुनावों की निष्पक्षता को बनाए रखने हेतु आयोग की स्वतंत्रता आवश्यक है, परंतु न्यायालयों द्वारा उसकी हर कार्रवाई पर रोक लगाना, एक तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करता है।
4. न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक अतिक्रमण :
बिना जनादेश के निर्णय लेना, नीति-निर्माण में दखल देना, या जनभावनाओं को दरकिनार कर 'लोकप्रियतावादी आदेश' देना—ये सभी न्यायिक अतिक्रमण के सूचक हैं। वक्ता ने इस पर विवेकपूर्ण चिंता जताई और यह रेखांकित किया कि न्यायिक समीक्षा का उद्देश्य संतुलन है, प्रतिस्पर्धा नहीं।
5. विधायिका की गरिमा और संसद की महत्ता :
लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंच संसद है—जहाँ प्रतिनिधित्व, बहस और विधि-निर्माण होता है। सुप्रीम कोर्ट के कुछ निर्णयों ने कई बार संसद द्वारा पारित कानूनों पर रोक लगाई है, जिससे प्रतिनिधिक लोकतंत्र की आत्मा को ठेस पहुँची है। वक्ता ने यह स्पष्ट किया कि संसद ‘जनादेश’ का प्रतिनिधित्व करती है, और उसे सर्वोच्चता मिलनी चाहिए।
6. आपातकाल और वर्तमान चेतावनियाँ :
वक्ता ने आपातकाल (1975) के दौर की स्मृति दिलाते हुए आगाह किया कि लोकतंत्र की संस्थाएँ तब खतरे में आई थीं। उस संकट को मात देने के बाद जो संस्थागत पुनरुत्थान हुआ, वह आज फिर एक विचारणीय मोड़ पर खड़ा है।
आज जब न्यायपालिका मीडिया ट्रायल, जनहित याचिकाओं और राजनीतिक निर्णयों में बढ़ती सक्रियता दिखा रही है, तब यह पुनः आवश्यक है कि हम संविधान के मूल भाव को दोहराएं।
7. विवेकपूर्ण संवाद की आवश्यकता :
यह भाषण टकराव नहीं, संवाद का निमंत्रण था। यह संविधान के स्तंभों को परस्पर संतुलन में लाने का विचार है, जहाँ एक संस्था दूसरी को न दबाए, न डराए। लोकतंत्र तभी सशक्त होगा जब संस्थाएँ संविधान की मर्यादाओं में रहकर कार्य करें।
निष्कर्ष :
राज्यसभा में दिया गया यह वक्तव्य आने वाले समय में भारतीय लोकतंत्र की दिशा तय करने में सहायक हो सकता है। यह लोकतंत्र को भीड़ तंत्र बनने से रोकने, न्यायपालिका को संतुलित करने, और विधायिका को उसकी गरिमा लौटाने का आह्वान है।
आज आवश्यकता है कि हम संविधान की आत्मा से जुड़ें, केवल उसकी व्याख्या नहीं, बल्कि उसकी भावना को आत्मसात करें।