संस्कृत श्लोक: "अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत श्लोक: "अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

🙏 जय श्री राम 🌹 सुप्रभातम् 🙏
 प्रस्तुत यह श्लोक एक नीतिशास्त्रीय कथन है, जो समाज की कठोर वास्तविकताओं को उजागर करता है। आइए इसका विस्तृत विश्लेषण करें:


श्लोक

अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च ।
अजापुत्रं बलिं दद्यात् देवो दुर्बलघातकः ॥


शाब्दिक विश्लेषण:

  • अश्वम् — घोड़ा
  • नैव — नहीं
  • गजम् — हाथी
  • व्याघ्रम् — बाघ/शेर
  • अजापुत्रम् — बकरी का बच्चा
  • बलिं दद्यात् — बलिदान किया जाता है
  • देवः — देवता (यहाँ प्रतीकात्मक)
  • दुर्बलघातकः — दुर्बल को मारने वाला

व्याकरणिक विश्लेषण:

  • नैव = न + एव : “नहीं ही” का बोधक
  • बलिं दद्यात् : लोट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन (देना चाहिए)
  • घातकः : "हिंसा करने वाला", “संहारक”

हिन्दी भावार्थ:

देवता कभी घोड़े की बलि नहीं लेते, न ही हाथी की, न ही बाघ की। बलि में केवल बकरी के बच्चे को ही चढ़ाया जाता है। इससे प्रतीत होता है कि देवता भी दुर्बल को ही मारते हैं।

अर्थात्, समाज में या सत्ता में भी वही दबाया जाता है जो दुर्बल होता है, शक्तिशाली नहीं।


आधुनिक सन्दर्भ में व्याख्या:

यह श्लोक प्रतीकात्मक आलोचना है—
यह "देव" कोई ईश्वर नहीं, सामाजिक व्यवस्था, सत्ता या नीति-निर्माता हैं।

  • बलशाली को कोई छूता नहीं — जैसे घोड़ा, हाथी, बाघ।
  • दुर्बल को ही शिकार बनाया जाता है — जैसे बकरी का बच्चा।
  • यह नीति, न्याय, शासन, या शक्ति के दुरुपयोग की ओर इशारा करता है कि जब व्यवस्था पक्षपातपूर्ण हो, तब सबसे अधिक पीड़ा निर्बल और असहाय को ही सहनी पड़ती है।

नीतिपरक निष्कर्ष (संदेश):

  • समाज में यदि न्याय कमजोर की रक्षा न करे, और बलशाली को छूट दे, तो ऐसी व्यवस्था स्वयं "दुर्बलघातक" हो जाती है।
  • यह श्लोक चेतावनी देता है कि "बलिदान" सदा दुर्बल का ही क्यों होता है?

संवादात्मक नीति-कथा — "देवालय की बलि"

पात्र:

  • शिष्य – एक जिज्ञासु बालक
  • गुरु – एक प्रबुद्ध मुनि
  • अजापुत्र – एक मासूम बकरी का बच्चा
  • राजकुमार – एक शक्ति-सम्पन्न बालक
  • गृहस्थजन – कुछ सामान्य ग्रामीण

[दृश्य: एक वन में आश्रम के समीप स्थित एक पुरातन मंदिर, जहाँ बलि की तैयारी हो रही है]

शिष्य: (आश्चर्य से)
गुरुदेव! आपने सुना? आज फिर बलि में उस बकरी के बच्चे को चढ़ाया जाएगा। क्यों सदा उसी को बलि दी जाती है?

गुरु: (मुस्कुराते हुए)
यह वही पूछता है जो भीतर से न्यायप्रिय होता है। तूने सही देखा शिष्य।
क्या तूने कभी किसी बलवान पशु को बलि में जाते देखा?

शिष्य: नहीं गुरुदेव! न घोड़ा, न हाथी, न शेर। केवल बकरी या भेड़ जैसे निरीह प्राणी ही बलिदान होते हैं।

गुरु: (श्लोक का उच्चारण करते हैं)
“अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च।
अजापुत्रं बलिं दद्यात् देवो दुर्बलघातकः॥”

समझा तू इसका तात्पर्य?

शिष्य: इसका अर्थ तो यही हुआ कि शक्तिशाली को कोई कुछ नहीं कहता, और दुर्बल ही सदा संकट में डाल दिया जाता है।

[उसी समय, अजापुत्र – बकरी का बच्चा, रोते हुए बोलता है (काल्पनिक संवाद):]

अजापुत्र:
हे गुरुदेव! क्या मेरा अपराध केवल यही है कि मैं शक्तिशाली नहीं? मेरे प्राणों का मूल्य क्यों नहीं?

गुरु: (गंभीरता से)
नहीं बालक, तेरा अपराध नहीं, समाज की वह कायर नीति दोषी है जो शक्ति से नहीं, दुर्बलता से न्याय करता है।

[राजकुमार आता है, हाथ में तलवार लिए]

राजकुमार: गुरुदेव! राजपुरोहित ने कहा है— "बलि आवश्यक है"।

गुरु: (धैर्यपूर्वक)
यदि बलि शक्ति की पूजा है, तो क्यों न कोई सिंह चढ़े? यदि भावनाओं की, तो क्यों न हृदय चढ़े?
क्या न्याय यही है कि जिसकी कोई रक्षा न करे, वही सदा बलि का पात्र बने?

[गृहस्थजन एकत्र होते हैं और चर्चा करते हैं]

गृहस्थजन 1:
गुरुदेव ठीक कहते हैं। यह कोई पूजा नहीं, यह भयभीत हृदयों की हिंसा है।

गृहस्थजन 2:
हमें ऐसी पूजा नहीं चाहिए जिसमें कोई निर्दोष पीड़ित हो।

[सब मिलकर बलि रोक देते हैं। अजापुत्र मुक्त होता है]

गुरु (शिष्य से):
यही नीति है— जब तक समाज में साहस नहीं होगा, तब तक दुर्बल ही बलि का पात्र रहेगा। लेकिन जब न्याय और करुणा मिलेंगे, तभी सच्ची पूजा होगी।


नीति-संदेश:

जिस समाज में केवल दुर्बल ही बलिदान होता है, वह समाज आत्म-चिंतन करे— कहीं उसकी पूजा ही पाप न बन जाए।


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