![]() |
संस्कृत श्लोक: "अमृतं शिशिरे वह्निरमृतं प्रियदर्शनम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "अमृतं शिशिरे वह्निरमृतं प्रियदर्शनम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
🙏जय श्री राम 🌹सुप्रभातम्🙏
प्रस्तुत नीति-श्लोक अत्यंत मधुर, जीवनपरक और अनुभवसिद्ध है। नीचे इसका शुद्ध पाठ, शाब्दिक विश्लेषण, व्याकरणिक विवरण, हिन्दी अनुवाद और आधुनिक सन्दर्भ सहित विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है:
श्लोक:
अमृतं शिशिरे वह्निरमृतं प्रियदर्शनम् ।
अमृतं राजसंमानं अमृतं क्षीरभोजनम् ॥
शाब्दिक विश्लेषण:
पद | अर्थ |
---|---|
अमृतम् | अमृत के समान, परम सुखद अनुभव |
शिशिरे | शिशिर ऋतु में, अर्थात् शीतकाल में |
वह्निः | अग्नि, आग |
प्रियदर्शनम् | प्रिय व्यक्ति का दर्शन |
राजसंमानम् | राजा या शासक द्वारा दिया गया सम्मान |
क्षीरभोजनम् | दूध में पका हुआ भोजन, विशेषतः खीर |
व्याकरणिक संरचना:
- प्रत्येक पद में "अमृतं" विशेषण है, जो चार विषयों की तुलना "अमृत" से कर रहा है।
- यह अन्वित समास या तुलनात्मक दृष्टि से प्रयोग किया गया है।
- वाक्य संरचना विषय + विशेषण के रूप में सरल लेकिन प्रभावी है।
हिन्दी भावार्थ (सरल अनुवाद):
- सर्दियों में अग्नि के पास बैठना अमृत के समान है।
- प्रिय व्यक्ति के दर्शन का अनुभव भी अमृत के समान है।
- जब कोई राजा (या उच्च अधिकारी) सम्मान देता है, वह भी अमृत के तुल्य होता है।
- दूध से बने व्यंजन (खीर आदि) का स्वाद भी अमृतमय अनुभव देता है।
अर्थात, ये चार अनुभव जीवन में अत्यंत मधुर, आनंददायक और मूल्यवान माने जाते हैं।
आधुनिक सन्दर्भ में व्याख्या:
-
शीत ऋतु में अग्नि:आज भी सर्दियों में अलाव, हीटर या धूप जीवन के सुखों में गिना जाता है। यह केवल ताप ही नहीं, सामाजिकता और स्नेह का केन्द्र भी बनता है।
-
प्रिय व्यक्ति का दर्शन:जब हम किसी प्रियजन, मित्र, स्नेही या आत्मीय से मिलते हैं, तो हृदय में गहन सुख का संचार होता है। यह मानसिक ऊर्जा का अमृत है।
-
सम्मान का अनुभव:चाहे वो नौकरी में हो, समाज में हो या पारिवारिक स्तर पर — जब हमें हमारे गुणों का सार्वजनिक रूप से सम्मान मिलता है, तो आत्मविश्वास और गौरव का अनुभव होता है। यह आत्मिक अमृत है।
-
क्षीरभोजन (दूध-चावल):यह केवल स्वाद का प्रतीक नहीं, बल्कि सात्विकता, शांति और संतुलन का प्रतीक है। यह भारतीय भोजन संस्कृति का शुद्धतम रूप है।
नैतिक दृष्टिकोण:
सुख की प्राप्ति केवल विलास या भोग से नहीं, प्राकृतिक, आत्मिक और सामाजिक सामंजस्य से होती है।जो व्यक्ति इन साधारण दिखने वाले परंतु गहन सुखद क्षणों को पहचानता है, वही वास्तव में जीवन को “रसपूर्ण” जीता है।
संवादात्मक नीति-कथा – "चार अमृत क्षण"
पात्र:
- शिष्य – एक नवयुवक जो जीवन के सुखों को समझना चाहता है
- गुरु – एक तपस्वी, जो अनुभव से जीवन का रस चख चुके हैं
- राजा – न्यायप्रिय शासक
- प्रियजन – शिष्य का सखा या प्रिय मित्र
[दृश्य: हिमशीतल ऋतु में एक आश्रम, जहाँ अग्निकुंड के पास गुरु और शिष्य बैठे हैं]
शिष्य (हाथ सेंकते हुए):
गुरुदेव! यह अग्नि कितनी सुखद लग रही है। ऐसा लगता है मानो जीवन को नया रस मिल गया हो।
गुरु:
हे शिष्य! तूने जीवन का एक अमृत पान किया है।
श्रृणु –
“अमृतं शिशिरे वह्निरमृतं प्रियदर्शनम् ।
अमृतं राजसंमानं अमृतं क्षीरभोजनम् ॥”
शिष्य:
गुरुदेव, यह श्लोक तो अत्यंत मधुर है। कृपा करके इसका मर्म बताइए।
गुरु:
वत्स,
- शिशिर ऋतु में अग्नि के पास बैठना — यह शरीर और मन दोनों को जीवन देता है।
- किसी प्रिय का दर्शन — आत्मा को आह्लादित करता है।
- जब राजा या समाज तुम्हारे कार्य का सम्मान करे — आत्मबल को पुष्ट करता है।
- और क्षीरान्न (दूध-चावल) — यह शरीर और भावनाओं को पूर्णता देता है।
[इतने में प्रियजन आता है – मुस्कुराते हुए]
प्रियजन:
मित्र! वर्षों बाद तुम्हारा दर्शन हुआ। क्या यह भी वही "प्रियदर्शन" का अमृत नहीं?
शिष्य (प्रफुल्लित हो):
निःसंदेह! गुरुदेव, यह श्लोक आज साक्षात मेरे जीवन में उतर आया।
[फिर राजा प्रकट होता है, एक पत्र लिए]
राजा:
हे युवक! तुम्हारे सत्कर्मों से समाज को लाभ हुआ है। यह हमारा सम्मान-पत्र स्वीकार करो।
शिष्य (विनीत भाव से):
गुरुदेव! यह तीसरा अमृत क्षण! और यदि आज आप क्षीरान्न भोजन कराएं तो...
[गुरु हँसते हैं और कुटिया से दूध-चावल मँगवाते हैं]
गुरु:
चारों अमृत तत्त्वों से भरकर ही जीवन में संतुलन आता है —
ताप से सुख, स्नेह से हर्ष, सम्मान से आत्मबल, और भोजन से पूर्णता।
नीति-संदेश:
जीवन के चार सहज परंतु अनमोल सुख –सर्दी में अग्नि, प्रिय का दर्शन, यश का सम्मान, और दूध-चावल का भोजन —ये ही छोटे-छोटे क्षण, जीवन को मधुरता और अमृतता से भर देते हैं। इन्हें कभी तुच्छ न समझो।