एकादशी व्रत कथा महत्तम
यहाँ दो एकादशी व्रत कथाओं को एक सुंदर, भावपूर्ण एवं आकर्षक शैली में विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया गया है। शैली ऐसी रखी गई है कि यह सुनाने योग्य, प्रवचन योग्य हो:
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एकादशी व्रत कथा महत्तम |
🌺 एकादशी व्रत कथा - भाग 1
"भक्ति का भोज – जहाँ प्रेम है, वहाँ भगवान हैं"
बहुत समय पहले की बात है। एक ऐसे पुण्यात्मा राजा का राज्य था जहाँ एकादशी व्रत का विशेष महत्व था। उस राज्य की अनोखी बात यह थी कि एकादशी के दिन न तो किसी के घर अन्न पकता था, न बाजारों में अन्न बिकता था। यहाँ तक कि गाय, बैल और कुत्तों तक को अन्न नहीं दिया जाता था। सब लोग फलाहार करते थे, और भगवान की भक्ति में लीन रहते थे।
एक दिन दूर देश से एक पुरुष वहाँ आ पहुँचा। भूखा-प्यासा वह राजा के दरबार में गया और बोला —
"महाराज! कृपया मुझे नौकरी दे दें, मैं सेवा करूंगा।"
राजा ने उसकी बात सुनकर कहा —
"तुम्हें भोजन, वस्त्र, निवास सब मिलेगा, परंतु एक शर्त है —
एकादशी के दिन तुम्हें अन्न नहीं मिलेगा।"
उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पर जब पहली एकादशी आई, और उसे फलाहार दिया गया, तो वह बेचैन हो उठा। उसने कहा —
"महाराज! केवल फलाहार से मेरा पेट नहीं भरता। कृपा कर मुझे अन्न दे दें।"
राजा ने उसे उसकी स्वीकृति की शर्त याद दिलाई, पर वह नहीं माना। अंततः राजा ने उसे कुछ आटा, दाल, चावल दे दिए।
वह व्यक्ति उन्हें लेकर नदी तट गया, स्नान किया, भोजन पकाया और जैसे ही भोजन तैयार हुआ, उसने प्रेमपूर्वक पुकारा —
"आओ प्रभु! भोजन तैयार है। कृपा कर पधारो।"
❖ आश्चर्य!
उसकी इस सच्ची श्रद्धा और बुलावे पर भगवान श्रीहरि स्वयं पीताम्बरधारी चतुर्भुज रूप में प्रकट हो गए।
वे मुस्कुराते हुए आए और उसके साथ प्रेमपूर्वक भोजन करने लगे।
भोजन के बाद अंतर्धान हो गए।
पंद्रह दिन बीते। फिर एकादशी आई। उस सेवक ने राजा से कहा —
"महाराज! इस बार दुगुना अन्न दीजिए। एक भाग मेरा और दूसरा भाग मेरे अतिथि का है।"
राजा चकित! पूछा —
"कौन अतिथि?"
उसने सरलता से उत्तर दिया —
"भगवान नारायण! वे मेरे साथ भोजन करते हैं।"
यह सुनकर राजा को विश्वास न हुआ।
उसने कहा —
"भगवान मेरे जैसे तपस्वी को दर्शन नहीं देते, फिर तुम्हारे जैसे साधारण व्यक्ति को क्यों?"
सेवक बोला —
"महाराज! यदि विश्वास न हो तो आज मेरे साथ चलिए।"
राजा छिपकर पेड़ के पीछे बैठ गया।
सेवक ने स्नान किया, प्रेम से भोजन बनाया और शाम तक भगवान को पुकारता रहा।
"हे प्रभु! आओ ना, भोजन ठंडा हो रहा है..."
परंतु आज भगवान नहीं आए।
तब वह बोला —
"यदि आप नहीं आए, तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूंगा!"
❖ भगवान अंतर्मन के भाव पढ़ते हैं।
जैसे ही उसने नदी की ओर कदम बढ़ाए, भगवान श्रीहरि तत्काल प्रकट हो गए।
उन्होंने उसे गले लगाया, साथ बैठकर भोजन किया और अंत में कहा —
"वत्स! अब चलो, तुम्हारा कार्य यहाँ पूर्ण हुआ।"
भगवान ने उसे अपने विमान में बिठाया और अपने परमधाम ले गए।
राजा यह सब देख कर स्तब्ध रह गया।
उसके मन में ज्ञान उदित हुआ —
"व्रत-उपवास का वास्तविक लाभ तब ही है, जब मन शुद्ध हो, श्रद्धा गहराई से जुड़ी हो।"
उस दिन से राजा ने भी मन, वचन और कर्म से पूर्ण भक्ति के साथ एकादशी का पालन करना प्रारंभ कर दिया, और अंत में परमगति को प्राप्त हुआ।
🌸 एकादशी व्रत कथा - भाग 2
"धर्म की रक्षा में प्राण न्योछावर"
एक अन्य राज्य में एक राजा राज्य करता था जिसकी प्रजा अत्यंत धर्मनिष्ठ थी।
एकादशी का दिन वहाँ व्रत और भक्ति का पर्व होता था। न कोई अन्न बेचता था, न पकाता था। सब लोग फलाहार करके भगवान का स्मरण करते।
भगवान श्रीविष्णु ने एक दिन सोचा —
"आओ, इस राजा की परीक्षा ली जाए!"
वे एक अत्यंत सुंदर स्त्री का रूप लेकर नगर के मार्ग पर बैठ गए। जब राजा उधर से गुज़रा, उसकी दृष्टि उस रूपवती पर पड़ी और वह आकर्षित हो गया।
राजा ने पूछा —
"हे सुंदरी! कौन हो तुम?"
वह बोली —
"मैं निराश्रिता हूं, इस नगर में मेरा कोई नहीं।"
राजा ने कहा —
"तुम मेरी रानी बन जाओ। मेरे महल में चलो।"
वह स्त्री बोली —
"ठीक है, लेकिन एक शर्त है —
राज्य का अधिकार मुझे देना होगा, और जो भोजन मैं बनाऊं, तुम्हें खाना होगा।"
प्रेमांध राजा ने यह भी स्वीकार कर लिया।
अगले दिन एकादशी थी।
नई रानी ने आदेश दिया —
"बाजारों में अन्न बिकेगा, घरों में मांस-मछली पकेगी!"
राजा ने विरोध किया —
"रानी! आज एकादशी है, मैं तो फलाहार करूंगा।"
तब रानी ने कठोरता से कहा —
"यदि तुमने मेरे बनाए भोजन को नहीं खाया, तो मैं तुम्हारे पुत्र का सिर काट दूंगी!"
राजा ने यह बात बड़ी रानी से कही।
बड़ी रानी ने उत्तर दिया —
"महाराज! धर्म न छोड़ें। पुत्र तो और हो सकते हैं, पर धर्म नहीं मिलेगा।"
उसी समय उनका पुत्र राजकुमार वहाँ आ गया। उसने माँ के आँसू देखे और कारण जानकर गर्व से कहा —
"पिताजी के धर्म की रक्षा के लिए मैं सिर कटवाने को तैयार हूँ।"
जैसे ही राजा तलवार उठाने चला —
❖ उसी क्षण रानी के रूप से भगवान विष्णु प्रकट हो गए!
वे बोले —
"राजन! यह तुम्हारी परीक्षा थी, और तुम धर्म के रक्षक बनकर उत्तीर्ण हुए हो।"
राजा ने कहा —
"प्रभु! आपका दिया सब कुछ है। अब आप उद्धार करें।"
भगवान ने वरदान दिया, विमान भेजा।
राजा ने राज्य पुत्र को सौंप दिया और वैकुण्ठ धाम को प्रस्थान किया।
🌿 एकादशी का मर्म:
"केवल उपवास नहीं, मन का उपरम भी व्रत है।"
"जहाँ श्रद्धा है, वहाँ भगवान हैं। जहाँ धर्म की रक्षा है, वहीं स्वर्ग का द्वार है।"