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"Decode the Truth: भारतीय न्याय दर्शन(nyaya darshan) की ताकत" |
"Decode the Truth: भारतीय न्याय दर्शन(nyaya darshan) की ताकत"
भूमिका:
भारतीय दर्शन की विविध धाराओं में न्याय दर्शन एक अत्यंत तर्कसंगत, विश्लेषणात्मक और वैज्ञानिक परंपरा है। यह केवल आत्मा, मोक्ष, और ईश्वर जैसे आध्यात्मिक विषयों की चर्चा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह ज्ञान की प्रक्रिया, तर्क की विधियाँ, विवेक आधारित सोच, और बुद्धिसंगत संवाद के माध्यम से सत्य तक पहुँचने का मार्ग प्रस्तुत करता है।
न्याय दर्शन का इतिहास एवं स्रोत:
न्याय दर्शन का मूल श्रेय महर्षि गौतम को दिया जाता है जिन्होंने न्यायसूत्र की रचना की। यह सूत्र-शैली में रचित ग्रंथ अपने भीतर गूढ़ अर्थ समेटे हुए है। कालांतर में आचार्य वात्स्यायन (न्याय भाष्य), उद्योतकर (वार्तिक), वाचस्पति मिश्र (तात्पर्य टीका) और उदयनाचार्य (कुसुमांजलि) जैसे महान आचार्यों ने न्याय के सिद्धांतों को और स्पष्ट किया। बाद में गंगेश उपाध्याय ने नव्य न्याय की नींव रखी, जिसने ज्ञान की प्रक्रिया को विश्लेषणात्मक और भाषाशास्त्र-निरपेक्ष ढंग से प्रस्तुत किया।
दर्शन की मूल स्थापना:
न्याय दर्शन आस्तिक परंपरा में आता है, अर्थात यह वेदों को प्रमाण मानता है और ईश्वर को स्वीकार करता है। इसका प्राथमिक उद्देश्य है अज्ञान जनित दुख से मुक्ति, अर्थात मोक्ष।
यह दर्शन मानता है कि समस्त संसार दुखमय है – सर्वं दुःखम्। इस दुख का मूल कारण मिथ्या ज्ञान (अज्ञान) है और इसका निवारण तत्त्वज्ञान द्वारा ही संभव है।
ज्ञान का स्वरूप और प्रमाण:
न्याय दर्शन के अनुसार प्रमा (सत्य ज्ञान) तक पहुँचने के चार प्रमाण (ज्ञान के साधन) हैं:
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प्रत्यक्ष – इंद्रिय और मन के माध्यम से सीधा अनुभव।
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अनुमान – कारण और प्रभाव के निरपेक्ष संबंध पर आधारित ज्ञान।
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उपमान – तुलना के आधार पर प्राप्त ज्ञान।
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शब्द – आप्त पुरुष या वेद से प्राप्त प्रमाणिक ज्ञान।
इन प्रमाणों की विशद व्याख्या न्यायशास्त्र की विशेषता है, जैसे प्रत्यक्ष के छह सन्निकर्ष (संपर्क) और अनुमान के पंचावय वाक्य।
ज्ञान की बाधाएँ और प्रमेय:
न्याय दर्शन बताता है कि राग, द्वेष और मोह – ये तीन दोष हमारे कर्मों की प्रवृत्ति का कारण बनते हैं और हमें पुनर्जन्म के चक्र में बाँधते हैं। इससे छुटकारा पाने के लिए 12 प्रमेयों का सच्चा ज्ञान आवश्यक है:
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आत्मा
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शरीर
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इन्द्रियाँ
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मन
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इन्द्रियगोचर विषय
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बुद्धि
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दोष
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प्रवृत्ति
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फल
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पुनर्जन्म
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दुःख
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मोक्ष
तर्क और विचार प्रक्रिया:
न्याय दर्शन में तर्कशास्त्र का बड़ा योगदान है। यह न केवल सोचने के नियमों को परिभाषित करता है, बल्कि वाद, जल्प और वितण्डा जैसी बहसों का विश्लेषण करता है। इसमें हेत्वाभास, निग्रहस्थान, और तर्क का विवेचन है जो संवाद को तर्कसंगत, निष्पक्ष और उद्देश्यपरक बनाते हैं।
ईश्वर का सिद्धांत:
न्याय दर्शन ईश्वर को निमित्त कारण मानता है – वह सृष्टि का कर्ता, कर्मफलदाता और वेदों का प्रणेता है। ईश्वर का साक्ष्य अनुमान के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है, जैसे कार्यत: ईश्वरसिद्धिः – क्योंकि संसार एक कार्य (रचना) है, अतः उसका कोई कर्ता अवश्य होगा।
कारणवाद (Causation):
न्याय दर्शन असत्कार्यवाद का पक्षधर है, अर्थात कार्य (रचित वस्तु) अपने कारण में पहले से विद्यमान नहीं होता। इसके तीन प्रकार के कारण हैं:
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समवाय कारण – जैसे मिट्टी, जिसमें घड़ा बना।
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असमवाय कारण – गुण, जैसे रंग।
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निमित्त कारण – कर्ता, जैसे कुम्हार।
न्याय और वैशेषिक का संबंध:
न्याय और वैशेषिक दर्शन परस्पर पूरक हैं। वैशेषिक पदार्थों की प्रकृति की चर्चा करता है (Ontology), जबकि न्याय ज्ञान के साधनों और प्रक्रिया की विवेचना करता है (Epistemology)। इनका सम्मिलन न्याय-वैशेषिक परंपरा के रूप में प्रसिद्ध है।
न्याय दर्शन की समकालीन उपयोगिता:
आज के सूचना-प्रवाहित युग में न्याय दर्शन की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है:
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यह आलोचनात्मक सोच (Critical Thinking) को विकसित करता है।
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यह तथ्य-आधारित संवाद को बढ़ावा देता है।
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यह तर्क-संगत निर्णय लेने में सहायता करता है।
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यह अंधविश्वास और भ्रम से बचाता है।
उपसंहार:
न्याय दर्शन केवल एक दार्शनिक प्रणाली नहीं, बल्कि सोचने और जानने की कला है। यह हमें सिखाता है कि कैसे हम विवेकपूर्वक निर्णय लें, कैसे हम प्रमाण और तर्क के आधार पर सत्य को पहचानें, और कैसे आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानकर मोक्ष प्राप्त करें। यह भारत की चिंतन परंपरा की एक अद्भुत धरोहर है जो आज भी हमारी बौद्धिक और नैतिक यात्रा का पथप्रदर्शक बन सकती है।