अध्यात्म: देह धरे का दंड है, सब काहू को होय

Sooraj Krishna Shastri
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अध्यात्म: देह धरे का दंड है, सब काहू को होय
अध्यात्म: देह धरे का दंड है, सब काहू को होय


अध्यात्म: देह धरे का दंड है, सब काहू को होय

देह धरे का दंड है, सब काहू को होय।

ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मूरख भुगते रोय॥

कबिरा मैं तो तब डरूं, जो मोही को होय।

बीच बुढ़ापा आपदा, सब काहू को होय॥

बंदे क्यों करनी करे, क्यों करे पछताय।

बोये पेड़ बबूल के, आम कहां से खाय॥

अर्थ —

देहधारण का दण्ड सबको भुगतना पड़ता है, विद्वान् ज्ञान का व्यवहार करते हैं, अज्ञानी विलाप करते हैं। कबीरदास जी कहते हैं, मैं तब डरता, यदि यह केवल मेरे साथ होता। मृत्यु, बुढ़ापा और संकट सभी के लिए अनिवार्य है। हे मनुष्य, तू क्यों कर्म करता है, किए हुए कर्म पर क्यों पछताता है बबूल बोकर आम तू कैसे खा सकता है।

 दुख को ईश्वर द्वारा दिया गया एक उपहार माना गया है। यह जीवन के कठिन समय में भी हमें ईश्वर से जुड़ने और अपनी शक्ति का उपयोग करने की प्रेरणा देता है। दुख के दौरान, हम अपने कर्मों के परिणामों को समझ सकते हैं और ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति को मजबूत कर सकते हैं।

तजि माया सेइअ परलोका।

मिटहिं सकल भवसंभव सोका॥ 

देह धरे कर यह फलु भाई।

भजिअ राम सब काम बिहाई॥ 

माया (विषयों की ममता-आसक्ति) को छोड़कर परलोक का सेवन (भगवान के दिव्य धाम की प्राप्ति के लिए भगवत्सेवा रूप साधन) करना चाहिए, जिससे भव (जन्म-मरण) से उत्पन्न सारे शोक मिट जाएँ। हे भाई! देह धारण करने का यही फल है कि सब कामों (कामनाओं) को छोड़कर श्री रामजी का भजन ही किया जाए॥

जब भगवान सृष्टि की रचना कर रहे तो उन्होंने जीव को कहा कि तुम्हे मृतलोक जाना पड़ेगा,मैं सृष्टि की रचना करने जा रहा हूँ। 

ये सुन जीव की आँखों मे आंसू आ गए।वो बोला प्रभु कुछ तो ऐसा करो की मैं लौटकर आपके पास ही आऊँ। भगवान को दया आ गई।उन्होंने दो बातें की जीव के लिए, पहला संसार की हर चीज़ में अतृप्ति मिला दी, कि तुझे दुनिया मे कुछ भी मिल जाये तू तृप्त नहीं होगा। तृप्ति तुझे तभी मिलेगी जब तू मेरे पास आएगा और दूसरा सभी के हिस्से मे थोडा-थोडा दुःख मिला दिया कि हम लौट कर ईश्वर के पास ही पहुचें। 

 इस तरह हर किसी के जीवन मे थोडा दुःख है। जीवन मे दुःख या विषाद हमें ईश्वर के पास ले जाने के लिए है, लेकिन हम चूक जाते है.हमारी समस्या क्या है कि हर किसी को दुःख आता है, हम भागते है ज्योतिष के पास,अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के पास, कुछ होने वाला नहीं। 

 थोड़ी देर का मानसिक संतोष बस यदि,दुखो से घबराये नहीं और ईश्वर का प्रसाद समझ कर आगे बढे तो बात बन जाती है। यदि हम ईश्वर से विलग होने के दिनों को याद कर ले तो बात बन जाती है और जीव दुखो से भी पार हो जाता है। 

 दुःख तो ईश्वर का प्रसाद है।दुखो का मतलब है, ईश्वर का बुलावा है।वो हमें याद कर रहा है। पहले भी ये विषाद और दुःख बहुत से संतो के लिए ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बन चुका है।

विपद: सन्तु ता: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो।

भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्॥

 सामान्यतः दुःखी, दीन-दुःखी, बुद्धिमान और जिज्ञासु लोग, जिन्होंने कोई पुण्य कर्म किया है, भगवान की पूजा करते हैं या करना शुरू करते हैं। अन्य लोग, जो केवल दुष्कर्मों पर ही पलते हैं, चाहे वे किसी भी स्तर के क्यों न हों, मायावी शक्ति के बहकावे में आकर भगवान के पास नहीं पहुँच पाते। इसलिए, एक धर्मपरायण व्यक्ति के लिए, यदि कोई विपत्ति आती है, तो भगवान के चरण कमलों की शरण लेने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। भगवान के चरण कमलों का निरंतर स्मरण करना जन्म-मृत्यु से मुक्ति की तैयारी करना है। इसलिए, भले ही तथाकथित विपत्तियाँ हों, उनका स्वागत है क्योंकि वे हमें भगवान को याद करने का अवसर देती हैं, जिसका अर्थ है मुक्ति।

जिसने भगवान के चरणकमलों की शरण ले ली है, जो अज्ञान रूपी सागर से पार जाने के लिए सबसे उपयुक्त नाव माने गए हैं, वह उसी प्रकार मुक्ति प्राप्त कर सकता है, जैसे बछड़े के खुरों से बने गड्ढों को पार कर लिया जाता है। ऐसे लोग भगवान के धाम में निवास करने के लिए बने हैं।

हमें ये बात अच्छे से समझनी चाहिए कि संसार मे हर चीज़ मे अतृप्ति है और दुःख और विषाद ईश्वर प्राप्ति का साधन है।

 गीता में भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि —

अमानित्वमदंभित्वमहिंसा कान्तिरार्जवम्। 

आचार्योपासनं शौचं स्थिर्यमात्मविनिग्रह:।। 

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च। 

जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम्।। 

आसक्तिकरणभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु। 

नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।। 

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। 

विविक्तदेशसेवित्वमृत्युर्जनसंसदि।। 

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्। 

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। 

विनम्रता; पाखंड से मुक्ति; अहिंसा; क्षमा; सरलता; गुरु की सेवा; शरीर और मन की शुचिता; स्थिरता; तथा आत्म-संयम; इन्द्रिय-विषयों के प्रति वैराग्य; अहंकार का अभाव; जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु के दोषों को ध्यान में रखना; अनासक्ति; जीवनसाथी, बच्चों, घर आदि से आसक्ति का अभाव; जीवन में वांछित और अवांछित घटनाओं के बीच समभाव; मेरे प्रति निरंतर और अनन्य भक्ति; एकांत स्थानों की ओर झुकाव और सांसारिक समाज से विमुखता; आध्यात्मिक ज्ञान में निरंतरता; और परम सत्य की दार्शनिक खोज - इन सभी को मैं ज्ञान घोषित करता हूँ, और जो इसके विपरीत है, उसे मैं अज्ञान कहता हूँ।

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान प्राप्त करना केवल बौद्धिक अभ्यास नहीं है। पुस्तकीय ज्ञान के विपरीत, जिसे व्यक्ति के चरित्र में परिवर्तन किए बिना विकसित किया जा सकता है, श्रीकृष्ण जिस आध्यात्मिक ज्ञान की बात कर रहे हैं, उसके लिए हृदय की शुद्धि की आवश्यकता होती है। (यहाँ हृदय का तात्पर्य भौतिक अंग से नहीं है। मन और बुद्धि के आंतरिक तंत्र को भी कभी-कभी हृदय कहा जाता है।) ये पाँच श्लोक उन सद्गुणों, आदतों, व्यवहारों और दृष्टिकोणों का वर्णन करते हैं जो व्यक्ति के जीवन को शुद्ध करते हैं और उसे ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करते हैं।

गुणानेतानतीत्यत्रीन्देहीदेहसमुद्भवन्। 

जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोस्मृतमश्नुते॥ 

जब देहधारी जीव भौतिक शरीर से सम्बद्ध इन गुणों को लाघने में सक्षम होता है, तो वह जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और अनेक कष्टों से मुक्त हो सकता है और इसी जीवन में अमृत का भोग कर सकता है।

किस प्रकार के समान शरीर में कृष्ण भावना अमृत दिव्य स्थिति में आ सकता है। देही का अर्थ देहधारी है। हालाँकि मनुष्य के भीतर यह भौतिक शरीर रहता है, लेकिन वह अपने आध्यात्मिक ज्ञान के विकास के द्वारा प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त हो सकता है। वह इसी शरीर में आध्यात्मिक जीवन का सुखोपभोग कर सकता है, क्योंकि इस शरीर के बाद उसका वैकुंठ जाना निश्चित है। लेकिन वह इसी तरह शरीर में आध्यात्मिक सुख उठा सकता है। दूसरे शब्दों में, कृष्ण भावनमृत में भक्ति करना भव-पाश से मुक्ति का संकेत है।

एक कहानी

एक कहानी अभी मैंने पढ़ी थी । एक बार एक नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा। यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली। वह सोचने लगा, अहा! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं?

कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता। अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य.. इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।

नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ। सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई। चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी।

कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया।

आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।

शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते हैं।

जीत किसके लिए, हार किसके लिए..। 

ज़िंदगीभर ये तकरार किसके लिए..।। 

जो भी आया है वो जायेगा एक दिन..। 

फिर ये इतना अहंकार किसके लिए..।। 

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