संस्कृत श्लोक: "अकर्तव्येष्वसाध्वीव तृष्णा प्रेरयते नरम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
🙏जय श्री राम 🌹सुप्रभातम्🙏
प्रस्तुत श्लोक अत्यंत गूढ़ और नैतिक शिक्षा से परिपूर्ण है।
आइए इसका शुद्ध हिन्दी अनुवाद, शाब्दिक विश्लेषण, व्याकरण, भावार्थ, और आधुनिक सन्दर्भ में विस्तृत विवेचन करें—
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Sanskrit, thought संस्कृत श्लोक: "अकर्तव्येष्वसाध्वीव तृष्णा प्रेरयते नरम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
🪔 श्लोक:
अकर्तव्येष्वसाध्वीव तृष्णा प्रेरयते नरम्।तमेव सर्वपापेभ्यो लज्जा मातेव रक्षति॥
📘 1. शाब्दिक अनुवाद:
पद | अर्थ |
---|---|
अकर्तव्येषु | जो नहीं करना चाहिए, अनुचित कर्मों में |
असाध्वीव | दुष्चरित्र स्त्री के समान |
तृष्णा | लालच, लोभ, अत्यधिक इच्छा |
प्रेरयते | प्रेरित करती है, उकसाती है |
नरम् | मनुष्य को |
तम् एव | उसी मनुष्य को |
सर्वपापेभ्यः | सभी पापों से |
लज्जा | लज्जा, संकोच, मर्यादा |
माता इव | माता के समान |
रक्षति | रक्ष करती है, बचाती है |
🧠 2. व्याकरणिक विश्लेषण:
- अकर्तव्येषु – सप्तमी बहुवचन, नपुंसक लिंग (कर्म-वाच्य, निषेध वाचक)
- असाध्वीव – उपमा अलंकार, "जैसे असाध्वी" (दुष्चरित्रा स्त्री)
- प्रेरयते – प्रेर् धातु, लट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन
- नरम् – द्वितीया एकवचन, पुंलिंग
- लज्जा – प्रथमाविभक्ति, स्त्रीलिंग, एकवचन
- मातेव – "माता इव" – उपमा वाचक
- रक्षति – रक्ष् धातु, लट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन
💡 3. भावार्थ:
यह श्लोक दो महान मानवीय भावों का तुलनात्मक चित्र प्रस्तुत करता है:
-
तृष्णा (लोभ) —जैसे एक कुपथगामिनी स्त्री पुरुष को अधर्म के मार्ग पर प्रेरित कर विनाश की ओर ले जाती है,वैसे ही तृष्णा भी मनुष्य को अकर्तव्यों की ओर घसीटती है — चोरी, भ्रष्टाचार, हिंसा, पाखंड आदि।
-
लज्जा (मर्यादा/संकोच) —जब मनुष्य पथभ्रष्ट होने को होता है, तब लज्जा ठीक माता की भाँति उसे पापों से बचा लेती है,उसके अंतर में संवेदना, आत्मग्लानि, और विवेक जाग्रत करती है।
🌍 4. आधुनिक सन्दर्भ में विवेचना:
🔻 तृष्णा के दुष्परिणाम:
- आधुनिक जीवन में तृष्णा सबसे बड़ा संकट बन चुकी है — अधिक पैसा, प्रतिष्ठा, सुख-साधन की लालसा।
- इसी कारण से लोग घूस, बेईमानी, धोखा, लूट, रिश्वत आदि पथ पर बढ़ जाते हैं।
🔔 लज्जा की भूमिका:
- लज्जा, यानि अंतरात्मा की चेतना, व्यक्ति को संयमित और नैतिक बनाती है।
- यदि लज्जा न हो, तो कोई भी अपराध करने में भीतरी रोक नहीं लगेगी।
🔹 इसलिए यह श्लोक एक चेतावनी है:
"यदि तुम तृष्णा के जाल में फँस गए, तो केवल लज्जा ही तुम्हारी रक्षा कर सकती है।"
🔱 5. नीति कथा द्वारा व्याख्या (संक्षिप्त):
गुरु और शिष्य का संवाद
👨🏫 शिष्य: "गुरुदेव, हम पाप क्यों करते हैं?"
👴 गुरु: "क्योंकि तृष्णा हमें उकसाती है, जैसे कोई दुष्चरित्र स्त्री युवक को बहकाए।"
👨🏫 शिष्य: "तो क्या कोई हमें बचा नहीं सकता?"
👴 गुरु: "लज्जा — यदि तुममें लज्जा शेष है, तो वह तुम्हारी माता बनकर पाप से बचा सकती है।"
🔚 6. निष्कर्ष:
तृष्णा तुम्हें गिराती है, लज्जा तुम्हें बचाती है।तृष्णा से विवेक जाता है, लज्जा से सदाचार लौटता है।जो लज्जा को खो देता है, वह स्वयं को खो देता है।