"Rudrashtakam Stotra by Goswami Tulsidas – रुद्राष्टकम: गोस्वामी तुलसीदास रचित शिव स्तुति

Sooraj Krishna Shastri
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Rudrashtakam Stotra by Goswami Tulsidas – रुद्राष्टकम: गोस्वामी तुलसीदास रचित शिव स्तुति

 गोस्वामी तुलसी दास जी भगवान् शिव जी को स्तुति के लिए 'रुद्राष्टकम्- स्तोत्र' की रचना की थी। यह स्तोत्र श्रीरामचरित मानस के उत्तर कांड में उल्लेख आता है। इसमें शिव जी के रूप, गुण और कार्यों का वर्णन किया हुआ है। जो मनुष्य रुद्राष्टकम स्तोत्र को भक्ति- पूर्वक पढ़ते या सुनते हैं, स्वयम्भू भगवान शंकर उन से प्रसन्न होने के कारण उनके दुख- कष्ट दूर होकर सुख- शांति में जीवन भर जाती है। अथर्वशीर्ष उपनिषद में भगवान् शिव देवताओं को रूद्र के बारे में जो बताया था और फिर देवताओं ने जिस प्रकार रुद्र के स्वरूप को विस्तार से वर्णन किया, उसके आधार पर ही यह स्तुति "रुद्राष्टकम" के नाम से अत्यंत प्रसिद्ध। भक्तों को सकल वाधा से मुक्तकारी इस मन्त्र शक्ति युक्त अष्टक स्तोत्र को नित्य पठन करने वालों को तो इहजन्म में शिव जी की कृपा मिलती है, मृत्युपरांत भी शिवलोक प्राप्ति होती है।।

"Rudrashtakam Stotra by Goswami Tulsidas – रुद्राष्टकम: गोस्वामी तुलसीदास रचित शिव स्तुति
"Rudrashtakam Stotra by Goswami Tulsidas – रुद्राष्टकम: गोस्वामी तुलसीदास रचित शिव स्तुति


।।रुद्राष्टकम्।।

नमामीशमीशान.    निर्वाणरूपं

   विभुं  व्यापकं  ब्रह्मवेदस्वरूपम्।

   निजं  निर्गुणं  निर्विकल्पं निरीहं 

          चिदाकाशमाकाशवासंभजेहम।।1।।


भावार्थ - "भगवन ईशान को मेरा प्रणाम, ऐसे भगवान जो कि निर्वाण रूप हैं जो कि महान ॐ के दाता हैं जो सम्पूर्ण ब्रह्माण में व्यापत हैं जो अपने आपको धारण किये हुए हैं जिनके सामने गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं, जिनका कोई विकल्प नहीं, जो निष्पक्ष हैं जिनका आकर आकाश के सामान हैं जिसे मापा नहीं जा सकता उनकी मैं उपासना करता हूँ।।1।।"


निराकारमोङ्करमूल      तुरीयं

गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम्।

 करालं   महाकालकालं  कृपालं

    गुणागारसंसारपारं नतोहम्।।2।।


भावार्थ - "जिनका कोई आकार नहीं, जो ॐ के मूल हैं, जिनका कोई राज्य नहीं, जो गिरी के वासी हैं, जो कि सभी ज्ञान, शब्द से परे हैं, जो कि कैलाश के स्वामी हैं, जिनका रूप भयावह हैं, जो कि काल के स्वामी हैं, जो उदार एवम् दयालु हैं, जो गुणों का खजाना हैं, जो पुरे संसार के परे हैं उनके सामने मैं नत मस्तक हूँ।।2।।"


तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं

मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम्। 

स्फुरन्मौलिकल्लोलिनीचारुगङ्गा 

  लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा।।3।।


 भावार्थ - "जो कि बर्फ के समान शीतल हैं, जिनका मुख सुंदर हैं, जो गौर रंग के हैं जो गहन चिंतन में हैं, जो सभी प्राणियों के मन में हैं, जिनका वैभव अपार हैं, जिनकी देह सुंदर हैं, जिनके मस्तक पर तेज हैं जिनकी जटाओ में लहलहारती गंगा हैं, जिनके चमकते हुए मस्तक पर चाँद हैं, और जिनके कंठ पर सर्प का वास हैं।।3।।"


चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं

प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं 

   प्रियं शङ्करं सर्वनाथंभजामि।।4।।


भावार्थ - "जिनके कानों में बालियाँ हैं, जिनकी सुन्दर भोहे और बड़ी-बड़ी आँखे हैं जिनके चेहरे पर सुख का भाव हैं जिनके कंठ में विष का वास हैं जो दयालु हैं, जिनके वस्त्र शेर की खाल हैं, जिनके गले में मुंड की माला हैं ऐसे प्रिय शंकर पुरे संसार के नाथ हैं उनको मैं पूजता हूँ।।4।।"


प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

अखण्डं अजंभानुकोटिप्रकाशं।

त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं

भजेहं भवानीपतिंभावगम्यम।।5।।


भावार्थ - "जो भयंकर हैं, जो परिपक्व साहसी हैं, जो श्रेष्ठ हैं अखंड है जो अजन्मे हैं जो सहस्त्र सूर्य के सामान प्रकाशवान हैं जिनके पास त्रिशूल हैं जिनका कोई मूल नहीं हैं जिनमे किसी भी मूल का नाश करने की शक्ति हैं ऐसे त्रिशूल धारी माँ भगवती के पति जो प्रेम से जीते जा सकते हैं उन्हें मैं वन्दन करता हूँ।।5।।"


कलातीतकल्याणकल्पान्तकारी

सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।

चिदानन्दसंदोह मोहापहारी 

      प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।6।।


भावार्थ - "जो काल के बंधे नहीं हैं, जो कल्याणकारी हैं, जो विनाशक भी हैं, जो हमेशा आशीर्वाद देते है और धर्म का साथ देते हैं, जो अधर्मी का नाश करते हैं, जो चित्त का आनंद हैं, जो जूनून हैं जो मुझसे खुश रहे ऐसे भगवान जो कामदेव नाशी हैं, उन्हें मेरा प्रणाम।।6।।"


न यावद् उमानाथपादारविन्दं 

भजन्तीह लोकेपरे वा नारानाम्,

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं 

  प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।7।।


भावार्थ - "जो यथावत नहीं हैं, ऐसे उमा पति के चरणों में कमल वन्दन करता हैं ऐसे भगवान को पूरे लोक के नर नारी पूजते हैं, जो सुख हैं, शांति हैं, जो सारे दुखो का नाश करते हैं, जो सभी जगह वास करते हैं।।7।।"


न जानामि योगं जपं नैव पूजां

नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।

जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं 

      प्रभो पाहिआपन्नमामीशशंभो।।8।।


 भावार्थ - "मैं कुछ नहीं जानता, ना योग, ना ध्यान हैं। देवों के सामने मेरा मस्तक झुकता हैं। सभी संसारिक कष्टों, दुःख- दर्द से मेरी रक्षा करे। मेरी बुढ़ापे के कष्टों से से रक्षा करें। मैं सदा ऐसे शिव- शम्भु को प्रणाम करता हूँ।। 8।।"

रुद्राष्टकमिदं     प्रोक्तं    विप्रेण     हरतोषये।

  ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।

इति श्रीतुलसिदासविरचिते श्रीमद्रामचरितमानसान्तर्गते रुद्राष्टकं सम्पूर्णम्।।

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