जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥

Sooraj Krishna Shastri
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जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥

"जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल  करम  बस  होहिं  गोसाईं। बरबस  राति  दिवस   की  नाईं॥"

अर्थात्, जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं॥

संसार को ईश्वर ने बनाया है, उसकी व्यवस्था एवं संचालन हेतु विधि-विधान भी उन्होंने बनाया है, हर व्यक्ति सुखी रहना चाहता है, इस

"जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥ काल  करम  बस  होहिं  गोसाईं। बरबस  राति  दिवस   की  नाईं॥"
"जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल  करम  बस  होहिं  गोसाईं। बरबस  राति  दिवस   की  नाईं॥"

संसार में सुखपूर्वक रहने हेतु मानव को उन विधि विधानों की व्यवस्था को समझना अनिवार्य है। गीता में भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि —

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना:    प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता: ।

  तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया ।।

मनुष्य जिनकी बुद्धि भौतिक कामनाओं द्वारा भ्रमित हो गयी है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार वे देवताओं की पूजा करते हैं और इन देवताओं को संतुष्ट करने के लिए वे धार्मिक कर्मकाण्डों में संलग्न रहते हैं।

सर्वधर्मान्परित्यज्य     मामेकं    शरणं   व्रज।

 अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

जैसे किसी देश का राष्ट्रपति देश की शासन व्यवस्था का संचालन कई अधिकारियों की सहायता से करता है उसी प्रकार से देवता भी भगवान के शासन के कनिष्ठ अधिकारी हैं। यद्यपि हमारे जैसी जीवात्माएँ जो कि आध्यात्मिक रूप से ऊपर उठी हुई हैं और अपने पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों के परिणामस्वरूप उन्होंने भौतिक जगत की शासन व्यवस्था में उच्च पद प्राप्त कर लिया है। वे किसी को माया के बंधनों से मुक्ति नहीं दिला सकती क्योंकि वे अपने आप में स्वतंत्र नहीं हैं। वे केवल अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर की भौतिक वस्तुएँ प्रदान कर सकती हैं। लौकिक कामनाओं के कारण लोग देवताओं की पूजा करते हैं और उनकी पूजा के लिए निश्चित धार्मिक विधियों का पालन करते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे लोग जिनका ज्ञान भौतिक इच्छाओं से आच्छादित हो जाता है वही देवताओं की पूजा करते हैं।

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा: ।

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये  यजन्ते  तामसा जना: ।।

सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ।।

अब हमारे उपर है कि हम राष्ट्रपति की पूजा करें, या ग्राम प्रधान की।ग्राम प्रधान, विधायक,, सांसद का एक सीमित दायरा है, लेकिन राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री का विस्तृत है, यह भी सही है कि हम वहां तक नहीं पहुंच सकते, लेकिन यदि आप के पूर्व कर्म अच्छे हैं तो पहुंच तो नहीं सकते, लेकिन बन जरुर सकते हों,।

अहं  सर्वस्य   प्रभवो  मत्त:   सर्वं   प्रवर्तते ।

   इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ।।

 मैं समस्त सृष्टि का उद्गम हूँ। सभी वस्तुएँ मुझसे ही उत्पन्न होती हैं। जो बुद्धिमान यह जान लेता है वह पूर्ण दृढ़ विश्वास और प्रेमा भक्ति के साथ मेरी उपासना करता है।

अनेक ईश्वरीय विधानों में एक महत्वपूर्ण विधान कर्मफल का सिद्धाँत है, उपासना पद्धति एवं धार्मिक मान्यताएँ भले ही विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में अलग-अलग हों परन्तु सभी ने कर्मफल की अनिवार्यता को मान्यता दी है। 

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: ।

 अकर्मणश्च  बोद्धव्यं  गहना  कर्मणो  गति: ।।

कर्मः —

कर्म वे पवित्र कार्य हैं जिनकी धर्म ग्रंथों में इन्द्रियों को नियंत्रित करने और मन को शुद्ध करने हेतु संस्तुति की गयी है।

वर्जित कर्मः —

विकर्म अपवित्र कार्य हैं जिनका धर्म ग्रंथों में निषेध किया गया है क्योंकि ये हानिकारक होते हैं और इनके परिणामस्वरूप आत्मा का पतन होता है।

अकर्मः —

अकर्म ऐसे कर्म हैं जो फल की आसक्ति के बिना और भगवान के सुख के लिए किए जाते हैं। ना तो कर्मफल बनता है और न ही ये आत्मा को बंधन में डालते हैं।

सनातन संस्कृति के अनुसार मान्यताएँ-कर्मफल, पुनर्जन्म, आत्मा की अमरता आदि महत्वपूर्ण है, कर्मफल का विधान अर्थात् जैसा कर्म वैसा फल, मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, 

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।

 ततो  युद्धाय  युज्यस्व  नैवं  पापमवाप्स्यसि ॥

 गीता में अर्जुन को जो सांख्य योग के माध्यम से यह जान लेता है कि वह शरीर नहीं है केवल एक आत्मा है उसी को कर्मयोग कहते है। सुख दुःख तो केवल इस शरीर के लिए है हो यहीं पर छूट जानेवाला है। जो यह जान लेता है कि यही सब माया है तो उनके लिए कर्म योगी बनना सरल हो जाता है।

कर्मों का फल तुरन्त नहीं मिलता इससे सदाचारी व्यक्तियों के दु:खी जीवन जीने एवं दुष्ट दुराचारी व्यक्तियों को मौज मजा करते देखा जाने पर कर्मफल के सिद्धाँत पर एकाएक विश्वास नहीं होता।

कबीरा रस्सी पांव में,कह सौवे सुख चैन।

सांस नगाड़ा कूच का बाजत है दिन रैन।।

कबीर दास जी कहते है कि खुद को आजाद,ताकतवर समझने वाले तुझे किस बात का मिथ्या अभिमान है।तू सच्चाई से गाफिल क्यों है,तेरे पांव में काल की जंजीर बंधी है,तू स्वतंत्र कहां है ,तू तो उस परमात्मा की मर्ज़ी रूपी जंजीर से बंधा एक शूद्र दास है।मालिक तो ईश्वर है।हम तो उसके इशारे पर नाचने वाली कठपुतलियां मात्र है।काल की रस्सी पांव में बंधी है जिसे वो जब चाहे खींच लेगा।

शरीर में आने वाली सांस भी कूच प्रस्थान का नगाड़ा मात्र है जो बिना रुके बजता रहता है।यह हर पल कभी भी चल देने का संकेत दे रही है।हे मानव तू काम पिपासु होकर कहां विषयों में लिप्त खुद को स्वतंत्र समझ रहा है।इस नगाड़े को चेतावनी समझ और इसी नगाड़े को जीवन का संगीत बना ले।सत्य को पहचान और अपनी पहचान बना।ईश्वर के साथ जुड़ने से ईश्वर समान होकर निर्भय हो जा।जहां जीवन मृत्यु,सुख दुख,हानि लाभ, मान अपमान का कोई भय नहीं।सांसारिक बंधन गुलामी का कारण है और ईश्वर से बंधन मुक्ति का कारण है इसलिए इस ईश्वरीय बंधन को अंगीकार कर और अपना लोक एवं परलोक दोनों सुधार लो।

कर्मों का फल तत्काल नहीं मिलने, फल को परिपक्व होने में समय लगता है, ईश्वर व्यक्ति के धीरज की तथा स्वभाव चरित्र की परीक्षा लेते हैं,

आज कल माल, या दुकान, कार्यालय में हम कैमरा लगा कर रखते हैं, उस कैमरे का जुड़ाव एक ऐसी जगह से होता है, जहां से आपकी हर हरकत को देखा जाता है।

इस शरीर में परमेश्वर भी रहता है। उसे साक्षी, अनुमति प्रदान करने वाला, सहायक, परम भोक्ता, परम नियन्ता और परमात्मा कहा जाता है।

उपद्रष्टानुमन्ता  च  भर्ता  भोक्ता  महेश्वर: ।

  परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुष: पर: ।।

लेकिन आप भूल गए हैं कि ईश्वर ने जब इस धरा पर आपको भेजा तभी से आपके अंदर एक कैमरा लगा रखा है, वह दिखता नहीं है गुप्त कैमरा है, 

 जो कर्मों का लेखा-जोखा रखने हेतु चित्रगुप्त (अन्त:करण में गुप्त चित्र) गुप्त रूप से चित्त में चित्रण करता रहता है।

इस कैमरे का निरीक्षण कहीं और जगह से हो रहा है, अर्थात पेनड्राइव किसी दूसरे के पास है।

मन  एव  मनुष्याणां  कारणं   बन्धमोक्षयोः ।

बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥

अवचेतन मन, जिसे उपचेतन मन भी कहा जाता है, हमारे मन का वह हिस्सा है जो हमारे विचारों, भावनाओं, और अनुभवों को संग्रहीत करता है, जो वर्तमान में हमारी जागरूकता में नहीं हैं, लेकिन जिन्हें आवश्यकता पड़ने पर पुनः प्राप्त किया जा सकता है. यह हमारे चेतन मन के नीचे काम करता है और हमारे व्यवहार, आदतों और प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करता है।

अचेतन मन में प्रत्येक कर्म व सोच अंकित होती रहती है, निष्पक्ष न्यायाधीश की भाँति अन्तश्चेतना चित्त में ज्यों का त्यों कर्म रेखा को अंकित हो जाती है।

एक-एक परमाणु में अगणित रेखाएँ हैं, अक्रिय आलसी एवं विचार शून्य प्राणियों में कम रेखाएँ तथा कर्मनिष्ठ एवं विचारवानों में अधिक कर्म रेखाएँ होती हैं।

समझदार ज्ञानी व्यक्ति छोटे दुष्कर्म करके भी बड़े पाप का भागी होता है, अनजान और कम समझदार को उसी कर्म का फल हल्के स्तर का मिलता है। 

चित्रगुप्त देवता के देश में रूपयों की गिनती, तीर्थयात्रा, कथावार्ता या भौतिक चीजों से कर्म का माप नहीं बल्कि इच्छा व भावना के अनुसार पाप-पुण्य का लेखा-जोखा होता है। 

अर्जुन को महाभारत के युद्ध में असंख्य लोगों को मार देने पर भी कोई पाप नहीं लगा क्योंकि उन्होंने धर्म युद्ध किया था, इसी आधार पर कर्मों का फल पाप और पुण्य के रूप में प्राप्त होता है।

जैसी करनी वैसा फल, आज नहीं तो निश्चय कल।

लेकिन कर्मो का फल तुरन्त नहीं मिलता, जैसे- फसल का पकना, अदालत का फैसला, पहलवान, विद्वान तुरंत नहीं बनते हैं, वैसे ही दूध से घी बनने की प्रक्रिया की भांति कर्मबीज पकता है तब फिर फल देता है, किन्तु फल मिलता अवश्य है।

कर्मों का फल अनिवार्य है, जैसे-गर्भ के बालक का जन्म होना अनिवार्य है, भगवान राम ने बालि को छुपकर मारा था, फिर कृष्ण रूप में अवतरित हुए श्रीराम को बहेलिये के रूप में बालि ने मारा था।

भीष्म पितामह का मृत्युशैय्या पर द्रौपदी के साथ संवाद में बताना कि शरीर में तीरों के द्वारा रक्त रिसना कर्मफल है, राजा दशरथ का पुत्र शोक में प्राण त्यागना भी उनका कर्मफल था, कर्मफल से भगवान भी नहीं बचते तो सामान्य मनुष्य की बात क्या?

ननुनाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्॥

कर्मों की प्रकृति के आधार पर ही उसका फल सुनिश्चित होता है। कर्म तीन प्रकार के होते हैं, संचित, प्रारब्ध,  क्रियमाण। 

यादृशं  कुरुते  कर्म  तादृशं  फलमाप्नुयात् ।

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।।

संचित कर्म- 

जो दबाव में, बेमन से, परिस्थितिवश किया जाए ऐसे कर्मों का फल 1000 वर्ष तक भी संचित रह जाता है, इस कर्म को मन से नहीं किया जाता, इसका फल हल्का धुंधला और कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से टकराकर समाप्त भी हो जाता है।

प्रारब्ध कर्म- 

तीव्र मानसिकता पूर्ण मनोयोग से योजनाबद्ध तरीके से तीव्र विचार एवं भावनापूर्वक किये जाने वाले कर्म, इसका फल अनिवार्य है, पर समय निश्चित नहीं है, इसी जीवन में भी मिलता है और अगले जन्म में भी मिल सकता है।

क्रियमाण कर्म- 

शारीरिक कर्म जो तत्काल फल देने वाले होते हैं। जैसे- किसी को गाली देना, मारना। क्रिया के बदले में तुरंत प्रतिक्रिया होती है। 

काहू न कोउ सुख दु:ख कर दाता।

निज  निज कर्म  भोग सब भ्राता।।

मानव अपने सुख दु:ख का कारण स्वयं ही होता है, धोखा देंगे तो धोखा खाएंगे, मन्त्र जप, ध्यान, अनुष्ठान, साधना-उपासना से मानसिक व सूक्ष्म अन्त: प्रकृति व बाह्य प्रकृति का शोधन होती है।

दु:खों, प्रतिकूलताओं को सहने की क्षमता बढ़ जाती है, दु:खों से घबराएँ नहीं, इससे हमारी आत्मा निष्कलुष, उज्जवल, सफेद चादर की भाँति हो जाती है। 

सार्वभौम पाप-अपनी क्षमताओं को बह जाने देना, अन्त:चेतना या ईश चेतना की अवहेलना बड़ा पाप है, कर्म के बन्धन तथा उससे मुक्ति के उपाय-सुख व दु:ख दोनों ही स्थिति में कोई प्रतिक्रिया न करके उस कड़ी को आगे बढ़ाने से रोकना। 

सुख को योग एवं दु:ख को तप की दृष्टि से देखें व उसके प्रति सृजनात्मक दृष्टि रखें, सुख के क्षण में इतराएँ नहीं, दु:ख के समय घबराएँ नहीं, दु:ख या विपत्ति हमेशा कर्मों का फल नहीं होती बल्कि हमारी परीक्षा के लिए भी आती है, इनसे संघर्ष करके हमारा व्यक्तित्व चमकदार बनता है।

इसलिए दु:खों व प्रतिकूलताओं के समय धीरज रखें डटकर उसका मुकाबला करें। इसके बाद ईश्वरीय न्याय के अनुसार आपको अनुकूलता रूपी प्रमोशन मिलेगा ही।

भैया हम तो एक बात जानते हैं, सोने के बिस्कुट की रखवाली लोहे की तिजोरी करतीं हैं, और उसी में पड़ा रहता है, लेकिन जब किसी के गले का हार बनना हो तों उसे आग में तपाया भी जायेगा, और छेनी हथौड़ी की मार भी खानी पड़ेगी।

सबकी अपनी किस्मत है एक पत्थर पर आप नारियल फोड़ते हों और दूसरा जो छेनी हथौड़ी खाकर मंदिर में बैठा है उसकी पूजा भी करते हों,

इसलिए यदि दुःख आवे तो घबराना नहीं, ये मानकर चलों कि ईश्वर की कृपा प्राप्त हो रही है, आप भी किसी के गले का हार बनने वाले हों, हां याद रखें किसी को कष्ट मत दो किसी की आह मत लो, किसी की सम्पत्ति मत हड़पो।

गांव-देहात में एक कीड़ा पाया जाता है, जिसे गोबरैला कहा जाता है। उसे गाय, भैंसों के ताजे गोबर की बू बहुत भाती है! वह सुबह से गोबर की तलाश में निकल पड़ता है और सारा दिन उसे जहां कहीं गोबर मिल जाता है, वहीं उसका गोला बनाना शुरू कर देता है। शाम तक वह एक बड़ा सा गोला बना लेता है। फिर उस गोले को ढ़केलते हुए अपने बिल तक ले जाता है। लेकिन बिल पर पहुँचकर उसे पता चलता है कि गोला तो बहुत बड़ा बन गया मगर उसके बिल का द्वार बहुत छोटा है।

बहुत परिश्रम और कोशिशों के बाद भी वह उस गोले को बिल के अन्दर नहीं ढ़केल पाता, और उसे वहीं छोड़कर बिल में चला जाता है।

यही हाल हम मनुष्यों का भी है। पूरी जिन्दगी हम दुनियाभर का माल-मत्ता जमा करने में लगे रहते हैं, और जब अन्त समय आता है, तो पता चलता है कि ये सब तो साथ नहीं ले जा सकते। और तब हम उस जीवन भर को कमाई को बड़ी हसरत से देखते हुए इस संसार से विदा हो जाते है।

दु:ख, रोग, शोक हमारे जीवन की शुद्धि करके हमें पुन: तरोताजा कर देते हैं, अत: न उससे घबराएँ, न भागें, न ही किसी को कोसें।

दुखिया    को    ना    सताइए    दुखिया    देगा   रोए।

जब दुखिया का मुखिया सुने तब तेरी गति क्या होय।।

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