"Tulsi Mamta Ram So" – तुलसीदास जी के दोहे का गहरा आध्यात्मिक संदेश

Sooraj Krishna Shastri
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"Tulsi Mamta Ram So"  – तुलसीदास जी के दोहे का गहरा आध्यात्मिक संदेश

तुलसीदास जी के दोहे ‘तुलसी ममता राम सों…’ का सरल हिन्दी व English अर्थ। जानिए ममता, समता और भक्ति से मोक्ष प्राप्ति का रहस्य।


तुलसीदास जी का दोहा और उसका आध्यात्मिक संदेश 

“तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न द्वेष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥”


1. ममता केवल भगवान से

मानव जीवन का लक्ष्य है भवसागर से पार उतरना। तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि ममता रखनी ही है तो केवल प्रभु श्रीराम से रखो। संसार की वस्तुएँ और भोग-विलास प्रारब्धानुसार मिलते-बिछुड़ते रहते हैं, उन पर हमारा अधिकार नहीं है। इसलिए उनमें ममता का भाव रखना उचित नहीं।

गीता (9.29):
“समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥”

भगवान कहते हैं कि मैं सभी प्राणियों में समान हूँ। कोई मेरा प्रिय नहीं और न ही कोई मेरा द्वेषी है, परंतु जो भक्त भाव से मेरा भजन करते हैं, वे मेरे में हैं और मैं उनके में हूँ।

"Tulsi Mamta Ram So"  – तुलसीदास जी के दोहे का गहरा आध्यात्मिक संदेश
"Tulsi Mamta Ram So" – तुलसीदास जी के दोहे का गहरा आध्यात्मिक संदेश



2. समता का भाव

संसार के प्रति साधक की दृष्टि समता भरी होनी चाहिए। सभी जीवों में भगवान ही विद्यमान हैं। सच्चा योगी उसी को देखता है।

गीता (6.32):
“आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥”

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो दूसरों के सुख-दुःख को अपने समान अनुभव करता है, वही परम योगी है।

गीता (6.29):
“सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥”

सच्चा योगी अपनी चेतना को भगवान में एकीकृत कर सभी जीवों में भगवान और भगवान में सभी जीवों को देखता है।


3. ईश्वर की सर्वव्यापकता

भगवान अपनी शक्तियों के द्वारा सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त रहते हैं और सभी का पोषण करते हैं।

श्वेताश्वतर उपनिषद् (6.17):

“एक देशस्थितस्याग्नेरज्योत्स्ना विस्तारिणी यथा।
परस्य ब्रह्मणः शक्तिस्तथैदखिलं जगत् ॥”

जैसे एक स्थान पर स्थित अग्नि का प्रकाश चारों ओर फैलता है, वैसे ही परमब्रह्म की शक्ति से सम्पूर्ण जगत प्रकाशित और पोषित होता है।


4. त्याज्य अवगुण

भवसागर से पार जाने के लिए साधक को अपने भीतर से कुछ अवगुणों को हटाना आवश्यक है। ये हैं—
राग, द्वेष, दोष और दुःख।
जब तक मनुष्य आकर्षण और घृणा में फँसा रहेगा, दूसरों के दोष खोजता रहेगा और अपने को दुख में डुबोता रहेगा, तब तक मन शुद्ध और स्थिर नहीं हो सकता।


5. कामनाओं से मुक्ति का मार्ग

हमारी इच्छाएँ ही हमारे बंधनों का कारण हैं। उनसे मुक्त होना कहना आसान है, करना कठिन। केवल संकल्प से इच्छाएँ नहीं मिटतीं। इसके लिए सत्संग, निरंतर नाम-जप, ध्यान, शरणागति और भक्ति आवश्यक है। कठोर साधना और परमात्मा की कृपा से ही यह संभव होता है।

गीता (6.32) पुनः:

“आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥”

जो दूसरों के सुख-दुःख को अपना मानता है, वही परम योगी है।


6. प्रेम और भक्ति का महत्व

साधना के अनेक मार्ग हैं, परंतु बिना प्रेम और भक्ति के कोई भी साधन सफल नहीं होता।

रामचरितमानस:

“मिलें न रघुपति बिन अनुरागा ।
कियें जोग जप ताप विरागा ॥”

प्रभु केवल प्रेम से ही मिलते हैं। बिना अनुराग और भक्ति के योग, जप, तप और वैराग्य भी निष्फल हैं।


7. दास्य भाव और शरणागति

साधक को अहंकार त्यागकर सेवक भाव अपनाना चाहिए। अपने को दास मानकर प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना ही सच्चा मार्ग है। यह भाव रखना कि “हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं।” यही निरंतर अभ्यास सबसे सरल और श्रेष्ठ साधना है।


निष्कर्ष

तुलसीदास जी के इस दोहे का संदेश स्पष्ट है कि ममता केवल प्रभु में हो, संसार में समता का भाव हो, राग-द्वेष और दोष-दुःख का त्याग हो और सेवाभाव से प्रभु की भक्ति हो। यही अमोघ साधन हैं जिनसे मनुष्य जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त होकर परम शांति और परम प्रेम को प्राप्त कर सकता है।



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